Book Title: Mahopnishad
Author(s): Vijaykalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
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________________ महोपनिषद् अध्यात्मदर्शना दुष्करस्तद्विरेकः, चित्तचाञ्चल्यादित्याह इतश्चेतश्च सुव्यग्रं, व्यर्थमेवाभिधावति / मनो दूरतरं याति, ग्रामे कौलेयको यथा // 3-18 // यथैव ग्रामकुक्कुरो व्यर्थाभिधावनेन कालं नयति, एवं मनोऽपीति भावः, किञ्च अप्यब्धिपानान्महतः, सुमेरून्मूलनादपि / अपि वयशनाद् ब्रह्मन् ! विषमश्चित्तनिग्रहः // 3-20 // दुष्करतरत्वान् महतामपि, तदाह - चिंतइ अचिंतणिज्जं, वच्चइ दूरं पि लंघइ गुरुं पि.। गुरूआण वि जेण मणो, भमइ दुरायारमहिल व्व - इति (पुष्पमालायाम् ) / तथापि यतितव्यमेव तन्निग्रहे, यतः चित्तं कारणमर्थानां, तस्मिन् सति जगत्त्रयम् / तस्मिन् क्षीणे जगत् क्षीणं, तच्चिकित्स्यं प्रयत्नतः // 3-21 // अर्थानाम् - स्वर्गनरकादिशुभाशुभवस्तूनाम्, कारणम् - अवन्ध्यनिबन्धनम्, चित्तम् - तत्तच्छुभाशुभाध्यवसायपरिणतं मनः, परिणामियं पमाणं - (ओघनिर्युक्तौ) इतिवचनात् , एवञ्च तस्मिन् - चित्ते सति जगत्त्रयम्,

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