Book Title: Mahopnishad
Author(s): Vijaykalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
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________________ महोपनिषद् | अध्यात्म दर्शना 魯魯魯灣碧碧碧消著萬萬萬萬萬萬萬萬萬萬 इति दध्मातं तत्स्वरूपशंसनेन बोधयति तृणं पांसुं महेन्द्रं च, सुवर्णं मेरुसर्षपम् / आत्मम्भरितया सर्व-मात्मसात्कर्तुमुद्यतः // कालोऽयं सर्वसंहारी, तेनाऽऽक्रान्तं जगत्त्रयम् // 3-38 // तथा च दुरतिक्रम एव काल इत्यकामेनापि प्रतिपत्तव्यम्, तदप्रतिपत्तेस्तदनुभावमोक्षस्याहेतुत्वात्, उक्तञ्च - काल: पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः / कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः - इति / एवं सर्वथा विरागमार्गमवतारितस्यापि नारीगोचररागो दुर्निर्वर्त्यः, अनादिभवभावनाभ्यस्तत्वात्, मनुष्याणां मैथुनसझाया आधिक्याच्चेति तत्स्वरूपप्रकाशेन तदनुरागान्धकारमपनयति मांसपाञ्चालिकाया स्नायवस्थिग्रन्थिशालिन्याः, स्त्रियः किमिव शोभनम ? // 3-39 // यदि हि कृमिकुलाकुलकुथितकुणपाश्रयं किमपि शोभनत्वं स्यात्तदा स्त्रिया अपि तत्स्यात्, परमार्थतोऽविशेषादित्याशयः / एतदेव स्पष्टतरमाचष्टे 332200333333333 30

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