Book Title: Janmasamudra Jataka
Author(s): Bhagwandas Jain
Publisher: Vishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦). શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર - સંયોજક- બાબુલાલ સરેમલ શાહ હીરાજૈન સોસાયટી, રામનગર, સાબરમતી, અમદાવાદ-૦૫. (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ પૃષ્ઠ 296 160 164 202 48 306 322 668 516 268 456 420 १४. 638 192 428 070 406 પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને સેટ નં.-૨ ની ડી.વી.ડી.(DVD) બનાવી તેની યાદી या पुस्तat परथी upl stGnels sरी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ ભાષા કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्दति बृदन्यास अध्याय-६ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 056 | विविध तीर्थ कल्प पू. जिनविजयजी म.सा. 057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા | पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्वलोकः श्री धर्मदत्तसूरि 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृति टीका श्री धर्मदतसूरि 06080 संजीत राममा श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) सं श्री रसिकलाल हीरालाल कापडीआ 062 | व्युत्पतिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय | श्री सुदर्शनाचार्य 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी पू. मेघविजयजी गणि 064 | विवेक विलास सं/४. श्री दामोदर गोविंदाचार्य 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध सं | पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 066 | सन्मतितत्वसोपानम् पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 067 | 6:शभादीशुशनुवाई पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 068 | मोहराजापराजयम् सं पू . चतुरविजयजी म.सा. 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया | कालिकाचार्यकथासंग्रह | सं/Y४. | श्री अंबालाल प्रेमचंद 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका श्री वामाचरण भट्टाचार्य 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन | 073 | मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं | श्री भगवानदास जैन 074 | सामुदिइनi uiय थी ४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न यित्र supम ला1-1 ४. श्री साराभाई नवाब 0768नयित्र पद्मसाग-२ ४. श्री साराभाई नवाब 077 | संगीत नाटय ३पावली ४. श्री विद्या साराभाई नवाब 078 मारतनां न तीर्थो सनतनुशिल्पस्थापत्य १४. श्री साराभाई नवाब 079 | शिल्पयिन्तामलिला-१ १४. श्री मनसुखलाल भुदरमल 080 दशल्य शाखा -१ १४. श्री जगन्नाथ अंबाराम 081 | शिल्पशाखलास-२ १४. श्री जगन्नाथ अंबाराम 082 | शल्य शास्त्रला1-3 | श्री जगन्नाथ अंबाराम 083 | यायुर्वहनासानुसूत प्रयोगीला-१ १४. पू. कान्तिसागरजी 084 ल्याएR8 १४. श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री 085 | विश्वलोचन कोश सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा 086 | Bथा रत्न शास-1 श्री बेचरदास जीवराज दोशी 087 | Bथा रत्न शा1-2 श्री बेचरदास जीवराज दोशी 088 |इस्तसजीवन | सं. पू. मेघविजयजीगणि એ%ચતુર્વિશતિકા पूज. यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા | सं. आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 308 128 532 376 374 538 194 192 254 260 238 260 114 910 436 336 ४. 230 322 089 114 560 Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૭૨ જન્મ સમુદ્ર જાતક : દ્રવ્યસહાયક : કચ્છવાગડ દેશોદ્ધારક અધ્યાત્મયોગી પૂ. આ. શ્રી કલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મ.સા. ના શિષ્યરત્ન ગચ્છનાયક મધુરભાષી ૫.પૂ. આચાર્ય શ્રીમદ્વિજય કલાપ્રભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાવર્તિની પૂજ્ય સા. અતિમુક્તાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી આમ્રકુંજ સોસાયટી, સાબરમતી ઉપાશ્રયના આરાધક શ્રાવિકાઓના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણપાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫ (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ સંવત ૨૦૬૬ ઈ.સ. ૨૦૧૦ Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कासहृदगच्छोय श्रीनरचंद्रोपाध्याय विरचित जन्मसमुद्र-जातक जन्मसमुद्र-जातक (बेडाजातक नाम की स्वोपज्ञवृत्ति सहित) अनुवादकपं० भगवानदास जैन प्रकाशकआगमरहस्यवेदी प्राचीनतीर्थोद्धारक श्रीमत्तपागच्छेश परमपूज्य सुविहित जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्रीमद्विजय हर्षसूरीश्वरजी महाराज सा० के पट्टप्रभावक विद्यानुरागी सौजन्यमूत्ति प० पू० जैनाचार्य श्रीमद्विजय जिनेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज सा० आदिठारणा के सदुपदेशसे भरूच (भृगुकच्छ) वेजलपुर जैन अाराधना भुवन में वि० सं० २०२८ के मंगल चातुर्मासकी पावन स्मृति के लिये श्री विशापोरवाल अाराधना भवन जैनसंघ, भरूच-वेजलपुर (गुजरात) "Aho Shrutgyanam" Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक प्राप्ति स्थान : श्री वीशापोरवाल पाराधना भवन, जैनसंघ वेजलपुर-भरूच (गुजरात) प्रथमावृत्ति : १००० मूल्य: चार रुपये वीरसंवत् २४९६ विक्रम संवत् २०३० इस्वी सन् १९७३ फ्रेण्ड्स प्रिन्टर्स एण्ड स्टेशनर्स जौहरी बाजार, जयपुर सिटी-३ (राज.) "Aho Shrutgyanam" Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण श्रीमान् परमपूज्य विद्यानुरागी सौजन्यमूर्ति सुविहित जैनाचार्य श्री विजय जिनेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब के पवित्र कर कमलों में सादर समर्पित अनुवादक "Aho Shrutgyanam" Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन प्राचीन जैनाचार्यों ने प्रागम सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण काव्य, नाटक, विज्ञान ज्योतिष और वैद्यक आदि सब विषय के साहित्य के अनेक ग्रन्थों की रचना मनुष्य के कल्याण के लिए की है। इनमें से अभी तक कुछ प्रकाशित हो चुके हैं, बाकी भण्डारों में प्राचीन लिपि में लिखे हए मौजूद हैं, ये प्रकाश में लाने की आवश्यकता है, जिसे जनता को विशेष लाभदायक होवे । आजकल आधुनिक वैज्ञानिक विद्वानों ने अनेक प्रकार के यन्त्रों की रचना करके अधिक उन्नति की है, उनमें प्रायः जैन साहित्य से शोधखोज का प्रभाव है। फकत जैन साहित्य में ही भाषा वर्गरणा को पुद्गल माना है, जिससे यह इकट्ठा हो सकता है, इसका अच्छी तरह अध्ययन करके रेडियो प्रादि यन्त्रों की रचना हुई है इत्यादि। वैज्ञानिक लोग चन्द्रमा तक पहुँच गए हैं ऐसा जो प्रचार हुआ है यह कपोल कल्पित है । ये चन्द्रमा तक नहीं पहुँच पाए हैं। पृथ्वी नारंगी के जैसी गोल आकार वाली है, वह अपनी धुरी पर प्रबल बेग से घूम रही है, इत्यादि जो वैज्ञानिक मान्यतायें हैं ये शास्त्र सम्मत नहीं है, विज्ञान स्वयं में अधूरा है, नयी नयी खोजें प्रतिदिन हो रही हैं, उसमें पूराणी वैज्ञानिक मान्यताओं में नवीनता आ रही है, पूर्ण निष्कर्ष किसी भी बात का नहीं हो पाया है। यही बात चन्द्रलोक तक पहुँचने के विषय में है। यदि पृथ्वी घूमती होवे तो पक्षिगण एवं हवाई जहाज अाकाश में उड़ते हैं, वे अपने नियत स्थान पर नहीं सकते हैं। एवं उत्तर में ध्रव तारा शाम के समय जिस स्थान पर दीखता है उसी स्थान पर ही सुबह के समय भी दीखता है, पृथ्वी धूमती होवे तो ध्रुव तारा एक स्थान पर ही कसे दीखे ? इस विषय में श्रीमान् गणिवर श्री अभयसागरजी महाराज विशेष रूप से शोधकार्य करने में संलग्न है, उन्होंने इस विषय का कुछ साहित्य भी प्रकाशित कराया है, अतः इच्छुक महानुभाव को उनसे सम्पर्क स्थापित करके जानकारी करनी चाहिए। सबसे प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थ सर्यप्रज्ञप्ति. चन्द्रप्रज्ञप्ति और ज्योतिष करंडकवयन्ता आदि सैद्धान्तिक ग्रन्थों में ग्रह गणित के विषय पर विशद प्रकाश डाला गया है, इसका अच्छी तरह अध्ययन करके जैन पंचांग निर्माण का कार्य करना चाहिए। प्रस्तुत ग्रन्थ प्राचीन कासहृदगच्छीय श्री नरचन्द्रोपाध्याय ने विक्रम सम्बत् १३२३ की साल में स्वोपज्ञवृत्ति सहित जन्मसमुद्र नाम के ग्रन्थ की रचना की है। इसका अध्ययन करने से जन्म कुण्डली देखने का अच्छा अनुभव प्राप्त कर सकता है । इसका हिन्दी अनुवाद पं० भगवादास जैन ने बड़े परिश्रम से किया है, जिसे जन साधारण के लिए सरल एवं सुबोध बन गया है। इनका यह प्रयास अत्यन्त स्तुत्य एवं प्रशंसनीय है । सुज्ञ पाठकगण समुचित लाभ उठावेंगे। बामणवाड़तीर्थ रामनवमी सं० २०३० विजयजिनेन्द्रसुरि "Aho Shrutgyanam" Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ज्योतिष शास्त्र प्रत्यक्ष शास्त्र है, उसको जानने वाले पंडित को ज्योतिषी अथवा दैवज्ञ कहते हैं । यह सिद्धान्त, संहिता और होरा, इस प्रकार तीन विभाग में बटा है । सिद्धान्त ग्रन्थों से ग्रहों का उदय, अस्त और गति आदि का ज्ञान होता है, जिससे पंचांग बनता है । संहिता ग्रन्थ अनेक विषयों का संग्रह है और होरा ग्रन्थ से सब विषय के मुहूर्त देखे जाते हैं और जन्म लग्न कुण्डली पर से शुभाशुभ फलादेश किया जाता है । यह जन्मसमुद्र ग्रंथ होरा शास्त्र है । इसमें गर्भोत्पत्ति से लेकर आयुष्य तक का शुभाशुभ फलादेश किया गया है । यह ग्रन्थ विक्रम सम्वत् १३२३ के वर्ष में जैनाचार्य श्री नरचंद्रोपाध्याय ने रचा है । ग्रंथकार ने शास्त्र के अन्त में शास्त्रस्तुति करते हुए लिखा है कि : “ दैवज्ञानां चलद्दीपो द्रष्टुं कर्म शुभाशुभम् । जन्माब्धिं तरितु पोतो वेदर्षीन्दुमिति प्रियः ॥ " जैसे हाथ में रहा हुआ दीपक से घटपटादि वस्तुओं को अच्छी तरह देख सकते हैं और प्रथाह समुद्र को जहाज द्वारा पार हो सकते हैं, वैसे जन्म के फलादेश रूपी समुद्र को १७४ श्लोक के प्रमाणवाला यह जन्मसमुद्र ग्रंथ को कंठस्थ करने से जातक क शुभाशुभ फलादेश अच्छी तरह कर सकते हैं । ग्रंथकार ने अपना परिचय ग्रन्थ के अन्त में लिखा है कि –प्रबुर्द पुराण में लिखा है कि- प्राचीन समय में सृष्टि की आदि में महा तपस्वी काश्यप नाम के ऋषि थे, उन्होंने अपने नाम से काश्यप नाम का नगर अनेक धर्मावलंबियों के तीर्थ स्थान और अनेक प्रकार के फल फूल वाले वृक्षों से सुशोभित श्राबू नाम के पर्वत की तलहटी में स्थापित किया । बाद में परमार वंशीय राजपूतों की राजधानी रहा। उस नगर में काशलद नाम का गच्छ निकला उस गच्छ में अनेक सुगुरगुरण विभूषित जैनाचार्य श्री देवचन्द्रसूरि हुए । उनके चरण कमल सेवित शिष्यरत्न जैनाचार्य श्री उद्योतनसूरि हुए । उनके पट्टप्रभावक छत्तीसगुरुगुणधारक जैनाचार्य श्री सिंहसूरि हुए । उनके विनयादि गुण युक्त अनेकविध शास्त्रों के अध्यापक श्री नरचन्द्र नाम के उपाध्याय हुए । यह ज्योतिशास्त्र के प्रकाण्ड पंडित थे। इनके रचे हुए ज्योतिष के ग्रन्थ नीचे लिखे अनुसार प्राप्त होते :1 १. जन्मसमुद्र : बेड़ा (जहाज) नाम की स्वोपज्ञ वृत्ति सहित, इससे जातक की जन्मकुण्डली का शुभाशुभ फलादेश कर सकते हैं । "Aho Shrutgyanam" Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रश्नशतक:-जन्मसमुद्र की बेड़ा नाम की लघुभगिनी नाम की स्वोपज्ञ वृत्ति समेत विक्रम सम्वत् १३२४ की साल में रचा है। इसका दूसरा नाम 'ज्ञानदीपिका' है। इसमें सात प्रकाश हैं । प्रथम प्रकाश में लग्न और ग्रहों का स्पष्टीकरण तथा इनके षड्वर्ग से प्रश्न का निर्णय किया है। दूसरे प्रकाश में-पृच्छक के सुख दुःखादि प्रश्नों का निरूपण है। तीसरे प्रकाश में नष्ट अथवा विस्मृत वस्तु का लाभालाभ, क्रयारणकादि से अर्थ लाभ, स्वपदादि प्राप्ति, संतान प्राप्ति इत्यादि लाभालाभ के प्रश्न प्रकाश में-गमनागमन के प्रश्नोत्तर हैं। पांचवें प्रकाश में-वाद विवाद युद्धादि के प्रश्न हैं। छठे प्रकाश में-रोग सम्बन्धी और बंदी मोक्ष आदि के प्रश्नोत्तर हैं। सातवें प्रकाश में-वृष्ट्यादि और वर्तमान दिवस सम्बन्धी प्रश्न हैं। इसके अंतिम श्लोक में स्वरचित ग्रन्थों के नाम अकित किए हैं : "जन्प्रकाशं कवित्वलेशं, प्रश्नप्रकाशं नरचंद्रनामा। योऽध्यापकः प्रश्नशतं स चक्रे, काश हृदो जन्मसमुद्रवृत्तिः॥" ३. जन्मप्रकाश :-यह जन्मकुण्डली के शुभाशुभ फलादेश का ग्रन्थ है, ऐसा जन्मसमुद्र में पाये हुये प्रमारणों से मालुम होता है। ४. प्रश्नप्रकाश :-यह जन्मलग्न अथवा तात्कालिक लग्न से प्रश्नों के फलादेश का करने का ग्रन्थ है, ऐसा प्रश्नशतक ग्रन्थ में आये हुये प्रमाणों से मालूम होता है। ५. प्रश्नचतुविशतिका :-यह फकत २४ श्लोक प्रमाण ग्रंथ है । इसके ऊपर साधुराज महोपाध्यायाधिराज कृत अवचूरी वाली प्राचीन प्रति बीकानेर से साक्षररत्न सेठ अगरचंदजी नाहटा ने स्वसंग्रहित श्री अभय जैन ग्रंथालय से जन्मसमुद्र ग्रंथ के परिशिष्ट में छपवाने के लिये भेजी थी। इस ग्रंथ की प्राचीन एक प्रति बीकानेर राज्य की अनूपकूमारी लायब्ररी से मिली थी, उसकी नकल करके और हिन्दी अनुवाद करके आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस किया है। इसमें कोई जगह त्रुटी (भूल) रह जाने की सम्भावना है। यह देखने में आवे तो सुधार करके पढ़ने की कृपा करेंगे, ऐसी अाशा रखता हूँ। इस ग्रंथ को प्रकाशित करने का श्रेय श्रीमान् पूज्यपाद सुविहित जैनाचार्य श्री विजयजिनेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब ने विक्रम सम्वत् २०२८ में भरूच (भृ नगर (गुजरात) में चातुर्मास किया था, उस समय उनके सदुपदेश से भरूच (गुजरात) बेजलपर वीशापोरवाल अाराधना भवन (जैन संघ) को है, धन्यवाद के पात्र हैं। ] सम्वत् २०३० अक्षय तृतीया शनिवार जयपुर सिटी-३ भगवानदास जैन "Aho Shrutgyanam" Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in ni ninir orrrrrxxxur, GXXM०० विषयानुक्रमणिका विषय पृष्ठ विषय पृष्ठ प्रथम कल्लोल पति अथवा जार जन्म योग मंगलाचरण नौका में अथवा जल समीप योग शास्त्र का नाम जन्म का स्थान लग्न आदि बारह भावों का ज्ञान मस्तक अथवा पैर से जन्म ज्ञान गर्भ का होने न होने का योग सुतिका का गृह ज्ञान गर्भ की पुष्टी योग | सुतिका गृह का द्वार और दीपक का ज्ञान २७ गर्भ के महीने सुतिका संख्या २६ गर्भिणी और गर्भ का अरिष्ट योग सुतिका के खाट का स्वरूप और जातक पुरुष और स्त्री के शुभाशुभ की प्राकृत्ति पिता और चाचा का शुभाशुभ माता से त्याग किया हुआ पुत्र का स्वरूप ३० माता और मौसी का शुभाशुभ जन्म समय माता के सुख-दुःख का ज्ञान ३२ पुत्र और पुत्री का ज्ञान जातक के अंग विभाग में रहा हुग्रा छह प्रकार के नपुसक योग तिल, मसा आदि का ज्ञान दो संतान योग तीसरा कल्लोल तीन संतान योग जातक का अरिष्ट मृत्यु योग अधिक संतान योग १२ जातक के अरिष्ट का भंग योग अधिक अंग वाला और गूगा योग १३ चौथा कल्लोल दाँत वाले जन्म के छः योग और कूबड़ा योग लग्न कुण्डली के अष्टम स्थान से पांगला और बहरा योग मृत्यु ज्ञान जलोदर और बंधन से मृत्यु ४४ आंख के विकार वाले जन्म योग जातक के अंग हीन योग शस्त्र, अग्नि, रस्सी और गिरने से मृत्यु ४४ वामन योग स्त्री के कारण और शूली से मृत्यु गर्भ के गत मास का ज्ञान लकड़ी और घाव के कीड़े से मृत्यु ४६ प्रसव काल योग सवारी से अथवा कुत्रा में गिरने से मृत्यु ४६ जातक किस लोक से पाया विष्टा में गिर कर मृत्यु यंत्र और पक्षियों से मृत्यु दूसरा कल्लोल गुह्य पीड़ा, बिजली, पर्वत अथवा जन्म समय पिता का होना न होना दीवार से मृत्यु नाल वेष्टित जन्म का ज्ञान २० | पाषाण, पाणी और स्वजन से मृत्यु MMMMMMM MKK "Aho Shrutgyanam" Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय शस्त्र, अग्नि, राजकोप औौर जेलखाना से मृत्यु किस स्थान में मृत्यु मृत्यु का काल ज्ञान मृतक के गति का ज्ञान पांचवा कल्लोल धनोपार्जन कहां से करें किस वस्तु से धन प्राप्त होवे धन दायक ग्रह बत्तीस राजयोग चवालीस राजयोग अनेक प्रकार के राजयोग छटा कल्लोल स्त्री और पुत्र का मृत्यु योग स्त्री मृत्यु योग दंपत्ती कारण योग स्त्री शुभाशुभ योग चित्रकलादि योग दासी जात योग वाधि और गुह्य रोग का योग श्वास, प्लीहा, गुल्म और कोढ रोग का योग पृष्ठ कान और दांत का रोग अंधा, पिशाच और दांत रोग दास योग खल्वाट और बंधन योग कुवचन, कुदृष्टि, रोगी और अंग हीन योग ४८ ५० ५.३ ५.३ ५८ ६१ ६४ ६५ से ७४ ५५ ५६ ७५ ७५ ७६ ७६ ७७ ७८ ७६ ७६ ८० ८० ८१ ८१ ८२ विषय नौकरी योग व्यभिचारी योग बंध्या और वृद्ध स्त्री योग सातवां स्त्री जातक कल्लोल स्त्री का शुभाशुभ लक्षण योग आठवां कल्लोल रज्जुमुसल और नल योग गदा माला और सर्प योग शकट विहग और हल योग बज़ यव और श्रृंगाटक योग कमल वापी और आठ प्रकार के अद्ध चन्द्र योग यूप इषु शक्ति दंड नौका कूठ छत्र और धनुष योग समुद्र चक्र मृग और सरभ योग गर्त्ता पिलीलिका नदी और नद योग गोल युग शूल क्षेत्र पाश दाम और वीरिणका योग सुनका अनफादि योग केमद्रम योग रज्वादि सब योगों का फल दीक्षा योग किस वर्ष में धन प्राप्त होवे बाल्यादि तोन अवस्था वर्ष मासादि दिनादि ज्ञान श्रायुष्य का ज्ञान शास्त्र स्तुति शास्त्र कर्ता की प्रशस्ति (i) ८५ से ६४ "Aho Shrutgyanam" पृष्ठ ८३ ८३ ८४ ६५ ६५ १६ ६६ ६७ ६८ ६८ 22 22 १०० १०१ १०२ से १०५ १०६ से १०९ ११० १११ ११२ ११३ ११४ ११५ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं नमः। काशहदगच्छीय श्री नरचन्द्रोपाध्याय विरचितः स्वोपज्ञ बेडावृत्तियुतः जन्मसमुद्रः ( बेडाजातकम् ) प्रणम्य स्वगुरु भक्त्या चतुर्वर्गफलप्रदम् । तत्तुं जन्मसमुद्रार्थ वृत्तिबेडां करोम्यहम् ।। सतामयमाचारः सर्वत्र यदमी शास्त्रारम्भे स्वेष्टदेवतानमस्कारेण सर्वार्थसिद्धिं वाञ्छन्ति, तदयमपि नरचन्द्रोपाध्यायः स्वकृतजन्मसमुद्रस्य टीकां चिकिषु - रशेषविघ्नोपशान्तये श्रीमहावीरं स्तौति । चार वर्ग (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) के फल को देने वाले अपने गुरुदेव ( श्री सिंह सूरि ) को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके जन्म रूपी समुद्र को पार होने के लिए अर्थात् जन्म-समुद्र नामक ग्रन्थ के अर्थ को अच्छी तरह समझने के लिए बेड़ा (जहाज ) रूप वृत्ति को अथात् बेड़ा नाम की टीका को मैं (नरचन्द्रोपाध्याय ) करता हूं। सज्जनों का सदा यही शिष्टाचार है कि शास्त्र के प्रारम्भ में अपने इष्ट देवता को नमस्कार करके सर्व सिद्धि को प्राप्त करते हैं । इसलिए जन्म-समुद्र नाम के ग्रन्थ को करने की इच्छा वाले श्री नरचन्द्रोपाध्याय समस्त विघ्नों की शान्ति के लिए श्री महावीर देव की स्तुति करते हैं। तत्रायमाद्यः श्लोकः आश्रयः श्रेयसां सारो वरो विश्वेश्वरो वशी। सुरेशः सुस्वरो वीरः स श्रीवीरः शिवश्रिये ॥१॥ स श्रीवीरः स भगवान् महावीरश्चतुर्विशतितमस्तीर्थङ्करः शिवश्रिये अस्तु, कल्याणलक्ष्मीनिमित्ताय भवतु । श्रेयसां कल्याणानामाश्रयः स्थानं, सारो बलिष्ठः सर्वोत्कृष्टवीर्यत्वात् । वरः प्रधानः, गाम्भीर्यादि सकलगुणगणास्पदत्वात् । विश्वेषां स्वर्गमृत्युपातालानामीश्वरो विश्वेश्वरः, करतलामलकवत् परिज्ञात जगत्त्रयस्वरूपत्वात् । वशी जितेन्द्रियग्रामः, षडाभ्यन्तररिपुजयित्वात् । सुरेशः सुराणां समस्ततीर्थङ्कराणामीशः ईश्वरः अनवरत प्रसभभारती प्रसरत्वात् "Aho Shrutgyanam" Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः सुस्वरः, विशेषेणेरयति प्रेरयति अष्टकर्मीणीति वीरः क्षिप्तकर्मत्यर्थः स एवंविधः श्रीमहावीरजिनः शिवश्रिये भवत्वित्यर्थः ।।१।। चौबीसवें तीर्थङ्कर महावीर जिन हैं, वे कल्याण और लक्ष्मी के लिए हों। जो समस्त कल्याणों का प्राश्रय है, अनन्त वीर्यवान् होने से सबसे उत्कृष्ट बलवान् है, गांभीर्यादिक समस्त गुणों का स्थान होने से सबसे श्रेष्ठ है, जैसे हाथ में रक्खे हए प्रांवले के फल के स्वरूप को सब प्रकार से जान सकते हैं। वैसे तीनों जगत् के स्वरूप को एक समय में जानने वाले होने से स्वर्ग, मृत्यु और पाताल ये तीनों लोक के स्वामी हैं, क्रोधादिक छः आभ्यंतर शत्रुओं को जीतने वाले होने से जितेन्द्रिय हैं, समस्त देवों के ईश्वर हैं, निरन्तर पर्षदाओं में मधुर ध्वनि वाली वाणी से देशना देने वाले होने से सुस्वर कहलाते हैं, विशेष प्रकार से अष्टकर्म रूप शत्रुओं का सामना करने वाले होने से वीर हैं, ऐसे श्री महावीर प्रभु कल्याण रूप लक्ष्मी के लिए हों ॥१॥ अधुना शास्त्रनामाह अनन्तयोगरत्नानां निधिर्गम्भीरतावधिः । सुधीवराभिगम्योऽयं जन्माम्भोधिः समुल्लसेत् ॥२॥ अयं जन्माम्भोधिर्जन्मसमुद्रो नामा ग्रन्थः समुल्लसेत् । कै: अष्टभिः कल्लोलेः समुल्लसति । योऽनन्तयोगरत्नानां निधिः, अनन्ता असंख्या ये योगा गर्भसम्भवाद्यास्तान्येव रत्नानि तेषां निधिनिधानं । गम्भीरताया अवधिः सीमा या स्तोकाक्षर बहुलार्थत्वात् । सुधियां सूक्ष्मदर्शिनां मध्ये ये वराः श्रेष्ठाः सर्वज्योतिषशास्त्रज्ञास्तैरभिगम्यः सेव्यः, समुद्रोऽपि अनन्तयोगानि असंख्ययोगानि पृथक् २ फलानि यानि रत्नानि तेषां निधिः गम्भीरताया अवधि: अलक्ष्यमध्यत्वात्, सोऽपि सुधीवराभिगम्यः शोभनर्धीवरैः कैवत्तरभिगम्यस्तरितु शक्यते, अतश्च कल्लोलैरुल्लसति ।।२।। अब इस शास्त्र का नाम कहते हैं-इस शास्त्र का नाम जन्मांभोधि अर्थात् जन्मसमुद्र है। शास्त्र को समुद्र की उपमा इसलिए दी जाती है कि जैसे समुद्र में कल्लोले होती हैं, वैसे इस शास्त्र में भी पाठ कल्लोलें हैं। जैसे समृद्र में रत हैं, वैसे इसमें गर्भ संभवादि अनन्त ग्रहयोग रूप रत्न हैं । जैसे समुद्र की गहराई की सीमा को जहाज चलाने वाले चतुर धीवर ही जान सकते हैं, वैसे ही इस शास्त्र की गंभीरता (गहराई ) की सीमा को समस्त ज्योतिष शास्त्र के जानने वाले अच्छे विद्वान् लोग ही जान सकते हैं ॥२॥ अधुना शास्त्रादौ लग्नादिद्वादशभावानां सर्वव्यापकं लाभालाभज्ञानमाह लग्नाद् वेन्दोश्च यो भावः स्वामिना वा शुभैयुतः। दृष्टोऽथ तस्य तस्याप्ति प्राहुर्जन्मनि नाक्रमे ॥३॥ "Aho Shrutgyanam" | Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम कल्लोलः लग्नात् प्रश्नलग्नाज्जन्म लग्नाद् वा यद्वा इन्दोरचन्द्राद्वा यो भावस्तन्वादिकः स स्वामिना अथवा शुभैर्ग्रहैर्युतोऽथवा दृष्टो भवति, तस्य तस्य भावस्याप्ति प्राप्ति प्राहुः । क्व जन्मनि जन्मलग्ने प्रश्न लग्ने वा तस्य तस्य भावस्य लाभो भवतीत्यर्थः । अक्रमे विपर्यये सति न प्राप्तिर्भवति, यो भावः स्वामिना शुभग्रहैश्च युतो दृष्टो वा न भवति, शत्रुरणा पापैर्नीचेनैव युतो दृष्टो वा भवति तस्य प्राप्ति र्न भवतीत्यर्थः ॥३॥ अब शास्त्र के प्रारम्भ में लग्न प्रादि बारह भावों के लाभालाभ का सर्व व्यापक ज्ञान बतलाते हैं- प्रश्न- लग्न से अथवा जन्म लग्न से तथा चन्द्रमा से प्रारम्भ करके जो-जो भाव अपने स्वामी से अथवा शुभ ग्रहों से युक्त हो, अथवा देखा जाता हो तो उस उस भाव की जन्म में प्राप्ति होती है, अर्थात् उस-उस भाव के फल का लाभ होता है । परन्तु उससे विपरीत हो अर्थात् जो भाव अपने स्वामी से अथवा शुभ ग्रहों से युक्त न हो और देखा गया भी न हो तो उस भाव का फल नहीं मिलता एवं जो भाव शत्रु ग्रहों से, पाप ग्रहों से या नीच ग्रहों से युक्त हो या देखा जाता हो तो भी उस भाव का फल नहीं मिलता ॥३॥ अथ गर्भस्वरूपो नाम कल्लोलो व्याख्यायते, तत्रादौ गर्भसम्भवासम्भवज्ञानमाह-शुक्रार्कारिन्दुभिः स्वांशे द्वाभ्यां चेषां क्रमाद् भवेत् । पुस्त्रीभोपचयस्थाभ्यां गर्भो वेज्येऽङ्गकोणगे ॥४॥ 'शुक्रार्का रेन्दुभिः' शुक्र सूर्य कुज चन्द्रः स्वांशे यत्र तत्र राशौ स्वस्वनवांशस्थैरुपचयस्थैर्वा कृत्वा गर्भप्रश्ने सति गर्भो भवेत् गर्भो भविष्यतीति ज्ञेयम् । अथवा एषां प्रश्ने शुक्रार्कारेन्दूनां मध्याद् 'द्वाभ्यां' शुक्रार्काभ्यां भौमचन्द्राभ्यां स्वांशे वर्त्तमानाभ्यामेव क्रमात् 'पु ंस्त्रोभोपचयस्थाभ्यां' सद्भ्यां पुसः पुरुषस्य यानि भानि राशयः मेषमिथुनसिंहतुलाधनुःकुम्भाख्यास्तेभ्य - स्त्रिषडेकादशदशमस्थाभ्यां शुक्रार्काभ्यां स्वांशस्थाभ्यां च शब्दाद् गर्भो भवेत् । एवं स्त्रीराशिभ्यो वृषकर्ककन्या वृश्चिकमकरमीनेभ्य उपचयस्थाभ्यां भौमचन्द्राभ्यां स्वांशस्थाभ्यां गर्भो भवेत् । परन्तु वन्ध्याशिशुवृद्धातुराभ्यो विनेति ज्ञेयम् । वा इज्ये गुरौ अंगकोणगे लग्ने पञ्चमे नवस्थे वा सति गर्भो भवेत् । शास्त्रान्तरात् सुते निर्बले सक्रूरेऽथवा सुतनाथे सक्रूरेऽस्तनीचगे वा गर्भो न भवेद् ध्रुवम्, सबले भवत्येव ॥ ४ ॥ अब गर्भस्वरूप नाम के प्रथम कल्लोल की व्याख्या करते हैं, उसमें प्रथम गर्भ का होने न होने का योग बतलाते हैं - गर्भ के प्रश्न लग्न समय यदि सूर्य, चन्द्रमा, मंगल और शुक्र ये चारों ग्रह चाहे किसी राशि में हों, परन्तु अपने २ नवमांश में हों और उपचय (३-६-१०-११) स्थान में रहे हों तो गर्भ का होना कहना । अब दूसरा योग यह है कि शुक्र और रवि ये दोनों ग्रह पुरुष संज्ञक राशियों में अर्थात् मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धन "Aho Shrutgyanam" Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः और कुम्भ इनमें से किसी राशि पर हों, परन्तु अपने २ नवमांश में हो और उपचय स्थान में बैठे हो तो, पुत्र सम्बन्धी गर्भ कहना एवं मंगल और चन्द्रमा ये दोनों ग्रह स्त्री संज्ञक राशियों में अर्थात् वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीन इनमें से किसी राशि पर हों, परन्तु अपने २ नवमांश में हो और उपचय स्थान में बैठे हों तो कन्या सम्बन्धी गर्भ कहना । परन्तु वन्ध्या बालक, वृद्ध और आतुर के लिए ये योग नहीं घटते हैं। तीसरा योग बृहस्पति लग्न में हो अथवा नवां या पांचवां स्थान में हो तो गर्भ योग कहना । अन्य ग्रंथों में भी कहा है कि-पांचवां पुत्र भवन निर्बल हो या इसमें क्र र ग्रह बैठे हो या पुत्र भवन का स्वामी क्र र ग्रह के साथ बैठा हो या अस्त हो या नीच राशि का हो तो गर्भ योग नहीं होता है। परन्तु पंचम भाव और पंचमेश बलवान हो तो गर्भ योग होता है ॥४॥ अथ गर्भपुष्टिमाह-- लग्नेन्दुगैः शुभैः पुष्टो वाभ्यां केन्द्रार्थकोणगैः। व्यायस्थैश्चापरैर्गर्भो वाङ्ग वाब्जे रवीक्षिते ॥५॥ शुभैः सौम्यैर्बुधगुरुशुऊर्लग्नगतैः, अथवा इन्दुगतैश्चन्द्रयुतराशिगतैरपरैः क्रूरैः रविकुजशनिभिस्त्र्यायस्थैस्त्रिलाभगैर्गर्भपुष्टो भवेत् । अथवा कैश्चित् शुभैलग्नगतैश्चन्द्रगतैश्चापरैस्तत्रस्थैः पुष्टः । अथ लग्नेन्दुगैलग्नस्थो यश्चन्द्रस्तेन युक्ताः शुभास्तैरपरस्तत्रस्थैश्च पुष्टः । वा अथवा प्राभ्यां लग्नेन्दुभ्यां पंचमोद्विवचनयुताभ्यामिति कोऽर्थ-लग्नाच्चन्द्राद् वेत्यर्थः । लग्नात् प्रश्नलग्नाच्चन्द्राद्वा चन्द्रयुतराशितो वा शुभैः केन्द्रार्थकोणगैः केन्द्रस्थैर्लग्नतुर्यसप्तमदशमानामन्यतमस्थैः । अथार्थं धनं कोणं पंचमनवमे तत्रस्थैः शुभैरपरैस्त्रिलाभस्थैश्च पुष्ट एव गर्भः । वा अथवा अङ्गे लग्ने वाऽथवाऽब्जे चन्द्र रवीक्षिते पुष्टिर्वृद्धिरुदरस्थो गर्भः ।।५॥ लग्न में अथवा चन्द्रमा के साथ बुध, गुरु और शुक्र ये शुभ ग्रह हों और रवि, मंगल और शनि ये पापग्रह तीसरे या ग्यारहवें स्थान में हों तो गर्भ की वृद्धि कहना । अथवा लग्न में रहा हुअा चन्द्रमा के साथ शुभग्रह हों और पापग्रह तीसरे या ग्यारहवें स्थान में हो तो गर्भ की पुष्टि कहना । अथवा लग्न से या चन्द्रमा से शुभग्रह केन्द्र (१-४-७-१०) स्थान में, दूसरा नवें या पांचवें स्थान में रहे हों और पापग्रह तीसरे या ग्यारहवें स्थान में हो तो गर्भ की पुष्टि कहना । अथवा लग्न को या चन्द्रमा को सूर्य देखता हो तो गर्भ में रहा हुअा गर्भ की पुष्टि और वृद्धि होती है ॥५॥ अथ गर्भमासाधिपानाह सितारेज्याकंचन्द्राकि-झाङ्गनाथेन्द्विनाः क्रमात् । मासेशा यो बली बुद्धयं स्वमासे पतनाय सः ॥६॥ "Aho Shrutgyanam" Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम कल्लोल: ५ एतत्क्रमेण मासेशाः प्रथमादिमासानामीशा: स्वामिनो ज्ञेयाः। सितारेज्य इति शुक्र कुजगुरुसूर्यचन्द्रशनिबुधलग्नपतिचन्द्रसूर्याः। एषां मध्याद्यो बलवानाधानकाले स ग्रहो निजमासे गर्भवृद्धिहेतवे भवति । परं योऽबली निर्बलस्तत् काले ग्रहपीडितः स स्वमासे गर्भपतनाय गर्भश्रवाय । तत्र प्रथमे मासि शुक्रशोणितमेलः। द्वितीयेमासे काठिन्यं । तृतीये समचतुरस्रमांसं । योऽप्याधाने ग्रहो बलवान् तदुत्तरेऽस्य दोहलो जायते गुविण्या, हस्ताद्यवयवांकुरोत्पत्तिः। चतुर्थेऽस्थिशिरा स्नायुसम्भवः । पञ्चमे मज्जा च सम्भवः । षष्ठे रुधिररोमनखाः। सप्तमे चेतना । अष्टमे गर्भस्थोऽशनं करोति । कथयन्मासे भुक्तं तद्रसादिकं नाभिलग्नेन नालेन संक्रमते । तत्र मासे गर्भाधानलग्नपतिर्यो ग्रहः स मासपतिः। नवमे स्पर्शःपयोधरवयः। दशमे उद्घाटितपूर्णावयवदेहः प्रसूते । तदयं विशेषो यद्गर्भमासस्वरूपमुक्तम् ॥६॥ शुक्र, मंगल, गुरु, सूर्य, चन्द्रमा, शनि, बुध लग्नपति चन्द्रमा और सूर्य ये गर्भ के दश महिनों के स्वामी है। इनमें से जो ग्रह गर्भाधान समय में बलवान हो, वह ग्रह अपने मास में गर्भ की वृद्धि करता है और निर्बल हो तो अपने मास में गर्भ का पात करता है। गर्भ प्रथम मास में वीर्य और रुधिर का मिश्रित रूप रहता है। दूसरे मास में कुछ कठिन पिण्ड बनता है। तीसरे मास में समचौरस मांस का पिण्ड रूप बनता है, तब माता को दोहद उत्पन्न होता है और हाथ आदि अवयवों के अंकुर उत्पन्न होते हैं। चौथे मास में हड्डी और नसों की उत्पत्ति होती है। पांचवें मास में मज्जा (चर्बी) बनती है। छठे मास में रुधिर बाल और नखों की उत्पत्ति होती है । सातवें मास में चेतना पाती है। आठवें मास में गर्भ में रहा हुअा जीव नाभि में लगी हुई नाल से रसादिक का आहार करता है। नवें मास में गर्भ हलचल करता है। दसवें मास में पूर्ण अवयव वाला शरीर बन कर जन्म लेता है ॥६॥ अथ गर्भिणीगर्भयोऽरिष्टयोगत्रयमाह वेन्दोः क्रूरे सुखे चारे रन्ध्र स्याद् गर्भिणीमृतिः। वास्तेऽर्केऽङ्ग कुजे शस्त्राद् वारे केऽन्त्ये रवौ तथा ॥७॥ 'वा' शब्देन लग्नपरामर्शः । लग्नादिन्दोश्चन्द्रराशेर्वा क्रूरे क्षीणचन्द्रकुजशनिसूर्यपापयुतबुधानामन्यतमे सुखे चतुर्थगे च परमारे भौमे रन्ध्रऽष्टमगते सति गभिणी मृतिः, सगर्भाया मरणं स्यात् । 'वा' अथवा अस्ते सप्तमगे अर्के अङ्ग लग्नगे कुजे शस्त्रादस्त्रकर्मणा मृत्युः । वा अथवा आरे कुजे 'के' चतुर्थगे 'अन्त्ये' व्यये रवौ यत्रतत्र क्षीणेन्दौ तथा तेन प्रकारेण मृत्युः ।।७।। लग्न से अथवा चन्द्रमा से क्षीण चन्द्रमा, मंगल, शनि, सूर्य और पापग्रह युक्त बुध इन पापग्रहों में से कोई एक पापग्रह चौथे स्थान में बैठा हो और मंगल आठवें स्थान में हो "Aho Shrutgyanam" Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः तो सगर्भा स्त्री का मरण होता है। यदि सूर्य सातवें स्थान में और मंगल लग्न में रहा हो तो शस्त्र से मृत्यु होगी। अथवा मंगल चौथे स्थान में और सूयं बारहवें स्थान में रहा हो और क्षीण चन्द्रमा किसी भी स्थान में हो तो भी शस्त्र से मृत्यु होगी ऐसा कहना ॥