Book Title: Janmasamudra Jataka
Author(s): Bhagwandas Jain
Publisher: Vishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch

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Page 32
________________ २० जन्मसमुद्रः चरराशौ कुजाकिदृष्टे दशमरहिते परदेशस्थस्य मृत्युः। शेषं पूर्ववद् राशिवशादुह्यम् । स च बुधः सूर्यात् पञ्चमनवमगो न स्यात् तदा युग्मम् ॥२।। - दशम स्थान को छोड़कर अन्य स्थानों में रहा हुप्रा सूर्य चर राशि का हो तो बालक का जन्म समय पिता का परदेश होना, स्थिर राशि का हो तो स्वदेश में होना और द्विस्वभाव राशि का हो तो पिता का रास्ते में होना कहना चाहिये । सूर्य से नववें पांचवें और सातवें स्थान में शनि और मंगल पाप राशि के होकर रहे हो तो जन्म समय पिता का बंधन कहना। मेष, वृश्चिक, मकर, कुम्भ, क्षीणचन्द्रमा की कर्क, पापी बुध की मिथुन और कन्या ये राशि हैं। अन्य ग्रंथों में कहा है कि-दशम स्थान रहित अन्य स्थानों में रहा हया सूर्य चर राशि का हो, उसको मंगल और शनि देखते हों तो परदेश में पिता की मृत्यु कहना ॥२॥ अथ नालवेष्टितज्ञानमाह गोऽजसिंहाङ्गगे मन्दे कुजे वा नालवेष्टितः। कालपुस्थोदयांशः-समगात्रेऽजनिष्ट सः ॥३॥ मन्दे शनौ कुजे वा गोऽजसिंहाङ्गगे वृषमेषसिंहानामेकतमलग्नस्थे सोऽपि बालो नालवेष्टितोऽजनिष्ट जातः । क्वगात्रे शरीरावयवे? किविशिष्टे कालपुस्थोदयांशङ्क्षसमे? । तद्यथा-यः पुमान् कालनरस्तत्र स्थितो य उदयो लग्नं तस्य योंऽशो नवमांशस्तत्कालं वर्तमानस्तस्य यदृक्षं राशिस्तस्य समे सदृशे गात्रे नालवेष्टितो जातः । एवं ततोऽङ्ग घातप्रश्नेन घातो, व्रणप्रश्ने व्रणो, रोगिप्रश्ने रोगो वाच्यः । “शोर्षास्यदोरुरःक्रोड-कटयोर्बस्तिगुह्यके । ऊरू जानू च जङ्घऽघ्री अजाद्याःकालमानवे ॥” इतिकालनरराशयो निरुक्ताः ।।३।। ___ जन्म के समय मेष, वृष और सिंह इनमें से कोई लग्न हो, उसमें मंगल या शनि रहे हों तो बालक का जन्म नाल से लपटा हुअा कहना। बालक का किस अवयव में नाल लपटा हया था उसको जानने के लिये काल नरचक्र लिखते हैं-मस्तक, मुख, भुजा, छाती, पीठ, कमर, बस्ति, गुह्यभाग, दोनों ऊरू, दोनों जानु, दोनों जंघा और दोनों पैर, ये अनुक्रम से मेषादि राशियों के अंग हैं। लग्नोदय में जिसका नवमांश हो उसके अनुसार अंग में नाल लपटा हुअा था। जैसे-लग्नोदय में नवमांश मेष का है तो मस्तक, वृष का है तो मुख इत्यादि क्रम से समझना चाहिये ॥३॥ अर्थकजरायुवेष्टितनिजाङ्गयोर्जन्माह तिर्यग्भेऽर्के परैर्यङ्ग यमलौ कोशवेष्टितौ। चन्द्र सेज्येऽन्यराशिस्थे वेज्यवर्गे न जारजः॥४॥ अर्के तिर्यग्भे मेषवृषसिंहधनुरुत्तरार्द्ध मकराद्यार्धानामेकतमस्थे परैश्चन्द्रादिभिर्बलिभियङ्ग द्विस्वभावराशिगतैः कोशवेष्टितावेकजरायुवेष्टितौ यमलौ "Aho Shrutgyanam"

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