Book Title: Kalyan Mandir
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 50
________________ कल्याण-मन्दिर स्तोत्र टिप्पणी प्रस्तुत श्लोक में विरोधाभास अलंकार है। विरोधाभास वह अलंकार होता है, जहाँ विरोध तो न हो, किन्तु आपाततः विरोध प्रतिभासित होता हो, अर्थात् शब्दों को सुनते समय तो विरोध मालूम होता हो, किन्तु अर्थ का विचार करने पर उसका परिहार हो जाता हो। उपर्युक्त पद्य में तीन स्थान पर विरोधाभास है। प्रथम पंक्ति में कहा गया है कि-'हे प्रभो!आप विश्व के स्वामी हैं, तथापि दुर्गत हैं।' दुर्गत साधारणतः दरिद्र को कहते हैं । भला जो विश्व का स्वामी है, वह दरिद्र कैसे ? और जो दरिद्र है, वह विश्व का स्वामी कैसे ? परस्पर विरोध है । उक्त विरोध का परिहार दुर्गत का दुर्लभ अथवा दुज्ञेय अर्थ करने से हो जाता है। भगवान् का स्वरूप संसार की वासनाओं में फंसे रहनेवाले जीवों को प्राप्त होना दुर्लभ है, अथवा संसारी जीव भगवान् के स्वरूप को कठिनता से जान पाते हैं । अतः भगवान् दुर्गत हैं, दुज्ञेय हैं। __ दूसरी पंक्ति में कहा गया है कि- हे नाथ ! आप अक्षरप्रकृति हैं, तथापि अलिपि हैं।' भला जो अक्षर की प्रकृति, अर्थात् स्वभाव रखता है, वह अलिपि कैसे रह सकता है ? जो क ख आदि अक्षरों जैसा है, वह लिपि में लिखा क्यों न जाएगा? यह विरोध है । उपर्युक्त विरोध का परिहार इस प्रकार है कि- भगवान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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