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कल्याण-मन्दिर स्तोत्र
प्रभु स्वरूप अति अगम अथाह । क्यों हम सेती होय निवाह ।।
ज्यों दिन-अन्ध उलको पोत । कहि न सके रवि-किरन-उदोत।।
मोह-हीन जाने मन माँहि । तोहु न तुम गुण वरने जाहिं ॥
प्रलय पयोधि कर जल बोन । प्रगटहिं रतन गिने तिहिं कीन ।
: ५ : तुम असंख्य निर्मल गुणखान । मै मति-हीन कहूँ निज बान ।।
ज्यों बालक निज बाँह पसार । सागर परिमित कहे विचार ।।
जे जोगीन्द्र करहिं तप - खेद । .. तऊ न जानहिं तुम गुन-भेद ॥
भक्ति-भाव मुझ मन अभिलाख । ज्यों पंछी बोले निज-भाख ॥
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