७॥ अथान्यद् योगान्तरमाह क्विन्द्वारेक्ष्ये यमे साङ्ग वेष्टादृष्टेऽन्त्यगैः खलैः । वाङ्गन्दू पापमध्यस्थौ सौम्यादृष्टौ समं पृथक् ॥८॥ यमे शनौ साङ्ग लग्नस्थे क्विन्द्वारेक्ष्ये क्षीणचन्द्रकुजाभ्यां दृष्टे तस्या मृतिः । वाथवाङ्ग लग्ने इष्टादृष्टे शुभैरदृष्टे सति खलैः पापैरन्त्यगादशगैस्तस्या मृतिर्वाच्या । वाथवा लग्नेन्दू सौम्यादृष्टौ सौम्यैः पूर्णेन्दुबुधगुरुशुऊरदृष्टौ पापमध्यस्थौ पापद्वयमध्यगतौ सममेकराशावेव पृथक् तौ भिन्नौ पापद्वयमध्यस्थौ कथं ज्ञेयौ ? तद्यथा- लग्नस्थे चन्द्र यद्येक पापो व्ययगः, द्वितीयो धनङ्गतस्तदा समं पापद्वयमध्यगतौ तदा सगर्भा नारी म्रियेत । अथ पृथगेतौ लग्नेन्दू पापद्वयमध्यगौ स्यातां तदापि तस्या मृतिः । अत्र योगकर्तृणां मध्याद् यो बलवांस्तस्य मासे गुविण्या मृतिः । अर्थात् सौम्यद्वयमध्यस्थौ लग्नेन्दू शुभदृष्टौ यदि तदा द्वयोः क्षेमः ।।८।। लग्न में रहा हया शनि को मंगल और क्षीण चन्द्रमा देखता हो तो गभिणी की मृत्यु होती है। अथवा लग्न को कोई शुभग्रह न देखते हों और बारहवें स्थान में पापग्रह हों तो भी मृत्यु कहना । अथवा लग्न और चन्द्रमा को कोई शुभग्रह (पूर्ण चन्द्रमा, बुध, गुरु और शुक्र ) न देखते हों और दो पापग्रहों के बीच में हो तो भी मृत्यु कहना। लग्न और चन्द्रमा दोनों एक साथ हो या अलग २ रहे हों मगर उक्त योग होना चाहिए। इन योगों को करने वाले ग्रहों में जो ग्रह बलवान हो उसके मास में मृत्यु कहना। परन्तु लग्न और चन्द्रमा शुभ ग्रहों के बीच में हो और शुभग्रह देखते भी हों तो गर्भ और गभिरणी दोनों के लिए कल्याणदायक है ॥८॥ अथ पुस्त्रियोः शुभाशुभज्ञानमाह - सूर्यादस्ते यमे वारे पुसो रुग्वा विधोः स्त्रियः। स्वान्त्ये तथा स्वमास्यन्तेऽर्केऽब्जेऽप्येकाग्ययुग्दृशि ॥६॥ सूर्यात् सूर्ययुतराशितोऽस्ते सप्तमस्थे यमे शनौ वाथवा पारे भौमे पुसो रुग् रोगो मृत्यु । वाथवा विधोश्चन्द्रयुतराशितः सप्तमस्थे शनौ भौमे वा स्त्रिया गुविण्या रोगः । क्व मासि निजमास इत्यर्थः । तथा तेन प्रकारेण सूर्यात् स्वान्त्ये कुजशन्योर्मध्यादेकस्मिन् स्वे द्वितीयेऽपरस्मिन् अन्त्ये व्ययगे पुसो रोगः । एवं चन्द्रात् स्त्रियो रोगो मृत्यु, । तयोकुजशन्योर्यो बली तदुक्तमासि मृत्युः । अपि "Aho Shrutgyanam" Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम कल्लोलः शब्दोऽथवा वाची । तथार्के रवौ यत्रतत्रस्थे एकान्ययुग्दृशि कुजशन्योर्मध्यादेकेन युते परेण दृष्टे पुंसो रोगः । एवमब्जे चन्द्र सति स्त्रिया मृत्युर्भवति । अर्थान्तरात् सूर्याच्चन्द्रात् सप्तमेद्वितीये व्यये शुभैर्युते दृष्टेऽथवा रवौ चन्द्र वा शुभयुतदृष्टे पुंस्त्रियोः सुखमारोग्यं च । शास्त्रान्तरात् शुक्रे पापद्वयमध्यगते सूर्ये चन्द्र च सौम्यादृष्टे स्त्रियोर्युगपदेव मृत्युः ॥६॥ अब पुरुष और स्त्री के शुभाशुभ को बतलाते हैं—सूर्य से सातवें स्थान में शनि या मंगल हो तो पुरुष को रोग या मृत्यु कहना । एवं चन्द्रमा से सातवें स्थान में शनि या मंगल हो तो स्त्री को रोग या मृत्यु कहना । यह रोग या मृत्यु योग करने वाले बलवान ग्रह के महीने कहना । एवं सूर्य से शनि और मंगल इन दोनों में से एक दूसरे और दूसरा बारहवें स्थान में हो तो पुरुष को रोग, तथा चन्द्रमा से शनि और मंगल दूसरे और बारहवें स्थान में हो तो स्त्री को रोग कहना । मंगल और शनि इनमें जो बलवान हो उसके महिने में रोग या मृत्यु कहना । एवं किसी भी स्थान में रहे हुए सूर्य के साथ शनि या मंगल इनमें से कोई एक ग्रह साथ हो और दूसरा देखता हो तो पुरुष को रोग या मृत्यु कहना । एवं चन्द्रमा के साथ शनि या मंगल इनमें से कोई एक हो और दूसरा देखता हो तो स्त्री को रोग या मृत्यु कहना । एवं सूर्य या चन्द्रमा से सातवें, दूसरे या बारहवे स्थान में शुभ ग्रह रहे हों या साथ रहे हों या देखते हों तो पुरुष या स्त्री को सुख और आरोग्य कहना । अन्य ग्रंथों में कहा है कि- शुक्र यदि दो पापग्रहों के बीच में रहा हो और सूर्य या चन्द्रमा को कोई शुभग्रह न देखता हो तो पुरुष और स्त्री की एक साथ ही मृत्यु कहना ॥६॥ अथ पितृपितृव्ययोः शुभाशुभज्ञानमाह- ओजेऽर्के युनिशोजतो मव्य: पितृपितृव्ययो: । निशाहयोस्तयोश्चा की समर्क्षे वाऽशुभस्तदा ॥ १०॥ लग्नादोजे विषम राशिस्थे मेषमिथुनादिराशिस्थेऽर्के सूर्ये दिवाजातः पितुभव्यो बालः, निशाजातः पितृव्यस्य च । परं शनौ प्रोजे विषमराशिगे निशायां जातः पितुर्भव्यो बालः । दिवाजातः पितृव्यस्य । वा अथवा समर्क्षे समराशिस्थे वौ दिवा जन्मनि पितुरशुभः, निशाजातः पितृव्यस्य च । एवं शनौ च समराशिगे रात्रौ जातः पितुरशुभः, दिने जातः पितृव्यस्याशुभ इत्यर्थः ।। १०॥ पिता और चाचा ( काका ) के शुभाशुभ का ज्ञान कहने हैं— मेष, मिथुन आदि विषम राशि में सूर्य हो और बालक का जन्म दिन में होवे तो वह बालक पिता को शुभ फल देने वाला है और रात्रि में जन्म होवे तो पिता के भाई को शुभ फलदायक 1 एवं शनि विसम राशि में हो और बालक का जन्म रात्रि में होवे तो पिता को और दिन में जन्म होवे तो पिता के भाई को शुभ फलदायक होता है। यदि वृष, कर्क आदि समराशि में सूर्य हो और बालक का जन्म दिन में हो तो पिता को और रात्रि में जन्म हो तो पिता के "Aho Shrutgyanam" Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः भाई को अशुभ फलदायक होता है। एवं शनि समराशि में हो और जन्म रात्रि में हो तो पिता को और दिन में जन्म हो तो पिता के भाई को अशुभ फलदायक होता है ॥१०॥ अथ मातृमातृष्वसृ शुभाशुभज्ञानमाह युनिशोः समभे शुक्र मातुर्मातृष्वसुः शुभः । विषमः च जातः स्याद् अशुभः क्रमतस्तयोः॥११॥ शुक्रे समभे समराशिगे दिनजो मातुर्भव्यः, निशाजातो मातृष्वसुः शुभः स्यात् । च परं विषमे विषमराशिगे शुक्रे क्रमात् तयोर्मातृमातृष्वस्रोरशुभः। दिवाजातो मातुरशुभः, रात्रिजातो मातृष्वसुरित्यर्थ ।।११।। ____ अब माता और मौसी के शुभाशुभ को कहते हैं-वृष, कर्क आदि समराशि पर शुक्र हो और जन्म दिन में होवे तो माता को और रात्रि में जन्म होवे तो माता की बहिन (मौसी) को शुभ फलदायक है। परन्तु मेष, मिथुन आदि विषम राशि पर हो और जन्म दिन में हुआ हो तो माता को और रात्रि में जन्म हा हो तो मौसी को अशुभ फलदायक होता है ॥११॥ अथान्यद् योगान्तरमाह रात्रावोजे विधौ मातुर्दिवामातृष्वसुः खलः। चन्द्र च समभे जातो भव्यस्तयोस्तथा यथा ॥१२॥ विधौ चन्द्र प्रोजे विषमराशिस्थे रात्रौ जातो मातुः खलोऽशुभः, दिवाजातो मातृष्वसुः खलोऽशुभकृद् भवेत् । चन्द्र समराशिगे सति तयोर्मातृमातृष्वस्रोस्तथा यथा उक्तप्रकारमार्गेण शुभः। रात्रिजातो मातृभव्यः, दिवाजातो मातृष्वसुरित्यर्थः । शास्त्रान्तरात् लग्नात् पञ्चमे पुष्टचन्द्र मातुः शुभम्, लाभस्थेऽर्के पितुः शुभमिति ।।१२।। चन्द्रमा विषम राशि में हो और बालक का जन्म रात्रि में हो तो माता को और दिन में जन्म हो तो माता की बहिन को प्रशभ फलदायक होता है। यदि चन्द्रमा समराशि पर हो और जन्म रात्रि में हो तो माता को और दिन में जन्म हो तो मौसी को शुभ फलदायक होता है । अन्य ग्रंथों में कहा है कि जन्म-लग्न से पांचवें स्थान में बलवान चन्द्रमा हो तो माता को और ग्यारहवें में सूर्य हो तो पिता को शुभ फलदायक है ॥१२॥ अथ प्रश्नलग्नाज्जन्मलग्नाद्वा पूस्त्रीज्ञानमाह लग्नार्केज्येन्दुभिः पुष्ट-रोजेंऽशे ना समेङ्गना। ओजेऽर्केज्यौ सुतो वांशे शुक्रन्द्वारा युगेऽबला ॥१३॥ प्रोजे विषमराशिगतैर्लग्नार्कगुरुचन्द्रः पुष्टैर्बलिभिः ना पुमान् भवेत् । अथवा भिन्नविभक्तिदानात्, यत्रतत्र राशौ प्रोजेंऽशे विषमांशगतैस्तैरेव ना पुत्रो "Aho Shrutgyanam" Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम कल्लोलः भवेत् । अर्थान्तराद् विषमराशौ विषमांशस्थैश्च तैः पुत्रो भवेत् ध्र वम् । अथ समे समराशिगतैरेतैर्बलिभिः पुष्टैरथवा यत्र तत्र राशौ समांशगतैरथवा समराशी समांशगैर्वा एतैरङ्गना पुत्री भवतीत्यर्थः । प्रोजे विषमराशिगौ यत्र तत्र नवांशस्थौ अथवा विषमांशगौ वा बलिष्ठो अर्केज्यौ सूर्यगुरू यदि तदा सुतः। अथ शुक्र. न्द्वाराः शुक्रचन्द्रकुजाः युगे समराशिगता बलिष्ठा यदि तदा अबला स्त्री। एतेषां योगानां बाहुल्ये अथवा साम्ये बलाधिक्यात् पुत्रपुत्री निर्देश: कार्यः ॥१३॥ अब प्रश्न लग्न से या जन्म लग्न से पुत्र और पुत्री का ज्ञान-लग्न सूर्य, गुरु और चन्द्रमा ये बलवान होकर विषम राशि में रहे हों, अथवा विषम राशि के नवमांश में हों तो निश्चय ही पुत्र का जन्म कहना। इसी प्रकार लग्नादि चारों ही समराशि में हों अथवा समराशि के नवमांश में हों तो निश्चय ही पुत्री का जन्म कहना। एवं सूर्य और गुरु बलवान होकर विषम राशि में हों या विषम राशि के नवमांश में हों, अथवा विषम राशि में रहते हुए विषम राशि के नवमांश में हों तो पुत्र का जन्म कहना। इसी प्रकार शुक्र, मंगल और चन्द्रमा ये बलवान होकर सम राशि में हों या सम राशि के नवमांश में हों, अथवा सम राशि में रहते हए, सम राशि के नवमांश में हों तो पुत्री का जन्म कहना। इन योगों की अधिकता या तुलना में बल की अधिकता का विचार करके पुत्र या पुत्री का जन्म कहना ॥१३॥ अथ योगान्तरमाह: द्वघङ्गांशे तौ तु ते ज्ञाप्तौ स्वपक्षयुगहेतवे । लग्नत विषमे मन्दे नुर्जन्म समभे स्त्रियाः ॥१४॥ तौ सामीप्यात् अर्केज्यौ द्वयनांशे यत्र तत्र राशौ द्विस्वभावनवमांशगौ ज्ञाप्तौ बुधदृष्टौ यदि तदा स्वपक्षयुगहेतवे भवेताम् । स्वपक्षः पुत्रस्तस्य युगं युगलं तस्य हेतवे कारणाय भवत इत्यर्थः। तु अथवा ते शुक्रन्द्वारा द्वयङ्गांशे यत्र तत्र द्विस्वभावनवांशगा मीनकन्यांशगताश्च यत्र तत्र स्थितबुधदृष्टा यदि तदा स्वपक्षहेतवे स्वपक्षः कन्या, तस्य युगं युगलं तस्य हेतवे भवतः। पूर्वयोगे यद्यपि सामान्येन द्विस्वभावनवांशगानुक्तौ तथापि मिथुनधनुरंशगतौ विशेषेण ज्ञेयौ । अस्मिश्चयोगे मोनकन्योशस्थाविति । युगपद् योगद्वये बुधश्चेत् पश्यति तदा एकःपुत्रो द्वितीया पुत्रीति वाच्यम् । युगलापत्ययोगाभावे विशेषमाह-तु पुनर्लग्नत्तलग्नं विना विषमे त्रिपंचसप्तनवमलाभानामन्यतमस्थानस्थे मन्दे शनौ सति नु पुरुषस्य जन्म स्यात् । अपरं समभे द्वितीयचतुर्थषष्ठाष्टमदशमद्वादशानामन्यतमस्थानस्थे शनौ स्त्रिया जन्म स्यात् पुत्री भवतीत्यर्थः ।।