________________
कल्याण- मन्दिर स्तोत्र
३१
श्याम मेघ की, दिव्य-ध्वनि को गर्जना की और भव्य प्राणियों को मयूर की उपमा देकर पूर्णोपमा का चित्र खींचा गया है । यह 'सिंहासन' नामक पंचम प्रातिहार्य का वर्णन है । [ २४ ]
उद्गच्छता तव शितिद्य ुति- मण्डलेन, लुप्तच्छदच्छविरशोक-तरुर्
सांनिध्यतोऽपि यदि वा तव वीतारंग !
बभूव । नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि ॥
हे नाथ ! आपके दिव्य शरीर से ऊपर की ओर निकलने वाली किरणों के नील प्रभा - मण्डल से अशोक वृक्ष के लाल पत्ते भी अपने राग-रक्त- छवि से रहित हो जाते हैं ।
हे वीतराग ! आपकी वाणी सुनना और आपका ध्यान करना तो महत्त्व की चीज है ही, परन्तु यहाँ तो आपके पास रहने मात्र से कौन ऐसा सचेतन प्राणी है, जो वीतराग-राग से रहित नहीं हो जाता ? अवश्य ही हो जाता है ।
टिप्पणी
जो जिसके पास रहता है, वह वैसा ही बन जाता है । रागी का सेवक रागी होता है और वीतराग का सेवक वीतराग । भगवान् की उपासना करनेवाला भी वीतराग बन जाता है ।
Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org