Book Title: Mahopnishad
Author(s): Vijaykalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
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________________ महोपनिषद् 9 अध्यात्म दर्शना अनात्मविदः - देहादिसर्वोपाधिविनिर्मुक्तपरिशुद्धस्वस्वरूपानभिज्ञस्य, वपुः - स्वशरीरम्, भारः, आजीवनमपि तदभिमानभरैकभारितत्वात्तस्य, अतस्त्याज्यो देहाश्रयोऽहङ्कार इत्याह अहङ्कारवशादापदहङ्कारादुराधयः / अहङ्कारवशादीहा, नाहङ्कारात्परो रिपुः // 3-16 // एतदेव रिपोस्तत्त्वम्, यदापदादिहेतुत्वम्, तच्च विचार्यमाणं परमार्थतोऽहङ्कार एव सङ्गतिमङ्गति, तदेकमूलत्वात्तस्य, अतस्तत्परमशत्रुत्वमुपपन्नमेव / अपि च ___ अहङ्कारवशाद्ययन्मया भुक्तं चराचरम् / ___ तत्तत्सर्वमवस्त्वेव, वस्त्वहङ्काररिक्तता // 3-17 // अहङ्कारवशात् - देहोऽहमित्याद्यभिमानात्, यद्यच्चराचरम् स्त्रीभोजनादिरूपं मया भुक्तम्, तत्तत्सर्वमवस्त्वेव, परकीयत्वेन मां प्रत्यसत्त्वात्, ऋजुसूत्रनयमतमिदम्, यथा हि परकीयं धनं स्वं प्रत्यसत्, भावाभावाविशेषात्, स्वोपयोगागोचरत्वात, एवमेव स्त्रीभोजनाद्यपि स्वात्मानं प्रतीत्य, अतो न्याय्यैव तदवस्तुता / किन्तर्हि वस्त्वित्यत्राह - वस्त्वहङ्काररिक्तता - इति, तद्विरेके स्वरूपमात्रावशेषात्, स्वं प्रति तत्त्वतस्तस्यैव वस्तुभूतत्वात् / सत्यप्येवं DHANANUAAAAAAAAA000

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