१४।। सूर्य और गुरु ये द्विस्वभाव राशियों में हों या अन्य किसी राशि में रहे हुए द्विस्वभाव राशियों के नवमांश में हों और बुध देखता हो तो एक साथ दो पुत्र का होना "Aho Shrutgyanam" Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः कहना । यदि शुक्र, चन्द्रमा और मंगल ये द्विस्वभाव राशियों पर हों, या अन्य किसी राशि पर रहते हुए भी द्विस्वभाव राशियों के नवमांश में हों और बुध देखता हो तो दो पुत्री का जन्म कहना । ये दोनों योग सामान्य रूप से कहे हैं, उनमें विशेषता यह है कि-सूर्य और गुरु ये मिथुन और धन राशि के नवमांश में हों और बुध देखता हो तो, तथा शुक्र चन्द्रमा और मंगल ये मीन और कन्या के नवमांश में हों और बुध देखता हो तो एक पुत्र और एक पुत्री, इस प्रकार दोनों का जन्म कहना । अब युगल संतान के अभाव में विशेषता यह है कि-लग्न को छोड़कर विषम स्थानों में अर्थात् तीसरे, पांचवें, सातवें, नवें या ग्यारहवें स्थान में शनि रहा हो तो पुत्र का जन्म कहना । और सम (२.४-६-८-१०-१२) स्थान में शनि रहा हो तो पूत्री का जन्म कहना ॥१४॥ अथ षट्षण्ढयोगानाह क्लीबोऽन्दू मिथो दृष्टा-वोजस्त्रीभस्थितौ यदि । ज्ञार्की वेत्थं नृभस्थार : स्त्रीभस्थाकं तु पश्यति ॥१५॥ यद्यर्केन्दू मिथो दृष्टौ परस्परदृष्टौ प्रोजस्त्रीभस्थितौ विषमसमराशिगौ तदा क्लोबस्तद्यथा-विषमराशिग सूर्यः समराशिगं चन्द्र पश्येत्, तथाकै विषमराशिगं समराशिगः शशी पश्येत् तदा क्लीब एको योगः। वा अथवा इत्थममुना प्रकारेण पूर्वोक्तेन ज्ञार्की बुधशनी परस्परदृष्टौ यथाक्रमं विषमसमराशिगौ यदि तदा द्वितीयः क्लीबयोगः । नृभस्थार इति नृभं नरराशिस्तत्रस्थ आरः कुजः स्त्रीभं समराशिस्तत्रस्थमकं पश्यति, यद्वा सूर्यः समराशिगः सन् विषमराशिगं कुजं यदि 'पश्येत् ततः क्लीबः । इति तृतीयो योगः ॥१५।। सूर्य विषम राशि में हो और चन्द्रमा सम राशि में हो परन्तु प्रापस में दोनों देखते हों तो नपुसक योग होता है । अर्थात् विषम राशि में रहा हुआ सूर्य, सम राशि में रहा हुमा चन्द्रमा को और विषम राशि में रहा सूर्य को सम राशि में रहा हुमा चन्द्रमा देखता हो तो नपुसक योग है ।१। इसी प्रकार विषम राशि में बुध हो और सम राशि में शनि रहा हो, परन्तु ये दोनों आपस में देखते हों तो नपुसक योग होता है ।२। एवं मंगल विषम राशि में हो परन्तु सम राशि में रहा हुआ सूर्य को देखता हो और सम राशि में रहा हुआ सूर्य विषम राशि में रहा हा मंगल को देखता हो तो नपुंसक योग होता है ॥१॥ अथ योगान्तरमाह वाङ्गन्दू ओजगौ स्त्रीभस्थारेक्ष्यौ वा समौजगौ । इन्दुज्ञौ यत्राङ्गारेक्ष्यौ वा ब्रशेऽङ्गसितेन्दवः ॥१६॥ वा अथवा अङ्गेन्दू लग्नचन्द्रौ प्रोजगौ विषमराशिगौ स्त्रीभं समराशिस्तत्रस्थो यः कुजस्तेन ईक्ष्यौ दृष्टौ यदि तदा क्लीबः। वा अथवा इन्दुज्ञौ शशि "Aho Shrutgyanam" Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम कल्लोलः बुधौ यथाक्रम समौजगौ समविषमराशिगौ यत्र तत्र स्थानगकुजदृष्टौ तदा क्लीबः । अथवाङ्गसितेन्दवः लग्नशुक्रचन्द्रन शे यत्र तत्र राशौ विषमांशगताः शास्त्रान्तराद् नरराशिस्था बुधार्किदृष्टा यदि स्युस्तदा क्लीब इति षष्ठो योगः । पूर्वोक्त योगानामेषां च सत्त्वे बलवत्त्वेन फलं वाच्यम् ।।१६।। ___ यदि विषम राशि में रहे हुए लग्न और चन्द्रमा को सम राशि में रहा हुअा मंगल देखता हो तो नपुसक योग होता है ॥४॥ अथवा सम राशि में रहा हुअा चन्द्र और विषम राशि में रहा हुअा बुध, इनको कहाँ भी रहा हुआ मंगल देखता हो तो नपुसक योग होता है ॥५॥ एवं लग्न शुक्र और चन्द्रमा ये विषम राशि में हों या विषम राशि के नवमांश में हों इनको बुध और शनि देखते हों तो नपुंसक योग होता है ॥१६॥ अथ द्विसम्भवयोगत्रयमाह युग्मे सितेन्दू अङ्गन्दू पुग्रहेक्ष्यौ तु युग्मदौ । ज्ञाङ्गारेज्यसिताः पुंस्त्रीभस्थाः स्युमिथुनप्रदाः ॥१७॥ यदि शुक्रचन्द्रौ समराशिगतौ यद्वा लग्नचन्द्रौ पुग्रहेक्ष्यौ पुग्रहैरभौमगुरुभिष्टौ, अथवा तन्मध्ये बलिना एकेन दृष्टौ यदि तदा युग्मप्रदौ पुत्रपुत्रीप्रदौ । इति योगद्वयम् । ज्ञाङ्गारेज्यसिता बुधप्रश्नलग्नकुजगुरुशुक्रा विषमराशिगा: समराशिगाः । वा अथवा पुस्त्रियोर्यद्भ राशिद्विस्वभावराशिस्तत्रगाः सर्वे बलिष्ठा यदि, तदा मिथुनप्रदाः पुत्रपुत्रिकाप्रदा, इति तृतीययोगः ।।१७।। ___समराशि में रहे हुए शुक्र और चन्द्रमा को कोई पुरुष ग्रह (सूर्य, मंगल और गुरु) देखता हो तो दो संतान कहना १ एवं समराशि में रहे हए लग्न और चन्द्रमा को कोई पुरुष ग्रह देखता हो तो दो संतान कहना ।२। अथवा बुध लग्न मंगल, गुरु और शुक्र ये विषम राशि में हों तो दो पुत्र, समराशि में हों तो दो कन्या और द्विस्वभाव राशि में हो तो दो संतान एक पुत्र और एक पुत्री कहना ॥१७॥ प्रथ त्रिसम्भवयोगचतुष्टयमाह ज्ञः पश्येत् मिथुनांशस्थो द्वयङ्गांशस्थान् ग्रहोदयान् । गर्भे सुतैका पुत्रौ द्वौ वा स्न्यंशस्थः सुतः सुते ॥१८॥ ज्ञो बुधो यत्र तत्र राशौ मिथुनांशस्थो ग्रहोदयान् सर्वान् द्वयङ्गांशस्थान् द्विस्वभावराशिनवांशगान् यदि पश्येत्, तदा गर्भे सुता एका द्वौ पुत्रौ तिष्ठतः । वा अथवा स्त्र्यंशस्थः कन्यानवांशस्थो बुधो द्वयङ्गांशस्थान ग्रहोदयान पूर्वोक्तान् यदि पश्येत् तदा सुत एकः सुते द्वे वाच्ये ।।१८॥ "Aho Shrutgyanam" Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः मिथुन के नवमांश में रहा हा बुध यदि द्विस्वभाव राशि के नवमांशों में रहे हुए लग्न और सब ग्रहों को देखता हो तो गर्भ में एक कन्या और दो पुत्र कहना। एवं कन्या के नवमांश में रहा हुमा बुध यदि द्विस्वभाव राशि के नवमांश में रहे हए लग्न और सब ग्रहों को देखता हो तो दो पुत्री और एक पुत्र कहना ॥१०॥ अथ योगान्तरमाह-- नृयुग्गो वा (च) नृयुग्मास्त्रांशगांश्च सुतत्रयम् । स्त्र्यंशस्थो मीनकन्यांशगतांस्तांश्चाङ्गजात्रयो ॥१६॥ वा अथवा च शब्दाद् बुधो नृयुग्गो नृयुजं मिथुनं गच्छति स नृयुग्गो मिथुनांशस्थः सन् तान् ग्रहोदयान् नृयुग्मास्त्रांशगान् नृयुग्मं मिथुनं, अस्त्रं धनुरनयोरंशं गच्छन्तिस्म तान् मिथुनधनुरंशगान् यदि पश्येत् तदा सुतत्रयं वाच्यम् । च पुनः स्त्र्यंशस्थः कन्यांशस्थो यदि बुधस्तान् मीनकन्यांशगतान् ग्रहोदयान् यदि पश्येत् तदाङ्गजात्रयी पुत्री त्रयी इति वाच्यम् । १६ ।। मिथुन के नवमांश में रहा हुआ बुध यदि मिथुन और धन के नवमांश में रहे हुए लग्न और सब ग्रहों को देखता हो तो गर्भ में तीन पुत्र कहना, तथा कन्या के नवमांश में रहा हुआ बुब यदि मीन और कन्या के नवमांश में रहे हुए लग्न और सब ग्रहों को देखता हो तो गर्भ में तीन कन्या कहना ॥१६॥ अथापत्याधिकसंभवयोगानाह चापस्यान्त्येऽङ्गगे वांशे बलिज्ञार्कोक्षिते ग्रहैः । चान्यग्रहैस्तु कोशस्थाः पञ्चसप्तदशाङ्गजाः ॥२०॥ चापस्य धन्विनोऽन्त्येऽशे नवमांशेऽङ्गगे लग्नगते यत्र तत्र राशौ च सति बलिज्ञार्कीक्षिते बली यो ज्ञो बुधोऽथवार्किः शनि. तेनेक्षिते दृष्टे च शब्दादन्यैर्ग्रहैश्च रविसोमभौमगुरुशुक्रैश्चापस्यान्त्येऽशे धनुरंशगतैर्यत्र तत्र राशिगैलिभिः कोशस्था जरायुवेष्टिता अङ्गजाः पुत्राः पञ्च सप्त दश वा गर्भे भवन्तीत्येकायोगः। वा अथवा चापस्य धन्विनोऽत्येशे धनुर्धरनवांशे चापस्याङ्गगे लग्नगते सति कोऽर्थः धनुर्लग्ने धनुर्नवांशे च बलिज्ञार्कीक्षिते सति पुनरन्यैर्ग्रहैरेवं विधैः पूर्वोक्त संख्याप्रमाणाः पुत्रा वाच्याः ।।२०।। यदि लग्न धन राशि के अन्त्य नवांश में हो और उसको बुध या शनि बलवान् होकर देखते हों, तथा अन्य ग्रह किसी भी राशि में रहे हुए रवि, चन्द्रमा, मंगल, गुरु और शुक्र ये बलवान् होकर धन राशि के अन्तिम नवमांश में हों तो गर्भ में जरायु से वेष्टित पांच सात या दस संतान होना कहना । अथवा बुध या शनि, धनु राशि के अंत्य नवमांश में "Aho Shrutgyanam" Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम कल्लोलः ३ बलवान् होकर रहे हो और लग्न को देखते हो और अन्य ग्रह धनु के नवमांश में हो तो गर्भ में पांच, सात या दस संतान कहना ॥२०॥ प्रथाधिकाङ्गमूकयोर्योंगानाह कोणस्थे ज्ञेऽबलैरन्यै-द्विगुणांघ्रिभुजाननः ।। भसन्धिस्थः खलैरिन्दौ गोस्थे पापेक्षिते वाक् ॥२१॥ गर्भप्रश्ने ज्ञे बुधे कोणस्थे पञ्चमनवमस्थे अन्यैरपरैः सर्वः पञ्चभिः षड्भिर्या यत्र तत्र गतैबुधवय॑मबलैनिर्बलैः सद्भिद्विगुणांघ्रिभुजाननः, द्विगुणौ अंघ्री पादौ करौ हस्तौ च द्विगुणमाननं मुखं च यस्य स इति को भावार्थः ? गर्भे चतुष्पदश्चतुभुज द्विमुखः एकोदरः । अथवा खलैः पापैः रविशनिकुजैर्भसन्धिस्थैः कर्कवृश्चिकमीनानामन्त्यनवांशस्थैर्यथासम्भवमिन्दौ चन्द्र गोस्थे वृषस्थे पापेक्षिते रविकुजशनिदृष्टे अवाक्, न विद्यते वाक् जल्पनं यस्य सोऽवाक् मूक इत्यर्थः । अर्थाच्चन्द्र शुभैर्बलिभिदृष्टे चिरकालाज्जल्पति । पापैदृष्टे न वदति मूक एव । भसन्धिस्थै पापैः स चन्द्रः शुभदृष्टैर्जडः इति ॥२१॥ गर्भ के प्रश्न लग्न के नवें या पांचवें स्थान में बुध रहा हो और बाकी सब ग्रह निर्बल होकर किसी भी स्थान में रहे हों तो बालक चार हाथ, चार पैर, दो मुख और एक पेट वाला होता है । एवं पाप ग्रह - रवि, मंगल और शनि ये कर्क, वृश्चिक और मीन के अंतिम नवमांश में राशि संधिगत हो और ये पाप ग्रह वृष राशि में रहे हुए चंद्रमा को देखते हो तो बालक गूगा होता है। परन्तु चन्द्रमा को बलवान् शूभ ग्रह देखते हों तो वह बालक कुछ विलम्ब से बोलने लगता है। कर्क, वृश्चिक और मीन राशि के अन्तिम नवमांश में रहे हुए राशि संधिगत पापग्रहों को और चन्द्रमा को शुभ ग्रह देखते हों तो वह बालक जड़ होता है ॥२१॥ अथ सदन्तकुब्जयोर्योगानाह ज्ञस्य भस्थौ तदंशस्थौ वाराऊदन्तसंयुतः । (कर्कलग्नेऽङ्गगे) स्वः चन्द्रऽङ्गगे दृष्टे वाकिरणारेण कुब्जकः॥२२॥ प्रारार्की कुजशनी यत्र तत्र स्थाने ज्ञस्य बुधस्य भस्थौ कन्यामिथुनयोरेकतरराशिस्थौ, वा अथवा तदंशस्थौ कन्यामिथुनांशस्थौ यदि तदा दन्तसंयुतो जायते। मिथुने मिथुनांशस्थौ कुजार्की ।। मिथुनराशौ कन्यांशस्थौ ।२। एवं कन्याराशौ कन्यांशस्थौ ।३। कन्याराशी मिथुनांशस्थौ ।