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कल्याण- मन्दिर स्तोत्र
पराङ, मुख-प्रति
हे नाथ ! संसार - समुद्र से सर्वथा कूल होते हुए भी आप अपने पृष्ठाश्रित- अनुयायी भक्तों को पार उतार देते हैं, यह युक्त ही है, क्योंकि आप पार्थिवनिप - विश्व के ज्ञानी हैं। अस्तु, पार्थिवनिप (मिट्टी के घड़े) का स्वभाव ही ऐसा है कि वह जल की ओर अधोमुख रहकर भी अपनी पीठ पर रहे हुए व्यक्तियों को पार उतार देता है ।
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परन्तु इसमें एक महान् आश्चर्य है । वह यह कि पार्थिवनिप ( घड़ा) तो विपाक सहित होता है और आप कर्म विपाक से रहित हैं ।
टिप्पणी
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प्रस्तुत श्लोक का भाव अतीव गम्भीर है । पार्थिवनिप और कर्म विपाक का श्लेष जब तक अच्छी तरह समझ में न आए, तब तक किसी भी प्रकार श्लोक का भाव हृदयङ्गम नहीं हो
सकता ।
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'पार्थिवनिप' शब्द के दो अर्थ हैं । पहला अर्थ है - पार्थिव - मिट्टी का और निप— घड़ा । दूसरा अर्थ है - पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी, पार्थिव - पृथ्वी का और निप - ज्ञानी । भगवत्पक्ष में पार्थिव निप का अर्थ विश्व के सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी लिया जाता है, और उधर मिट्टी का घड़ा ।
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'कर्म विपाक' शब्द के
भी दो अर्थ हैं । एक अर्थ है
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