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कल्याण- मन्दिर स्तोत्र
आचार्यश्री को पहले इहलोक - विरुद्ध बात पर अतीव आश्चर्य होता है । परन्तु जब उनकी दृष्टि 'विग्रह' शब्द पर जाती है, तब सहसा उनका आश्चर्य दूर हो जाता है । श्लोक में आए 'विग्रह' शब्द के दो अर्थ हैं - एक 'शरीर' और दूसरा 'क्लेश' । महापुरुषों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जब वे मध्यविवर्ती होते हैं, तो वे विग्रह का नाश कर देते हैं । जब दो आदमी आपस में झगड़ते हैं, तब समझौता कराने के लिए कोई विशिष्ट पुरुष मध्यविवर्ती - मध्यस्थ होता है और विग्रह कलह को शान्त करा देता है । विशिष्ट पुरुष विग्रह को सहन नहीं कर सकते । न स्वयं विग्रह रखते हैं और न किसी दूसरे को रखने देते हैं। शरीर भी विग्रह है । अतः उसे भी नहीं रहने देते ।
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'मध्यविवर्ती' शब्द के भी दो अर्थ हैं -- मध्यस्थ -- बीच में रहने वाला और मध्यस्थ राग-द्वेष से रहित वीतराग । भगवान मध्यस्थ हैं, भक्तों के हृदय में भी रहते हैं और वीतराग भी हैं ।
आत्मा
[ १७ ] मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्ध्या,
ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभावः ।
पानीयमप्यमृतमित्यनु-चिन्त्यमानं,
कि नाम नो विषविकारमपाकरोति ॥
हे जिनेन्द्र ! जब अध्यात्म चेतनावाले मनीषी पुरुष अपनी आत्मा का आपसे अभेदरूप में, अर्थात् परमात्म
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