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अष्टम कल्लोलः
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करने वाला, ऐसा यति धर्म प्रचारक होवे । शुक्र बलवान हो तो चरक मत की, वैष्णव मत की या शिव मत की दीक्षा लेवे । शनि बलवान हो तो निग्रन्थ, स्त्री का संग रहित, श्वेताम्बर या दिगम्बर मुनि या अच्छा तापस होवे । यदि दीक्षा कारक ग्रह ग्रहयुद्ध में परास्त हुआ हो तो दीक्षा से भ्रष्ट होवे | यदि दीक्षा कारक ग्रह किसी ग्रह के साथ न हो तो दीक्षित का मरण होवे । एवं दीक्षा कारक ग्रह अस्त हो तो दीक्षा लेवे नहीं, परन्तु कुछ बलवान हो तो दीक्षितों की भक्ति करने वाला होवे' ॥ १२ ॥
अथ योगान्तर चतुष्टयमाह
धर्मेशे सबलेऽर्कस्थे वान्येक्ष्येऽस्तमितेऽत्र सः ।
नीचे वोग्र क्षिते नश्येद् वात्रापुष्टे व्रतापहः ॥१३॥
धर्मेशे नवमपतौ सबलिष्ठोऽर्कस्थेऽर्कयुक्ते व्रती स्यात् । वाथवात्र नवमेशेऽ न्येक्ष्येऽपरग्रहैरीक्षिते दृष्टेऽस्तमिते सति स याचितः सन् व्रती स्यात् । वाथवात्र नवमेशे नीचराशिस्थे परमनीचस्थे वा उग्रेक्षिते पापदृष्टे व्रती नश्येद् नश्यति । वाथवात्र नवमेशेऽपुष्टेऽबले पापदृष्टे व्रतापहो व्रतभ्रष्ट इत्यर्थः ।। १३ ।।
बलवान नवम स्थान का स्वामी सूर्य के साथ हो तो दीक्षित होवे अथवा नवम स्थान का स्वामी अस्त हो, उसको दूसरे ग्रह देखते हों तो भिक्षुक होवे । श्रथवा नवम स्थान का पति नीच राशि का या परम नीच राशि का हो, उसको पाप ग्रह देखते हों तो दीक्षा लेकर छोड़ दे । प्रथवा नवमेश निर्बल हो उसको पाप ग्रह देखते हों तो दीक्षा लेकर छोड़ देवे ॥१३॥
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बृहज्जातक की टीका में कालकाचार्य कृत कालकासंहिता का प्रमाण देते हैं कि
"तावसिनो दिरणरणाहे चंदे कावालियो तहा भरियो ।
रतवडो भुमिसुए सोमसुवे एग्रदंडी श्रा ॥
देवगुरुसुक्ककोणक्कमेण जई चरखवणाई ॥"
दीक्षा कारक सूर्य हो तो तापसी, चन्द्रमा हो तो कपाली, मंगल हो तो लाल वस्त्र वाली, बुध हो तो एक दंडी, गुरु हो तो यति, शुक्र हो तो चरक और शनि हो तो क्षपणक दीक्षा होवे ।
फिर भी उपरोक्त ग्रन्थ में कहा है कि
“जलरण-हर-सुगग्र-केसव - सूई बम्हण्ण- नग्ग मग्गेसु ।
दिक्खाणं गायव्वा सूराइग्गहक्क्रमेण गाहगश्रा ॥"
धूनीवाला, माहेश्वरी, बौद्ध, विष्णु, श्रुतिमार्गोपासक, ब्रह्म भक्त और दिगम्बर ये सूर्यादि ग्रहों के योग से क्रम से दीक्षा समझना ।
"Aho Shrutgyanam"