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कल्याण-मन्दिर स्तोत्र
टिप्पणी भगवान् का ध्यान अतीव चमत्कारमय होता है । इहलोक और परलोक का वैभव तो क्या चीज है, भगवान् का भक्त तो जन्म-मरण के प्रतीक इस क्षण-भंगुर शरीर का सदा के लिए परित्याग कर परमात्मा भी बन जाता है । हमारा शरीर आत्मा से नहीं पैदा हुआ है, कर्म से पैदा हुआ है । अतः ज्योंही भगवान् का ध्यान करते हैं, त्योही आत्मा का कर्म-मल जलकर दूर हो जाता है, शुद्ध आत्म-तत्त्व निखर आता है, आत्मा सदा के लिए अजर-अमर परमात्मा हो जाता है। यह जैन-संस्कृति का ही आदर्श है कि यहाँ भक्त भी भगवान् का ध्यान करते-करते अन्त में भगवान् बन जाता है।
कैसे बन जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य स्वर्ण का उदाहरण उपस्थित करते हैं । खान से स्वर्ण की धातु मिट्टी और पत्थर के रूप में बाहर आती है। फिर धधकती भट्टियों में जब उसे साफ करते हैं, तो मिट्टी पत्थर अलग हो जाता है और स्वर्ण अलग । शुद्ध होने के लिए स्वर्ण को कितनी बार भट्टी में से गुजरना होता है और अन्त में मल साफ होते-होते शुद्ध स्वर्ण हो जाता है। 'टच' अग्नि-परीक्षा को कहते हैं। सौ बार अग्नि में परीक्षित होकर शुद्ध हुआ स्वर्ण 'सौटंची' कहलाता है। हाँ, तो अध्यात्म-पक्ष में भी आत्मा स्वर्ण है. उस पर कर्मरूप मल चढ़ा है । भगवान् का ध्यान प्रचण्ड-अग्नि है। तीव्र ध्यानाग्नि का स्पर्श पाकर कर्म-मल नष्ट हो जाता है और आत्मा पूर्णरूप से शुद्ध होकर सदा के लिए परमात्मा बन जाता है।
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