४। अथ भौमो मिथुनराशौ ज्ञनवांशे, शनिः कन्याराशौ ज्ञनवांशस्थो वा ।। शनिमिथुनस्थो ज्ञनवांशे, भौमः कन्यास्थो ज्ञनवांशे ।६। एवं षड्योगा भवन्ति । अथ चंद्र स्वः स्वराशौ "Aho Shrutgyanam" Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः कर्कस्थेऽङ्गगे लग्नगे प्रकिरणा शनिना प्रारेण मौमेन वा दृष्टे सति कुब्जको भग्नपृष्ठो वाच्यः ।। २२ ।। १४ किसी भी स्थान में रहे हुए शनि और मंगल ये बुध की राशि के हों, अर्थात् कन्या या मिथुन राशि के हों अथवा इनके नवमांश के हो तो दांत वाले बालक का जन्म कहना | ये योग छ प्रकार के हैं— मंगल और शनि मिथुन राशि में हों और मिथुन के ही नवमांश में हो । मिथुन राशि में हों और कन्या के नवमांश में हों। कन्या राशि में और कन्या के नवमांश में हों । कन्या राशि में और मिथुन के नवमांश में हों। मंगल मिथुन राशि में और बुध के नवमांश में हो । शनि मिथुन राशि में बुध के नवमांश में हों। ये छ योगों में से कोई योग हो तो दांतवाला बालक का जन्म कहना । यदि चन्द्रमा कर्क राशि का होकर लग्न में बैठा हो और उसको शनि या मंगल देखता हो तो बालक कुबडा होता है ||२२|| अथ पंगुवधिरयोगानाह - मीनाङ्ग शनिशश्यारे र्हष्टे पंगुस्तु गर्भगः । कर्का लिमीनान्त्यां शस्थे पापे चेन्दौ स विश्रुतिः ॥२३॥ मीनाङ्गो मीन लग्ने शनिशश्यारैर्हष्टे पंगुः पादरहितः स्यात् गर्भग उदरस्थः । अथवा पापग्रहे इन्दौ च कर्कवृश्चिकमीनानां योऽन्त्यो नवांशस्तत्रस्थे च सति स बालो विश्रुतिः बधिर इत्यर्थः ॥ २३॥ Sufis मीन लग्न को शनि, चन्द्रमा और मंगल देखते हों तो गर्भ में रहा हुआ बालक पंगु (पांगला) होता है । तथा पाप ग्रह और चन्द्रमा, कर्क, वृश्चिक और मीन के अन्तिम नवांश में हो तो बालक बधिर (बहरा) होता है ||२३| अथे नेत्र विकलयोगानाह - सिहाङ्ग र्के कुजार्कोक्ष्ये चान्त्यस्थे निरवामहम् । एवं चेन्दौ विवामाक्षो द्वयोमिश्रेक्ष्ययोः कुट्टक् ॥ २४ ॥ अर्के सिहाङ्ग सिंहलग्नस्थे कुजार्कीक्ष्ये भौमशनिदृष्टे सति वा अथवा सिंहलग्ने सति अन्त्यस्थे व्ययस्थेऽर्के सति श्रथवा सिंहलग्नं विना लग्नगे व्ययगेऽर्के वा कुजशनिदृष्टे, निरवामहक - निर्गता श्रवामा दृग् दृष्टिर्यस्य स दक्षिणाक्षणा काण इत्यर्थः । एवममुना प्रकारेण च शब्दादिन्दौ क्षीणेन्दौ सिहाङ्ग सिंहलग्ने सति कुजशनिदृष्टे, अथवान्त्यस्थे क्षीणेन्दो सिंहाङ्ग सिंहलग्ने सति, वाथवा सिंहलग्नं विना लग्नस्थे व्ययस्थे वा चन्द्र कुजशनि दृष्टे विवामाक्षः विगतं वामं अक्षयस्य स वामाक्ष्णा कारणः । अथ सिंहाङ्ग सिंहलग्नस्थे अन्त्यस्थे व्ययस्थे वर्के चन्द्र च कुजशनिदृष्टे जात्यन्धो भवेत् । द्वयोर्यत्र तत्र मिश्रेक्षयोमिश्राः पाप "Aho Shrutgyanam" Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम कल्लोलः शुभा ग्रहास्तैरीक्ष्ययोर्ह ष्टयोः कुदृक्, कुत्सिता दृक् दृष्टिर्यस्य सबुद्बुदाक्षः । अथवार्कचंद्रयो रेकेन दृष्टे परेण युक्ते सिंहलग्ने पुष्पिताक्षः परं कुजदृष्ट्या एषु योगेषु पूर्वोक्तं फलं वाच्यम् । अर्थवशादर्के चन्द्र वा शुभदृष्टे याप्यः । एवं चतुर्दशयोगाः || २४| १५ सिंह राशि का सूर्य होकर लग्न में बैठा हो, उसको मंगल और शनि देखते ।१। अथवा सिंह लग्न हो और सूर्य बारहवें स्थान में हो और शनि, मंगल देखते हों |२| अथवा सिंह लग्न से भिन्न दूसरा कोई भी लग्न हो उसमें या बारहवं स्थान में सूर्य बैठा हो उसको शनि और मंगल देखते हों तो वह बालक दाहिनी प्रांख से कारणा होता है । ३-४| इसी प्रकार क्षीण चंद्रमा सिंह लग्न में रहा हो उसको शनि और मंगल देखते हों । ५ । अथवा सिंह लग्न हो और चंद्रमा बारहवें स्थान में हो उसको शनि और मंगल देखते हों । ६ । अथवा सिंह लग्न से भिन्न अन्य कोई लग्न हो और चन्द्रमा लग्न में या बारहवें स्थान में बैठा हो उसको मंगल और शनि देखते हों तो बालक बांयीं प्रांख से कारणा होता है 19-51 सिंह लग्न में या बारहवें स्थान में सूर्य और चद्रमा रहा हो उसको शनि और मंगल देखते हों तो वह बालक जन्म से ही अन्धा होता है ।६ - १०1 सिंह लग्न में या बारहवें स्थान में सूर्य और चंद्रमा रहे हों, उनको मिश्र ग्रह अर्थात् पाप ग्रह और शुभ ग्रह दोनों देखते हों वह बालक खराब नेत्र वाला होता है । ११-१२। अथवा सूर्य और चन्द्रमा इन दोनों में से एक सिंह लग्न में हो और दूसरा लग्न को देखता हो तो नेत्र में फूला होने का योग कहना | १३ | यदि मंगल देखता हो तो पूर्वोक्त फल कहना । यदि सूर्य या चन्द्रमा को शुभ ग्रह देखते हों तो नेत्र रोग कुछ समय के बाद मिट जाता है | १४ ||२४|| अथ होनाङ्गयोगमाह- पापेन्द्वीक्ष्ये शुभादृष्टे लग्नादित्र्यंशगे कुजे । तत्काले विशिरोबाहु-क्रमः स्यात् क्रमतो ध्रुवम् ||२५|| कुजे मङ्गले क्रमेण लग्नादित्र्यंशगे सति बालो विशिरोबाहुक्रमः स्यात् । तद्यथा-लग्नस्य प्रथमे द्रेष्कारणस्थे कुजे पापेन्द्वीक्ष्ये रविशनिचन्द्र दृष्टे शुभैरदृष्टे तत्काले विशिरा विगतं शिरोमस्तकं यस्य सविशिराः । एवं द्वितीयद्रष्कारणस्थे कुजे विबाहुः, विगतौ बाहू भुजौ यस्य स विबाहुः । अथैवं लग्नात् तृतीयद्रष्कारणस्थे कुजे विक्रमः स्यात् भवेत् । विगतौ क्रमौ पादौ यस्य स गत पाद इत्यर्थः ।। २५ ।। लग्न के प्रथम द्रष्कारण में यदि मंगल हो उसको सूर्य, शनि और चन्द्रमा देखते हों, दूसरा कोई शुभ ग्रह न देखता हो तो वह बालक मस्तक रहित होता है । एवं मंगल लग्न के दूसरे द्रेष्काण में हो उसको सूर्य, शनि और चंद्रमा देखते हों और शुभ ग्रह कोई न देखता हों तो वह बालक भुजा रहित होता है । यदि मंगल लग्न के तीसरे द्रेष्काण में हो उसको सूर्य, शनि और चंद्रमा देखते हों, शुभ ग्रह कोई न देखता हो तो वह बालक पैर रहित होता ॥२५॥ "Aho Shrutgyanam" Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जन्मसमुद्रः मथ वामनयोगमाह मृगान्त्यांशेऽङ्गगेऽर्केन्दुशनीक्ष्ये वामनो मतः। एतेऽप्युक्तफला योगा यदि सौम्यैनं वीक्षिताः ॥२६॥ मृगो मकरस्तस्यान्त्ये नवमेंऽशे अङ्गगे लग्नगे अर्केन्दुशनीक्ष्ये सति वामनो मतः स्मृतः । एते 'कोणस्थे ज्ञे' इत्यादयो ये योगा उक्तास्ते तादृशा एव भवन्ति, परं यदि सोम्यैर्न दृष्टा योगाः । अपि शब्दात् पुनर्यदि शुभदृष्टा स्तदाऽल्पफलाः ॥२६॥ यदि मकर लग्न अपने अन्त्य नवमांश में हो, उसको सूर्य, चन्द्र और शनि देखते हों तो वह बालक वामन होता है। उपरोक्त श्लोक २१ से जो-जो योग बतलाये हैं उन पर यदि शुभग्रहों की दृष्टि न हो तो उसी प्रकार फल देने वाले हैं, परन्तु शुभ ग्रहों की दृष्टि बहुत अल्प फल देते हैं ॥२६॥ मथ सम्भूतगर्भमासज्ञानमाह लग्नांशकाः स्युर्यावन्तस्तावन्तो गर्भमासकाः। सुताद्वाङ्गाद् बली शुक्रो यावद् गेहेऽथ तन्मिताः ॥२७।। . सम्भूतगर्भमासज्ञानं निजप्रश्नप्रकाशश्लोकेनोक्तम् । प्रश्न लग्न के जितने नवमांश गये हों, उतने ही गर्भ के मास हुए, ऐसा समझना। लग्न से या पंचम स्थान से जितने स्थान पर बलवान शुक्र बैठा हो, उतनी संख्या तुल्य गर्भ के मास जानना ॥२७॥ अथ प्रसवकालज्ञानमाह - यतमे द्वादशांशेऽब्जः सूतिस्तत्संख्यमे विधौ। यतमा धुरात्रिलग्नांशास्तत्काले युनिशोर्भवेत् ।।२८॥ __ अब्जस्तात्कालिकश्चन्द्रो यतमे यत्संख्ये द्वादशांशेऽस्ति, तत्संरव्यभे तत्संख्यो यो मेषादिगणनया यद्भ राशिस्तत्र गते विधौ चन्द्र दशमे मासे सूतिः प्रसवः । अथ धुरात्रिलग्नांशो दिवारात्रिसंज्ञो यो लग्नस्यांशो यतमो यावत्कालो भवेत्, दिननिशोस्तावति काले गते जन्म भविष्यतीति वाच्यम् । दिवानिशोर्गतकालबुध्वा प्रसवकाले लग्नहोरादिषड्वर्ग कथनीयः । सिंहकन्यातुलावृश्चिककुम्भमीनराशयो दिवा सञ्ज्ञाः अन्ये राशयो रात्रिसंज्ञा ज्ञेयाः ।।२८।। यदि तत्कालिक स्पष्ट चन्द्रमा जिस राशि के द्वादशांश में हो, उस द्वादशांग को राशि में चन्द्रमा पाने से दसवें मास में बालक का जन्म कहना। लग्न जिस नवमांश में हो वह दिनबलि है या रात्रिबलि इसका विचार करके जो बलवान् हो उसके अनुसार लग्न के "Aho Shrutgyanam" Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम कल्लोलः नवमांश तुल्य समय व्यतीत होने के बाद दिन में या रात्रि में जन्म कहना। इस प्रकार दिन या रात्रि का गत काल जानकर जन्म समय में लग्नहोरा आदि का षड्वर्ग कहना चाहिये। सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, कुम्भ और मीन ये राशियें दिन बली हैं और बाकी की मेष, वृष, मिथुन, कर्क, धनु और मकर ये राशियें रात्रि बली हैं ॥२८॥ अथ धृतगर्भमासज्ञानमाह - लग्ने यमांशे मन्देऽस्ते निषेकश्चेत् समात्रयात् । सूतिः कर्काशकेऽङ्गस्थे चन्द्रऽस्ते द्वादशाब्दके ॥२६॥ यमांशे शनिनवमांशे मकरकुम्भयोरेकतमे लग्ने लग्नस्थे सति, तथा मन्दे शनी अस्ते सप्तमस्थे सति चेद् यदि निषेक प्राधानं स्यात्, अथवा प्रश्रः स्यात् तदा धृतगर्भस्य समात्रयाद्वर्षत्रयात् प्रसूतिः प्रशवो भवति । अथ कर्काशे यत्र तत्र राशौ अङ्गस्थे लग्नस्थे तथा चन्द्रऽस्ते स सप्तमगे सति द्वादशेऽब्दके वर्षे प्रसवो वाच्यः ॥२६।।। लग्न यदि शनि के नवमांश में हो, अर्थात मकर या कुम्भ के नवमांश में हो और शनि सातवें स्थान में बैठा हो, ऐसे समय में गर्भ हा हो या प्रश्न किया हो तो वह गर्भ तीन वर्ष बाद जन्म लेता है। इसी प्रकार लग्न यदि कर्क के नवमांश में हो और चन्द्रमा सातवें स्थान में बैठा हो तो वह गर्भ बारह वर्ष बाद जन्म लेता है ॥२६॥ अधुनाऽयं बालो जातो यः स कस्याल्लोकादागत इति ज्ञानमाह पितृतिर्यगधःस्वर्गात् सार्केन्दुव्यंशपे क्रमात । शुक्रन्द्वोः कारयोर्जायो गुरावुच्चाद्य आगतः ॥३०॥ सार्केन्दुत्र्यंशप इति अर्कश्चेन्दुश्चार्केन्दू तयोरर्केन्द्वोरनयोर्मध्याद् यो बलवांस्तेनार्केण चन्द्र ण वा सहितो युक्तो यस्त्र्यंशो द्रेष्काणस्तं पातीति तस्य नाथस्तत्र ग्रहे द्रेष्काणनाथे सति पितृतिर्यगधःस्वर्गादागत: क्रमेण वाच्यः । तद्यथा-शुक्रेन्द्वोर्मध्याद् यो बली स्यात् स यदि तस्य द्रष्कारणस्य पतिस्तदा पितृलोकादागतः स बालः। अथ कारयोः 'क' शब्देन रविः, पारः कुजस्तयोर्मध्याद् यः कोऽपि तस्य द्रेष्काणस्य पतिश्चेत् तदा तिर्यग्लोकादागतः स बालः। अथ ज्ञार्योर्बुधशन्योर्मध्याद् यः कोऽपि तस्यः पतिः स्यात् तदा अधोलोकान्नरकादागतः । अथ तस्य द्रेष्काणस्य पतौ गुरौ सति स्वर्गादागत इति । अथ यस्माल्लोकादागतस्तत्र कीदृशोऽभूदिति प्रश्ने यथा स्यात् तथाह-तत्र त्र्यंशपतौ उच्चाद्ये उच्चे परमोच्चे वा सति तदा तत्र लोके स उच्चः प्रधान प्रासीदित्यादिशब्दाज्ज्ञेयम् । जातिरूपवयोवर्णादि तस्य ग्रहस्य वशात् कथनीयम् । अर्थाद् यदि स उच्चराशि "Aho Shrutgyanam" Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः च्युतो नीचराशिमप्राप्य स्थितो भवति, तदादिशब्दात् तत्रासौ मध्यमो भवेदिति । अथ तत्र नीचे परमनीचे वा प्रादिशब्दादधमो नीचो भृत्यो दासो वाऽभूदयमिति वाच्यम् । एतत् पूर्वोक्त सर्वमाधानलग्नात् प्रश्नलग्नाद् भविष्यमेव वाच्यम् । जन्मलग्ने दृष्टे सति अयमीदृशोऽस्ति भविष्यतीति ज्ञेयम् ।।