________________
[११
कर ज्यों का त्यों बजा जाता है वे न तीर्थंकर के महान पुरुषार्थ
को समझते हैं न उसके आने की उपयोगिता, न धर्मसंस्था का । रूप । पुराना रिकार्ड तो साम्प्रदायिक आचार्य बजाते ही रहते " है, म. पार्श्वनाथ का रिकार्ड आचार्य केशी बजा ही रहे थे, इसके लिये तीर्थकर की जरूरत नहीं होती. उसकी जरूरत होती है युग के अनुसार एक नया धर्म, एक नई धर्म संस्था, एक नया धर्मतीर्थ बनाने के लिये।
- अहिंसा सत्य आदि धर्म के मौलिक तत्व भले ही अनादि अनन्त हो, पर वे किसी एक धर्म की या धर्मसंस्था की वपाती नहीं होते । व सभी के हैं । फिर भी दुनिया में जो जुदजुदे धर्म है अनके भेद का कारण सुन मौलिक तत्वों को जनके और
समाज के जावन में उतारने की भिन्न भिन्न प्रणाली है। . देशकाल और पात्र के भेद से यह प्रणालीभेद पंदा होता है । जैनधर्म भी आज से ढाई हजार वर्ष पहिले मगध की परिस्थिति और म. महावीर की दृष्टि के अनुसार बनी हुई एक प्रणाली है।
इसका निर्माण एक दिन में नहीं हुआ, अन्तर्मुहर्त के शुक्लध्यान से केवलज्ञान पैदा होते ही सब का सब एक साथ नहीं मलक गया । उसके लिये म. महावीर को गाईस्थ्य जीवन के साढ़े-उन्तीस वर्ष के अनुभवों के सिवाय साढ़े बारह वर्ष के तपस्याकाल के अनुभवों से तथा दिनरात के मनन चिन्तन से .. काम लेना पड़ा। इसके बाद भी तीस वर्ष की कैवल्य अवस्था
के अनुभवों और विचारों ने भी उसका संस्कार किया। तब जैन. चर्म का निर्माण हुआ। आचार के नियम, साधुसंस्था का ढांचा, विश्वरचना सम्बन्धी दर्शन, प्राणिविज्ञान, आदि सभी बातों पर महावीर जीवन की पूरी छाप है । ये सब उनके जीवन की घटनाओं से उनके मनन चिन्तन और अनुभवों से सम्बन्ध रखते हैं।