Book Title: Kalyan Mandir
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 14
________________ कल्याण-मन्दिर स्तोत्र ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश ! वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः ? जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं, जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥ हे जगत् के स्वामी ! जबकि आपके गुणों का यथार्थ रूप से वर्णन करने में बड़े-बड़े प्रसिद्ध योगी भी समर्थ नहीं हो सकते हैं, तब भला मेरी तो शक्ति ही क्या है ? यह स्तुति का कार्य, मैंने विना बिचारे ही शुरू कर दिया है। वस्तुतः यह कार्य मेरी पहुँच के बाहर है। __ अरे. मैं हताश क्यों होता हूँ ? शक्ति नहीं तो क्या है, यथाशक्य प्रयत्न तो करूंगा। पक्षियों को मनुष्य की भाषा में बोलना नहीं आता है, तो क्या हुआ? वे अपनी अस्पष्टभाषा में ही बोलकर काम चला लेते हैं। टिप्पणी आचार्य ने अपने का पक्षी की उपमा देकर लघुता-प्रदर्शन में कमाल कर दिया है । कितना गम्भीर दार्शनिक आचार्य और कितना अधिक विनम्र ? इस विनम्रता पर हर कोई भक्त बलीहार हो जायगा ? जिस प्रकार पक्षी अपनी अव्यक्त भाषा में ही चू-चां करके अपने मनोगत भावों को व्यक्त करता है, उसी प्रकार मैं भी, जैसा मुझे आता है, बोल कर अपने भक्तिमय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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