३०।। इति नरचन्द्रोपाध्यायकृतायां जन्मसमुद्रविवृतौ वृत्तिबेड़ायाभिधायां गर्भसंभवादिलक्षणं प्रथमः कल्लोलः ।।१।। सूर्य या चन्द्रमा बलवान् होकर जिस द्रष्कारण में हो, उस द्रष्काण के स्वामी के अनुसार पितलोक, तिर्यगलोक, अधोलोक या स्वर्गलोक से वह बालक पाया हुया कहना चाहिये। जैसे-द्रेष्काण के स्वामी शुक्र या चन्द्रमा बलवान् हो तो वह बालक पितृलोक से आया हुआ है । बलवान् सूर्य या मंगल उस द्रेष्काण का स्वामी हो तो वह बालक मनुष्यलोक से आया हुअा कहना । बुध और शनि इनमें से जो बलवान् होकर उस द्रेष्काण का स्वामी हो तो वह बालक नरकलोक से आया हुआ है। उस द्रष्कारण का स्वामी यदि बलवान् गुरु हो तो वह बालक स्वर्गलोक से पाया हुआ कहना। जन्म लेने वाला बालक का जीव जिस लोक से आया है, वहां किस स्थिति में था यह बतलाते हैं कि-यदि द्रेष्काण का स्वामी उच्च का या परमोच्च का हो तो वह जीव उस लोक में प्रधान जीवों में था। यदि मध्यम हो तो मध्यम श्रेणी का और नीच या परमनीच का हो तो नीच दास सेवक का जीव था। इसका जाति रूप वयः और वर्ण आदि ग्रह के अनुसार कहना। इस अध्ययन में जो योग बतलाये हैं, उनका फल सब प्राधान लग्न से या प्रश्न लग्न से कहना चाहिये, इसी प्रकार जन्म लग्न से भी कह सकते हैं ॥३०॥ नरचंद्रोपाध्याय विरचित जन्मसमुद्रका गर्भसंभवादि लक्षणनामका प्रथम कल्लोल समाप्त। "Aho Shrutgyanam" Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथातो जन्मविधिनामद्वितीयकल्लोलो व्याख्यायते तत्रादावेव पितुः पार्श्वेऽपार्श्वे वा जात इति ज्ञानमाह अपार्श्वस्थपितुर्जन्म चन्द्र लग्नमपश्यति । चाङ्ग े यमेऽथवारेऽस्ते वेन्दौ मध्ये ज्ञशुक्रयोः ॥१॥ चन्द्र लग्नं जन्मलग्नं तदपश्यति सति एषयोग एषु चतुर्ष्वपि योज्यः । पितुरपार्श्वस्थस्य दूरस्थस्य सतो जन्म पुत्रजन्मासीत् । श्रथ यमे शनौ अङ्ग लग्नस्थे सति, चशब्दाच्चन्द्र लग्नमपश्यति सति दूरस्थस्य जातः । अथारे भौमे सप्तमस्थे, चशब्दाच्चन्द्र े लग्नमपश्यति गृहाद् बहिर्गतस्य जातः । वाथवा इन्दौ चन्द्र ज्ञशुक्रयोर्मध्ये सति परोक्षस्य पितुर्जातः । मध्यस्थचन्द्रलक्षरणमाह- अनयोर्शशुक्रयोर्मध्ये चन्द्रस्यैको व्ययेऽपरो द्वितीये तदा मध्यस्थश्चन्द्रः । अथवैकस्मिन् राशौ चन्द्रबुधशुक्राः स्युस्तथापि राशिमध्यविभागे चन्द्र राश्यादिप्रान्तभागस्थबुधशुक्रयोर्यथासम्भवं सतोस्तदापि मध्यस्थश्चन्द्र उच्यते || १॥ जन्मलग्न को चन्द्रमा देखता न हो तो पिता के परोक्ष में जन्म कहना १, शनि लग्न में हो और चन्द्रमा लग्न को देखता न हो २, अथवा मंगल सातवें स्थान में हो और चन्द्रमा लग्न को देखता न हो ३, अथवा बुध और शुक्र के मध्य में चन्द्रमा हो किन्तु लग्न को देखता न हो ४, इन चार योगों में से कोई योग हो तो पिता के परोक्ष में जन्म कहना अर्थात् जन्म समय पिता घर में नहीं थे ॥ १ ॥ अथ क्वगतस्य पितुर्जातः, यथा बद्धः पिता चेति ज्ञानमाह परस्वदेशाध्वस्थस्य निःखेऽर्के चरमादिगे । सूर्यात् पापक्षकोणास्ते पापयोर्बन्धनं पितुः ||२|| अर्के रवौ निःखे दशमस्थानरहितेऽष्टमगे नवमगे वेत्यर्थः । किं विशिष्टे चरभादिगे स्वदेशस्थस्य पितुः । एवं द्विस्वभावराशौ परदेशस्वदेशयोरध्वास्थस्य मार्गस्थस्य पितुर्जातः । सूर्यात् पापयोः शनिकुजयोः पापक्षकोणास्ते पितुर्बन्धनं वाच्यम् । यथा पापानां राशयो मेषवृश्चिकमकरकुम्भाः क्षीणेन्दौ कर्कः, सपापे बुधे मिथुनकन्ये च एते पापराशयः । एभिर्युक्त े ये कोरणास्ते तत्र स्थितयोः पितुर्बन्धनं वाच्यम् । पुत्रे जाते सति परदेशादिस्थानं पूर्ववदुवाच्यम् । शास्त्रान्तरादत्र-सूर्ये "Aho Shrutgyanam" Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जन्मसमुद्रः चरराशौ कुजाकिदृष्टे दशमरहिते परदेशस्थस्य मृत्युः। शेषं पूर्ववद् राशिवशादुह्यम् । स च बुधः सूर्यात् पञ्चमनवमगो न स्यात् तदा युग्मम् ॥२।। - दशम स्थान को छोड़कर अन्य स्थानों में रहा हुप्रा सूर्य चर राशि का हो तो बालक का जन्म समय पिता का परदेश होना, स्थिर राशि का हो तो स्वदेश में होना और द्विस्वभाव राशि का हो तो पिता का रास्ते में होना कहना चाहिये । सूर्य से नववें पांचवें और सातवें स्थान में शनि और मंगल पाप राशि के होकर रहे हो तो जन्म समय पिता का बंधन कहना। मेष, वृश्चिक, मकर, कुम्भ, क्षीणचन्द्रमा की कर्क, पापी बुध की मिथुन और कन्या ये राशि हैं। अन्य ग्रंथों में कहा है कि-दशम स्थान रहित अन्य स्थानों में रहा हया सूर्य चर राशि का हो, उसको मंगल और शनि देखते हों तो परदेश में पिता की मृत्यु कहना ॥२॥ अथ नालवेष्टितज्ञानमाह गोऽजसिंहाङ्गगे मन्दे कुजे वा नालवेष्टितः। कालपुस्थोदयांशः-समगात्रेऽजनिष्ट सः ॥३॥ मन्दे शनौ कुजे वा गोऽजसिंहाङ्गगे वृषमेषसिंहानामेकतमलग्नस्थे सोऽपि बालो नालवेष्टितोऽजनिष्ट जातः । क्वगात्रे शरीरावयवे? किविशिष्टे कालपुस्थोदयांशङ्क्षसमे? । तद्यथा-यः पुमान् कालनरस्तत्र स्थितो य उदयो लग्नं तस्य योंऽशो नवमांशस्तत्कालं वर्तमानस्तस्य यदृक्षं राशिस्तस्य समे सदृशे गात्रे नालवेष्टितो जातः । एवं ततोऽङ्ग घातप्रश्नेन घातो, व्रणप्रश्ने व्रणो, रोगिप्रश्ने रोगो वाच्यः । “शोर्षास्यदोरुरःक्रोड-कटयोर्बस्तिगुह्यके । ऊरू जानू च जङ्घऽघ्री अजाद्याःकालमानवे ॥” इतिकालनरराशयो निरुक्ताः ।।३।। ___ जन्म के समय मेष, वृष और सिंह इनमें से कोई लग्न हो, उसमें मंगल या शनि रहे हों तो बालक का जन्म नाल से लपटा हुअा कहना। बालक का किस अवयव में नाल लपटा हया था उसको जानने के लिये काल नरचक्र लिखते हैं-मस्तक, मुख, भुजा, छाती, पीठ, कमर, बस्ति, गुह्यभाग, दोनों ऊरू, दोनों जानु, दोनों जंघा और दोनों पैर, ये अनुक्रम से मेषादि राशियों के अंग हैं। लग्नोदय में जिसका नवमांश हो उसके अनुसार अंग में नाल लपटा हुअा था। जैसे-लग्नोदय में नवमांश मेष का है तो मस्तक, वृष का है तो मुख इत्यादि क्रम से समझना चाहिये ॥३॥ अर्थकजरायुवेष्टितनिजाङ्गयोर्जन्माह तिर्यग्भेऽर्के परैर्यङ्ग यमलौ कोशवेष्टितौ। चन्द्र सेज्येऽन्यराशिस्थे वेज्यवर्गे न जारजः॥४॥ अर्के तिर्यग्भे मेषवृषसिंहधनुरुत्तरार्द्ध मकराद्यार्धानामेकतमस्थे परैश्चन्द्रादिभिर्बलिभियङ्ग द्विस्वभावराशिगतैः कोशवेष्टितावेकजरायुवेष्टितौ यमलौ "Aho Shrutgyanam" Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय कल्लोलः जायेते । चन्द्र सेज्ये सगुरौ अन्यराशिस्थे सति न जारजः । वाथवा चन्द्र इज्यवर्गे गुरोः षड्वर्गे सति न जारजः किन्तु निजाङ्गज एवेत्यर्थः ।।४।। सूर्यं तिर्यग्राशि पर हो अर्थात् मेष, वृष, सिंह, धन का उत्तरार्द्ध और मकर का आदि इनमें से किसी राशि पर हो और अन्य ग्रह ( चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि) द्विस्वभाव राशि ( मिथुन, कन्या, धन और मीन) पर हो तो नाल से लपटे हुए दो बालक का जन्म कहना । गुरु के साथ चन्द्रमा अन्य राशि का हो, अथवा चन्द्रमा गुरु के षड्वर्ग में हो तो संतान दूसरे से उत्पन्न हुआ न कहना किन्तु अपने पति से उत्पन्न हुआ कहना ॥४॥ अथ जारजातज्ञानमाह अङ्ग चेन्दु द्वयं चेन्दु सार्क वेज्यो न वीक्षते । वेन्द्रकौं सखलौ पश्येद्वा न चेज्जारजोऽङ्गजः ॥५॥ . इज्यो गुरुः, अङ्ग लग्नं चेन्दु चन्द्र वाथवा द्वयं लग्नं चन्द्र च एकस्थं पृथक्स्थं वाथवेन्दु ं सार्क ससूर्यं चेद्यदि न वोक्षते न पश्यति तदा जारजातः । वाथवेन्द्वकौं चन्द्रसूर्यौ सखलौ शनिकुजयुक्त एकराशिस्थौ स्याताम्, अथ चेद्गुरुर्नपश्येत् ततः सोऽपि । वाथवा गुरुश्चन्द्रार्कौ सशुभौ पश्येद् प्रर्थान्तरात् पूर्वोक्तयोगान् पश्येत् तदा स्वाङ्गजः ॥ ५॥ २१ वृहस्पति लग्न को या चंद्रमा को, अथवा लग्न और चंद्रमा दोनों को, अथवा सूर्य के साथ रहा हुआ चंद्रमा को देखता न हो तो बालक जार पुरुष से उत्पन्न हुआ कहना | अथवा एक राशि में रहे हुए सूर्य और चंद्रमा के साथ शनि या मंगल हो और उनको गुरु देखता न हो तो भी जार पुरुष से उत्पन्न हुआ कहना । तथा सूर्य और चंद्रमा शुभ ग्रहों के साथ हों और वृहस्पति देखता हो तो अपने पति से उत्पन्न हुआ कहना || ५ || अथ नौकागतजन्मद्वयं जलगतजन्मज्ञानंमाह - पूर्णेन्दौ स्वगृहेऽङ्ग े ज्ञे तूर्ये जीवे तरीं गतः । वाप्यङ्गस्ते विधौ नौस्थो वात्र खेऽम्बुन्यथा जले ॥६॥ पूर्णेन्दौ चन्द्रस्वगृहे कर्कस्थे सति ज्ञे बुधेऽङ्गो लग्नस्थे च जीवे गुरौ तुय चतुर्थे सति तरीगतो बेडामध्यगतो भवेदित्यर्थः । वाथवाप्येऽङ्ग जललग्ने मकरपाश्चात्याद्ध कर्कमीनजलराशीनामेकतमे लग्ने, विधौ चन्द्रेऽस्ते सप्तमस्थे सति नौथो बेडामध्ये । वाथवा चन्द्र जलराशौ च खे दशमस्थे विधौ चन्द्र जलराशाचम्बुनि चतुर्थस्थे सति जले जलपार्श्वे जात इति ॥ ६ ॥ पूर्णचंद्रमा कर्क राशि में हो, बुध लग्न में हो और गुरु चौथे स्थान में रहा हो ऐसा लग्नवाले बालक का जन्म नाव में हुआ कहना । श्रथवा जलचर (मकर का उत्तराद्ध, कर्क और मीन राशि का लग्न हो और चंद्रमा सातवें स्थान में रहा हो तो नाव में जन्म कहना । "Aho Shrutgyanam" Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जन्मसमुद्रः तथा चद्रमा जलचर राशि का होकर दशवें वा चौथे स्थान में रहा हो तो जल के पास जन्म कहना ॥६॥ अथ जलस्थितयोगद्वयं गुप्तिजन्म चाह आप्याङ्ग वाप्यम्भस्थोऽब्ज-स्तत्तद्गो वेक्षतेऽम्भसि । लग्ने चन्द्र व्यये मन्दे पापेक्ष्ये गुप्तिमन्दिरे ॥७॥ अथाप्याङ्ग जललग्ने यत्र तत्राब्जश्चन्द्रो वाप्यंभस्थो जलराशिस्थो यदि तदाम्भसि जलपार्वे जातः । वाथवा तत्तद्गो जलराशिस्थस्तज्जललग्नमीक्षते ततोऽम्भसि जलपार्वे जन्मास्ति । अथ चन्द्र लग्ने सति मन्दे शनौ व्यये द्वादशे पापेक्ष्ये रविकुजदृष्टे गुप्तिगृहे कारागृहे जन्मास्ति ।।