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कल्याण-मन्दिर स्तोत्र
के सरोवर देव ! भयंकर संकटों के सागर में डूबने से मेरी रक्षा कीजिए, मुझे पवित्र बनाइए।
[ ४२ ] यद्यस्ति नाथ ! भवदंघ्रिसरोरुहाणां,
भक्तेः फलं किमपि सन्तत-संचितायाः। तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य ! भूयाः, .. स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ।
हे नाथ ! मै एक अतीव निम्न श्रेणी का भक्त हैं। मेरी भक्ति ही क्या है ? फिर भी आपके चरण-कमलों की चिरकाल से संचित की हुई भक्ति का यदि कुछ भी फल हो, तो हे शरणागत-वत्सल ! जन्म-जन्मान्तर में आप ही मेरे स्वामी बनें। मुझे केवल आपकी शरण ही अपेक्षित है, और कुछ नहीं।
टिप्पणी
स्तोत्र के उपसंहार में आचार्यश्री क्या प्रार्थना करते हैं, कुछ पढ़ा आपने ? न लोक-पूजा की अभिलाषा है, न स्वर्ग आदि की ही। आचार्यश्री भक्ति-रस में सने हुए शब्दों में कहते हैं कि हे भगवन् ! मैंने आपकी कुछ भी भक्ति नहीं की है। फिर भी थोड़ी-बहुत जो कुछ भी कर पाया हूँ, उसका फल मैं यही चाहता हूँ कि --- 'तुम होहु भव-भव स्वामी मेरे, मैं सदा सेवक रहे !' जब तक मोक्ष प्राप्त न हो, तब तक यही परम्परा
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