Book Title: Janmasamudra Jataka
Author(s): Bhagwandas Jain
Publisher: Vishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch

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Page 104
________________ ६२ जन्मसमुद्रः सितेन्द्वोः शुक्रचन्द्रयोरङ्ग लग्नस्थयोः स्त्री नारी सेा सुखा ईर्षया कोपेन सुखेन च सह वर्तते सा समात्सर्या सुखिनी चेत्यर्थः । अथ लग्ने ज्ञेन्द्वोर्बुधचन्द्रयोः कलागुणा कलाभिः सह गुणा यस्याः सा दक्षा गुणवती चेत्यर्थः । एवं लग्ने शुक्रज्ञयोः प्रियाभीष्टा भर्तु वल्लभा । एवं लग्नस्थेषु शुभेषु त्रिषु चतुर्दा वा सार्थसौख्या अर्थेन धनेन सह सुखं यस्याः सा बहुधनिनी सुखिनी गुणवती सुशीला विनीतेत्यर्थः । अर्थादेवाशुभेषु लग्नस्थेषु त्रिषु पूर्वोक्त गुणहीना ।।१३।। ___ जन्म लग्न में चन्द्रमा और शुक्र हो तो वह स्त्री ईर्ष्या करने वाली और सुखी होती है। लग्न में चन्द्रमा और बुध हों तो अनेक कलानों को जानने वाली सदगुणी होती है। लग्न में शुक्र और बुध हों तो वह पति को वल्लभ होवे । लग्न में तीन या चारों शुभ ग्रह हों तो वह बहुत धन वाली सुखी सद्गुणी और सुशीलवती होवे । तथा अशुभ ग्रह लग्न में हों तो पूर्वोक्त गुणों से रहित होवे ॥१३॥ अथ वैधव्यकालापत्यमाह रेऽष्टगे तदा रण्डा यथाष्टेशो यदंशगः। तद्वयस्यथ गोऽलिस्त्रीसिंहभेऽब्जे सुतेऽल्पसः ॥१४॥ क्रूरे पापग्रहेऽष्टमगे रण्डा वाच्या। तत्र कालो यथा-यस्या जन्मन्यष्टमेशोऽष्टमाधिपो यदंशगः यस्य ग्रहस्य नवांशगो भवेत् तद्वयसि तस्य दशायां विवाहात्परतो वैधव्यं तस्याः सम्भाव्यम् । अथवाब्जे चन्द्र गोऽलिस्त्रीसिंहभे वृषवश्चिककन्यासिंहराशीनामेकतमस्थे सति या जाता साल्पसूः अल्पा स प्रसूतिर्यस्याः सा। अथवामीषां राशीनां मध्याद् यो राशि: सृते पञ्चमस्थाने स्याद् अत्रस्थे चन्द्र सति अल्पसूः, परं पञ्चमं यदि शुभदृष्टं युतं वा तदा बहु प्रसूतिः ।।१४।। जिस स्त्री की जन्म कुण्डली में पाठवें भवन में पाप ग्रह हो तो वह स्त्री विधवा होवे । पाठवें भवन का स्वामी जिस ग्रह के नवांश में हो, उस नवांश के स्वामी तुल्य वर्ष में अथवा उसकी दशा में विवाह होने के बाद विधवा होवे । यदि वृष, वृश्चिक, कन्या या सिंह राशि का चन्द्रमा किसी भी स्थान में रहा हो तो वह स्त्री कम सन्तान वाली होवे। अथवा इन चार राशियों में से कोई राशि पांचवें भवन में हो और चन्द्रमा भी साथ हो तो कम सन्तान वाली है। परन्तु शुभ ग्रह से युक्त हो या दृष्ट हो तो बहुत सन्त होवे ॥१४॥ अथ रण्डत्ववर्षज्ञानमाह तद्दशायां विवाहोर्व वर्षे रण्डार्यमादिक । विशेकद्विनवद्विघ्न-विशपञ्चाशतिक्रमम् ॥१५॥ "Aho Shrutgyanam"

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