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नामचतुष्टयाध्याये चतुर्थः कारकपादः
१७ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि पाणिनि ने अव्ययसंज्ञा के बोधार्थ "स्वरादिनिपातमव्ययम्" (अ० १११।३७-४१) आदि ५ सूत्र बनाए हैं, जबकि कातन्त्रकार 'न व्येतीत्यव्ययम्' इस व्युत्पत्ति के बल पर उसे अन्वर्थ मानकर अव्ययसंज्ञा के अवबोधार्थ सूत्र बनाने की आवश्यकता नहीं समझते । इस प्रकार संज्ञासूत्ररचना को छोड़कर प्रक्रिया की दृष्टि से उभयत्र साम्य ही कहा जा सकता है।
[विशेष] १. न व्येति विशेषरूपं (भिन्नरूपम्) न यातीत्यर्थः (क० च०)। २. सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिषु ।
वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययम् ।। (दु० टी०)। ३. इयन्त इति संख्यानं निपातानां न विद्यते ।
प्रयोजनवशादेते निपात्यन्ते पदे पदे ।।(वि० प०)। ४. विभक्ति शब्द से कारक का ग्रहण (दु० टी० आदि)। ५. चादयस्तु पदान्तरस्य यो धर्मः समुच्चयादिस्तस्य स्वसन्निधानमात्रेणोप
कारिणो द्योतकाः (दु० टी०)। [रूपसिद्धि]
१-२= स्वः। स्वर् +सि आदि। प्रातः। प्रातर् + सि आदि । प्रकृत सूत्र से सिआदि का लोप तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः" (२।३।६३) से विसर्ग आदेश |
३-५= च। च+सि आदि । वा। वा+सि आदि । अह । अह + सि आदि । प्रकृत सूत्र से सि आदि का लोप ।।२८९।
२९०. रूढानां बहुत्वेऽस्त्रियामपत्यप्रत्ययस्य [२।४।५] [सूत्रार्थ]
रूढ= जनपदसमानशब्द वाले क्षत्रियविशेष के बोधक शब्दों से बहुवचन में विहित अपत्यप्रत्यय का लुक् होता है, स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर ।।२९०।