Book Title: Mahopnishad
Author(s): Vijaykalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
View full book text
________________ महोपनिषद् | अध्यात्मदर्शना 0000204040 33333333333999999999 जगत्त्रयवर्तितत्तदर्थसार्थानां चित्तैकप्रसूतत्वात्, तन्निमित्तभावात्, अत एव तस्मिन् क्षीणे सति जगत् अपि तत्कार्य क्षीणं भवति, नाकारणं भवेत्कार्यमितिनीत्या / नन्वेवमेकस्य मुक्तौ जगन्मुक्तिप्रसङ्ग इति चेत् ? न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, यच्चित्तक्षयस्तम्प्रतीत्य जगत्क्षयस्याभिप्रेतत्वात्, तथा च चित्ते क्षीणे सति तत्सम्बन्धितया विश्वविश्वपदार्थसार्थपर्यायक्षयात् क्षीणमेव तम्प्रतीत्य जगदिति / यत एवम्, अतः प्रयत्नतः - निरन्तरं वीतरागवचनपरिशीलनाभ्यासाभियोगाऽऽदरतः, तत् - सर्वरोगावहभवज्वरैकहेतुतयोपचारतस्तत्पदव्यपदिष्टं चित्तम्, चिकित्स्यम् - अपास्ततद्धेतुभावतयाऽऽपाद्यम्, निर्मली-कार्यमिति यावत्, अन्वाह - चित्तमेव हि संसारस्तत्प्रयत्नेन शोधयेत् - इति (शाट्यायनीयोपनिषदि) / मनोविकारविशेषमेवाधिकृत्याह यां यामहं मुनिश्रेष्ठ !, संश्रयामि गुणश्रियम् / तां तां कृन्तति मे तृष्णा, तन्त्रीमिव कुमूषिका // 3-22 // पदं करोत्यलयेऽपि, तृप्ता विफलमीहते / चिरं तिष्ठति नैकत्र, तृष्णा चपलमर्कटी // 3-23 // 11033000

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142