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कल्याण-मन्दिर स्तोत्र
यही कारण है कि आज मैं अनेकानेक भयंकर दुःखों का पात्र बन रहा हूँ। प्रभु के दशन होने के बाद भी दुःख क्यों ? इसलिए कि भावनारहित क्रियाएँ कभी भी सफल नहीं होती।
टिप्पणी प्रथम के तीन श्लोकों में बताया गया था कि-'प्रभु का नाम सुना, उपासना नहीं की और दर्शन भी नहीं किए, इसी कारण यह दुःख भोगना पड़ रहा है ।' आचार्यश्री का यह कथन व्यवहार की भाषा में था। दर्शन-शास्त्र की भाषा में केवल दर्शन आदि का कोई मूल्य नहीं होता । दर्शन तो क्या, वर्षों तक भी यदि प्रभु-चरणों की उपासना होती रहे, तब भी कुछ परिणाम नहीं निकलता। कभी-कभी विपरीत परिणाम भी निकल पड़ते हैं । अतएव साधना का प्राण भावना है। जिस साधना
और क्रिया के पीछे भावना है, भक्ति है, हृदय है, वही सफल होती है, अन्यथा नहीं । भावनाशून्य क्रिया मिथ्या आडम्बर का रूप पकड़ती है और उत्तरोत्तर दंभ और अहंकार का पोषण करने के कारण विपरीत परिणाम ही उत्पन्न करती है। इसी निश्चय-नय का दृष्टिकोण प्रस्तुत श्लोक में स्पष्ट किया गया है।
[ ३६ ] त्वं नाथ ! दुःखिजन-वत्सल ! हे शरण्य !
कारुण्य-पुण्यवसते ! वशिनां वरेण्य ! भक्त्या नते मयि महेश ! दयां विधाय,
दुःखांकुरोद्दलन-तत्परतां विधेहि ।।
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