Book Title: Kalyan Mandir
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 48
________________ कल्याण-मन्दिर स्तोत्र ४१ कुम्हार के अपने कर्म (क्रिया) का विपाक, अर्थात् घड़े को आग में पकाना, और दूसरा अर्थ है-कर्मों का फल, अर्थात् ज्ञानावरण आदि कर्मों का उदय । पहला अर्थ घड़े में घटित होता है और दूसरा भगवान् में। ___ अब जरा भावार्थ पर विचार कीजिए । भगवान् सांसारिक मोहमाया के न होने से वीतराग हैं। अतः संसार से पराङ मुख हैं-मुख मोड़े हुए हैं। परन्तु जिस प्रकार मिट्टी का घड़ा अपनी पीठ पर स्थित तैरने वाले लोगों की ओर पराङ्-मुख होते हुए भी उनको नदी आदि से पार उतार देता है, उसी प्रकार भगवान भी स्वयं मोक्षाभिमुख होने से संसारस्थ प्राणियों की ओर से पराङ मुख होते हुए भी अपने पृष्ठस्थित भक्तों को संसार सागर से पार उतार देते हैं। अर्थात जिस ज्ञान, दर्शन, चारित्र के पथ पर चल कर भगवान् मोक्ष में गए हैं, उसी मार्ग के अनुसरण करनेवाले अपने भक्त अनुयायियों को संसार से पार उतार देते हैं, मोक्ष पहुँचा देते हैं। पराङ मुख रह कर कैसे पहुँचा देते हैं ? इसका उत्तर यह है कि भगवान् पार्थिव-निप हैं। अतः पार्थिव-निप का कार्य कर देते हैं। पार्थिव-निप का अर्थ-मिट्टी का घड़ा है, परन्तु भगवान् तो पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी होने के नाते पार्थिव-निप हैं। किसी भी तरह हो, नाम-साम्य है । अतः नाम के अनुसार कार्य करना ही होता है। ज्ञानी पुरुष संसार के प्रतिकूल रह कर ही अपने पथानुगामियों को पार उतारते हैं, इसी प्रकार घड़ा भी। यह सब तो ठीक हो गया । परन्तु, एक अन्तर है। वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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