Book Title: Mahopnishad
Author(s): Vijaykalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 39
________________ महोपनिषद् | अध्यात्मदर्शना 10000000000000000 एकं वा सर्वयत्नेन, सर्वमुत्सृज्य संश्रयेत् / एकस्मिन् वशगे यान्ति, चत्वारोऽपि वशं गताः // 4-3 // अन्यतरस्यापि स्वभ्यस्तस्य स्वान्यत्रयनिबन्धनत्वोपपत्तेः / तथा शास्त्रैः सज्जनसम्पर्क-पूर्वकैश्च तपोदमैः / आदौ संसारमुक्त्यर्थं, प्रज्ञामेवाभिवर्धयेत् // 4-4 // न हि गुरूपासनमन्तरेण शास्त्राभिधेयाधिगमः, न तपोदमान्तरेणाधिगताधिगमसाफल्यम्, अतो विनीतविनयेन ज्ञानक्रियासमादरः कर्त्तव्यः, एवमेवाऽऽत्मपरिणतिपरिष्कारात्मकप्रज्ञाभिवृद्धिसम्भवात्, तदाह - विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् / ज्ञानस्य फलं विरतिविरतिफलं चाश्रवनिरोधः - इति (प्रशमरतौ)। भवति हि गुरूपासनायुक्तयोगाक्षणिकचित्तस्य सन्तततदभ्यासयोगेनाऽऽत्मसाक्षात्कारानुभावतः संवरसामग्र्यं महोदयैकनिदानम् / एतदेव समर्थयति स्वानुभूतेश्च शास्त्रस्य, गुरोश्चैवैकवाक्यता / यस्याभ्यासेन तेनात्मा, सततं चावलोक्यते // 4-5 //

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