Book Title: Mahopnishad
Author(s): Vijaykalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 54
________________ महोपनिषद् अध्यात्मदर्शना ब्रह्मणा तन्यते विश्वं, मनसैव स्वयम्भुवा / मनोमयमतो विश्वं, यन्नाम परिदृश्यते // 4-50 // यदि हि ब्रह्मैव विश्वस्रष्टा, तदा स मनोरूप एव साङ्गत्यमुपैति, लक्षणसमन्वयात् / अतो मुमुक्षुणा तदभावे यतितव्यम्, निदानाभावस्य फलाभावानतिरेकात् / तदभावापादनमेवावगमयति सङ्कल्पनं मनो विद्धि, सङ्कल्पस्तत्र विद्यते / यत्र सङ्कल्पनं तत्र, मनोऽस्तीत्यवगम्यताम् // 4-52 // सङ्कल्पमनसी भिन्ने, न कदाचन केनचित् / / सङ्कल्पजाते गलिते, स्वरूपमवशिष्यते // 4-53 // यद्भावे स्वरूपकालुष्यम्, तद्विगमे विशुद्धतदवशिष्टताया आवश्यकत्वात् / एवञ्च अहं त्वं जगदित्यादौ, प्रशान्ते दृश्यसम्भ्रमे / स्यात्तादृशी केवलता, दृश्येऽसत्तामुपागते // 4-54 //

Loading...

Page Navigation
1 ... 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142