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कल्याण-मन्दिर स्तोत्र
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हो जाते हैं, तो फूल भी सुमन है। अतः उनके बन्धन-डंठल भी नीचे हो जाएँ, इसमें क्या आश्चर्य है ? यह 'सुर-पुष्प-वृष्टि' नामक दूसरे प्रातिहार्य का वर्णन है।
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स्थाने गभीर - हृदयोदधि - सम्भवायाः,
पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति । पीत्वा यतः परम-सम्मद-संगभाजो,
__ भव्या व्रजन्ति तरसायजरामरत्वम् ॥ हे जिनेन्द्र ! आपके गम्भीर हृदयरूपी समुद्र से उत्पन्न होनेवाली आपकी मधुर-वाणी को ज्ञानी-पुरुष जो अमृत की उपमा देते हैं, वह उचित ही है। । क्योंकि जिस प्रकार मनुष्य अमृत का पान कर अजर-अमर हो जाते हैं, उसी प्रकार भव्य - प्राणी भी आपके वचनामत का पान कर शीघ्र ही परमानन्द से युक्त होकर अजर-अमर हो जाते हैं। जन्म-जरा-मरण के दुःखों से छूट कर सदा के लिए सच्चिदानन्द सिद्ध हो जाते हैं।
टिप्पणी
भगवान् की वाणी को भक्त-जनता सदा से अमृत की उपमा देती आई है। आचार्यश्री ने वही उपमा प्रस्तुत श्लोक में बहुत सुन्दर ढंग से घटाई है।
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