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कल्याण मन्दिर स्तोत्र
[ ३२ ] यद्गर्ज दूर्जित घनौघमदा भीमं, भ्रश्यत् - तडिन्मुसल- मांसल - घोर - धारम् । दैत्येन मुक्तमथ दुस्तर वारि दध, - तेनैव तस्य जिन ! दुस्तर - वारि-कृत्यम् ॥
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हे जिनेश्वर देव ! कमठ- दैत्य ने आप पर बड़ी भयंकर जल-वर्षा की, ऐसी वर्षा कि जिसमें बड़े-बड़े विशाल मेघ - समूह गर्जन कर रहे थे, बिजलियाँ गिर रही थीं, मूसल के समान मोटी-मोटी जलधाराएँ बरस रही थीं, जो अत्यन्त डरावनी मालूम होती थीं और जिनका अथाह जल तैरकर भी पार करना कठिन था ।
परन्तु उस वर्षा से आपकी कुछ भी हानि न हुई, प्रत्युत वह उस कमठ के लिए ही दुष्ट तलवार का काम कर गई, उसे घायल कर गई ।
टिप्पणी
श्लोक में आए हुए 'दुस्तरवारि - कृत्यम्' शब्द का अर्थ हैदुष्ट तलवार का कार्य । जिस प्रकार खराब तलवार चलानेवाले को ही घायल कर देती है दूसरे का कुछ बिगाड़ नहीं पाती है, उसी प्रकार कमठ की जल-वर्षा ने भी भगवान् का कुछ
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