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कल्याण मन्दिर स्तोत्र
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त्वं तारको जिन ! कथं भविनां त एव त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा दृतिस्तरति यज्जलमेष नून ---- मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ।।
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हे जिनेश्वरदेव ! आप भव्य जीवों को संसारसागर से पार उतारने वाले तारक कैसे बन सकते हैं ? क्योंकि भव्य जीव जब संसार सागर से पार उतरते हैं, तब वे ही आपको अपने हृदय में धारण करते हैं, आप उनको कहाँ धारण करते हैं ?
हाँ, ठीक है - समझ में आ गया । अन्दर पवन से भरी हुई मशक जब जल में तैरती है, तब वह अन्दर में स्थित पवन के प्रभाव से ही तो तैरती है, स्वयं कहाँ तैरती है ?
टिप्पणी
प्रायः देखा जाता है कि अपने अन्दर में स्थित यात्री को धारण करके नौका ही उसे पार उतारती है, न कि अन्दर बैठा हुआ यात्री नौका को पार उतारता है । अस्तु. आचार्य इसी धारणा के आधार पर भगवान् से भक्ति पूर्ण ठिठोली करते हैं कि आप हम भगों को कहाँ पार उतारते हैं, प्रत्युत हम ही आपको हृदय में धारण करते हैं, अतः पार उतारते हैं। जब हम आपका ध्यान करते हैं, तब आप तो हमारे मन में रहते हैं,
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