Book Title: Kalyan Mandir
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 15
________________ कल्याण-मन्दिर स्तोत्र मनोगत भावों को यथाशक्ति शब्दों का रूप देने के लिए प्रयत्न करता हूँ – आचार्य का यह कथन अत्यन्त ही हृदय स्पर्शी है । [ ७ ७ ] आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन ! संस्तवस्ते, भवतो जगन्ति । नामाऽपि पाति भवतो तीव्रातपोपहत - पान्थ - जनान् निदाघे, प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥ ८ - हे राग-द्व ेष के विजेता जिन! आपके अचिन्त्य महिमा वाले स्तवन के महत्त्व का तो कहना ही क्या है, यहाँ तो केवल आपका नाम भी त्रिभुवन के प्राणियों को दुःख से बचा सकता है । गर्मी के दिनों में भयंकर धूप से व्याकुल हुए मुसाफिरों को आनन्द प्रदान करने वाले कमल-सरोवर का तो कहना ही क्या है, उसकी केवल ठंडी हवा ही उन्हें तृप्त कर देती है । [८] हृद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति, जन्तोः क्षणेन निविडा अपि कर्म - बन्धाः । सद्यो भुजंगममया इव मध्यभाग मभ्यागते वन- शिखण्डिनि चन्दनस्य ॥ हे प्रभो ! जब आप ध्यान-शील भक्त के हृदय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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