७।। जलचर राशि का लग्न हो और किसी भी स्थान में रहा हुअा चंद्रमा भी जलचर राशि का हो तो जल के पास जन्म कहना १। एवं जलचर राशि का लग्न हो उसको जलचर राशि का चंद्रमा देखता हो तो भी जल के समीप जन्म कहना २। लग्न में चंद्रमा हो और बारहवें स्थान में रहा हया शनि को पाप ग्रह देखते हों तो जेलखाना में जन्म कहना ॥७॥ अथ विवरक्रीडागृहदेवगृहरजोभूमिगतजन्मज्ञानमाह कर्कालिलग्नगे मन्दे चन्द्र क्ष्ये विवराश्रितः । ज्ञार्केन्द्वीक्ष्येऽम्बुभे वाकौ क्रीडाचैत्यरजोभुवि ॥८॥ मन्दे शनौ कर्कालिलग्नगे कर्कवृश्चिकयोरेकतमलग्नस्थे चन्द्रक्ष्ये चन्द्रदृष्टे सति विवराश्रितो विवरमध्ये प्रसवः क्रमेण वाच्यः । तद्यथा-शनौ जलराशौ लग्नस्थे बुधदृष्टे क्रीडागृहे रतिगृहे जातः। अथ लग्नगे शनौ रविदृष्टे चैत्यगृहे जात: । एवं शनाविन्दुदृष्टे रजोभुवि बालुकाभूमौ ॥८॥ कर्क या वृश्चिक राशि का शनि लग्न में रहा हो, उसको चंद्रमा देखता हो तो गुफा आदि में जन्म कहना। जलचर राशि का शनि लग्न में रहा हो, उसको बुध देखता हो तो क्रीड़ा घर में, सूर्य देखता हो तो चैत्यालय में और चंद्रमा देखता हो तो मिट्टी पर ही जन्म कहना ॥८॥ अथ जन्मस्थानान्तरमाह पुलग्नगं यमं पश्येदर्कादिश्चैत्य गोकुले । वरे स्मशाने शिल्पीय-गृहे वह्निगृहे वरे ॥६॥ अर्कादिग्रहः पुलग्नगं नरराशिगतं मिथुनतुलाधनुःपूर्वार्द्ध कुम्भानामेकतमस्य शनि पश्येत्तदा क्रमेण जन्माह । तद्यथा-पुराशिस्थं शनि रविर्यदि पश्येत् तनौ, तदा देवगृहे नरेन्द्रगृहे गोकुले वाजातः । एवं चन्द्रो यदि पश्येत्तदा वरे प्रदेशे "Aho Shrutgyanam" Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय कल्लोलः २३ रम्यस्थले जातः । एवंविधं शनि भौमो यदि पश्येत्तदा स्मशाने, एवं बुधो यदि पश्येत्तदा शिल्पीयगृहे चैत्यपुस्तककरवर्द्ध कि प्रभृतीनां गृहे, एवं गुरुः पश्येत्तदा वह्निगृहे रन्धनादिहोत्रादिगृहे, एवं शनि शुक्रो यदि पश्यति तदा वरे शुभस्थाने जन्माभूत् । 'पश्यत्याकि नृराशिस्थं सूर्यादौ चैत्यगोकुले' एवं पाठोऽप्यस्ति ।।६।। ___नरराशि (मिथुन, तुला, धन का पूर्वभाग और कुभ) के लग्न में रहे हुए शनि को रवि देखता हो तो देवालय, राजगृह या गोकुल में जन्म कहना। चन्द्रमा देखता हो तो श्रेष्ठ स्थान में, मंगल देखता हो तो श्मशान में, बुध देखता हो तो शिल्पी के घर, गुरु देखता हो तो अग्नि घर में और शुक्र देखता हो तो अच्छे सुन्दर घर में जन्म कहना ॥॥ अथ पितृगृह मातृगृहगत जन्माह पितृमातृगृहेऽक्यिों -बलिष्ठे चेन्दुशुक्रयोः । क्रमाज्जातः शुभै!चै-नदीकूपह्रदादिषु ॥१०॥ अर्कायों रविशन्योर्मध्यादेकतमे बलिष्ठे बलवति पितृगृहे पितृकापितृष्वसृप्रभृतीनां गृहे । वाथवा इन्दुशुक्रयोरेकतमे बलिष्ठे मातृष्वसृमातुलादिगृहे जातः क्रमात्कथनीयः । शुभग्रहैर्बहुवचनात् त्रिभिश्चतुभिर्वा नीचैर्नीचराशिस्थैर्नदीकूपह्रदपाश्र्वे जन्माभूत् ।।१०।। कुंडली में रवि या शनि बलवान् हो तो पिता के घर या पिता के भाई आदि के घर या पिता की बहन के घर जन्म कहना। यदि चन्द्रमा या शुक्र बलवान हो तो मासी या मामा के घर जन्म कहना। तीन या चार शुभ ग्रह नीच राशि के हों तो नदी कुनां या तलाब प्रादि के पास जन्म कहना ॥१०॥ अथान्धकारजन्माह सुखेऽब्जे चाकिभांशे वाकॊक्ष्ये साकौ तु वा झषे। कर्के वाथ तदन्त्यांशे वार्कादृष्टे तमस्यपि ॥११॥ अब्जे चन्द्र सुखे चतुर्थस्थाने सति, वाथवा चन्द्र आकिभांशे आकिः शनिरस्य यद्भ राशिर्मकरकुम्भौ तयोरेकतमांशस्थे यत्र तत्र राशी, वाथवार्कीक्ष्ये शनिदृष्टै चन्द्र, त्वथवा साकौं शनियुक्ते चन्द्र, अथवा चन्द्र झषे मीनगते कर्कस्थे, वा तदन्त्यांशे, अथ शब्दान्मीनकर्कयोरेकतमस्य । अन्त्यस्थेन नवमांशस्थे चन्द्र सति परमष्टसु योगेषु चन्द्रऽर्कादृष्टे रविणाप्यदृष्टे सति तमस्यन्धकारे जन्म । अपि शब्दाद् रविष्टे सप्रकाशे जन्माभूत् ।।११॥ लग्न में चौथे स्थान में चंद्रमा हो १, अथवा चंद्रमा मकर अथवा कुभ के नवांश में हो २, अथवा शनि चंद्रमा को देखता हो ३, अथवा शनि के साथ चंद्रमा रहा हो ४, अथवा चंद्रमा कर्क या मीन राशि का हो ५, अथवा कर्क या मीन के अन्तिम नवमांश में "Aho Shrutgyanam' Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः चन्द्रमा हो ६, अथवा चन्द्रमा को सूर्य देखता न हो ७, इन सात योगों में से कोई योग हो तो बालक का जन्म अंधकार में कहना। परन्तु उक्त योगों में से कोई योग रहने पर भी यदि चन्द्रमा को सूर्य देखता हो तो प्रकाश में जन्म कहना ॥११॥ अथ योगान्तरमाह . लग्नेन्दू एकगैदृष्टौ सजने विजनेऽदृशौ । नीचेऽङ्गगेऽम्बुगे चेन्दौ नीचैस्त्र्यायैस्तु भूगतः ॥१२॥ ग्रहैरेकगैरेकस्थानगतै बहुवचनात् त्रिचतुः प्रभृतिभिर्लग्नेन्दू यदि दृष्टौ तदा सजने जनाकुले स्थाने जन्म । वाथवेन्दौ चन्द्रेऽङ्गगे लग्नगे नीचे वृश्चिकस्थे वा सति, वाथवा सिंहलग्ने सति नोचे वृश्चिकस्थे वा सति, अम्बुगे चतुर्थस्थे चन्द्र भूगतौ भूमिगतः प्रसवः । अथवा नीचैग्रहैस्त्र्याय॑स्त्रिप्रभृतिभिर्भूमिसुप्ताया जातः ॥१२॥ - एक स्थान में तीन चार ग्रह रहे हों, ये यदि लग्न और चंद्रमा को देखते हों तो मनुष्यवाले स्थान में जन्म कहना और लग्न और चंद्रमा को देखते न हों तो निर्जन स्थान में जन्म कहना। अथवा चंद्रमा लग्न में या वृश्चिक राशि में हो, अथवा सिंह लग्न में हो, अथवा वृश्चिक राशि का चंद्रमा चौथे स्थान में हो तो भूमि पर जन्म कहना। अथवा तीन या अधिक ग्रह नीच राशि के हों तो भूमि पर जन्म कहना ॥१२॥ अथोद्योतसंभवे प्रसवस्थानप्रदेशज्ञानमाह आरेक्ष्येऽर्के बले दीपः कृतस्तार्णोऽबलैः परैः । स्थानेऽङ्गांशसमे स स्याच्चरे मार्गे स्थिरे गृहे ॥१३॥ अर्के आरेक्ष्ये कुजदृष्टे बले बलिष्ठे सति दीपः कृतः कथ्यः । परमपरै रविकुजरहितैरबलैनिर्बलैः कृत्वा किंविशिष्टस्तार्णः तृणानामयं तार्णः, तृणानि प्रज्वाल्य दीपः कृतः इत्यर्थः। स प्रसवः क्वस्थानेऽङ्गांशसमे स्यात् ? परं पूर्वोक्तयोगाभावे सति अङ्गच अंशश्च अङ्गाशौ तयोर्मध्याद् यस्य राशिर्बली तस्य राशेः प्राणी यत्र सञ्चरति, तस्य समे सदृशे स्थाने प्रसवोऽभूत् । यदि स चरस्थिर द्विस्वभावानां राशिस्वांशगतो भवेत् तदा स्वमन्दिरे । चरे चरलग्ने चरांशे गृहाच्चलितस्य मार्गे जन्म। स्थिरलग्ने स्थिरांशे वा गृहे जातः । अर्थान्तराच्चरलग्नं चरांशो वा तस्य लग्नांशस्य राशिरूपो यः प्राणी स यत्र सञ्चरति तत्र जन्म वेद्यम् ।।१३॥ बलवान् सूर्य को मंगल देखता हो तो जन्म समय दीपक था। परन्तु अन्य निर्बल ग्रह बलवान् सूर्य को देखते हों तो तण आदि का दीपक था। लग्न का नवमांश यदि चर राशि का हो तो रास्ते में जन्म, स्थिर राशि का हो तो अपने घर में और द्विस्वभाव राशि का "Aho Shrutgyanam" Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय कल्लोलः हो तो अन्य स्थान में जन्म कहना। जहां लग्न के नवमांश की राशि के सदृश प्राणी विचरते हों ऐसे स्थान में जन्म कहना ॥१३॥ अथ प्रसवकालशुभाशुभज्ञानमाह शीर्षपृष्ठोभयाङ्गस्य शीर्षपादकरैः क्रमात् । प्रसव: सुख मिष्टेक्ष्ये पापदृष्टे तु कष्टतः ॥१४॥ अस्य जातस्य क्रमाच्छीर्षपृष्ठोभयाङ्ग शीर्षपादकरैः प्रसवो वाच्यः । तद्यथा-शीर्षाङ्ग शीर्षोदयलग्ने सिंहकन्यातुलावृश्चिक कुभमिथुनानामेक तमे लग्ने शिरसा प्रसवः । उत्तानोदरायां गभिण्यां गर्भमोक्ष इत्यर्थः । अथ पृष्ठाङ्गे पृष्ठोदयलग्ने मेषवृषकर्कधन्विमकरणामेकतमे लग्ने अधोमुखायां पृष्ठं दशयन्त्यां पादाभ्यां जातः । अथोभयाङ्ग मीनलग्ने कराभ्यां हस्ताभ्यां जन्माभूत् । यत्र तत्र लग्ने इष्टेक्ष्ये शुभे दृष्टे सुखं सुखेन प्रसवः । तु पुनः पापदृष्टे लग्ने कष्टतोऽभूत् । प्रश्नकाले तु ईदृशः प्रसवो भविष्यतीति वाच्यम् । अन्यशास्त्राद् लग्नाधिपोऽ शाधिपो वा लग्नस्य कोऽपि वा ग्रहो वक्री भवति तदा वैपरीत्येन सक्लेश! प्रसवः स्यात् ।।१४|| सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, कुभ और मिथुन इन शीर्षोदय राशियों में से कोई एक राशि का लग्न हो तो बालक का जन्म मस्तक से होना कहना। तथा मेष, वृष, कर्क, धनुः और मकर पृष्टोदयराशि का कोई एक लग्न हो तो बालक का जन्म पैर से होना कहना। एवं उभयोदय मीन राशि का लग्न हो तो हाथ से जन्म कहना । लग्न को शुभग्रह देखते हों तो सुखपूर्वक प्रसव और पापग्रह देखते हों तो कष्टपूर्वक जन्म कहना। अन्य ग्रथ में कहा है कि-लग्न का स्वामी या लग्न के नवांश का स्वामी या लग्न में रहा हुया कोई भी ग्रह वक्री हो तो कष्ट से जन्म कहना ॥१४॥ अथ सूतिकागृहज्ञानमाह जीर्ण जीणं नवं दग्धं विचित्रं दृढमुत्तमम् । बलिष्ठे यमतो गेहं प्रतिवेश्योपगैस्तथा ॥१५॥ सर्वे ग्रहे व्योमगे बलिष्ठे यमतः शनितः क्रमेण गेहं कथ्यम् । तद्यथा-बलिष्ठे यमे शनौ जीर्णं पुराणकाष्ठसुसंस्कृतं भूयः कारितं । रवौ बलिष्ठे सति गृहं जीर्ण असारकाष्ठाढय दारुबहुलं च । एवं चन्द्र शुक्लपाक्षिके नवं नूतनं लिप्तं च । एवं कुजे दग्धं ज्वलितं । बुधे बहुशिल्पीयं बहुसुत्रधारकृतं । जीवे दृढं निबिडं चिरन्तनम् । शुक्रे उत्तमं श्रेष्ठं चित्रयुक्तं च गेहं कथनीयम् । येन ग्रहेण गृहस्वरूपमुक्तम्, तस्योपगमे पार्श्वस्थे गृहे गृहस्याग्रतः पश्चाद् वा गते यमतः जीर्ण "Aho Shrutgyanam" Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जन्मसमुद्रः जीर्णेत्यादिना प्रतिवेश्म कथनीयम् । अन्यशास्त्रालग्नस्थे वा चतुर्थस्थे वा ग्रहे पूर्वोक्तप्रकारेण गृहं कथ्यम् । अथ गुरौ कर्कस्थे परमोच्चांशभ्रष्टे दशमगते द्विभूमिकम् । उच्चभागेभ्योऽर्वास्थिते त्रिशालं उच्चभागस्थं चतुर्भूमिकगृहम् । अथ गुरौ धनुषि सबले दशमस्थे त्रिशालम् । अथ मिथुनकन्यानामेकतमे दशमस्थे गुरौ द्विशालम् । अत्र जन्मसमुद्र गुरुतः सविशेषं गृहस्वरूपं नोक्तम्, यतः स्वयंकृत जन्मप्रकाशमध्ये कृतमस्ति । तद्यथा-"गुरावुच्चे च खे द्वयादिभूमिकं गृहमीर्यते । बलिन्यस्ते त्रिशालं तु द्विशालं यमले च भे" येन ग्रहेण गृहनिशः कृतः। ततो द्वादशं गृहस्य पश्चिमं स्थानं ततो द्वितीयं गृहांगणं ज्ञेयम् । तत्रस्थेन ग्रहेण तत्रस्थमभिज्ञानं कथ्यम् । तद्यथा-तत्रगते सूर्ये निम्बपिप्पलवटादयोऽन्तः साराः परुषा दुर्गोद्भवाश्च । चन्द्र कूपवापीवाटिकादिजलहरणस्थानं क्षीरफलयुतो वृक्षो वा, भौमे शमी बबूल बदरो वाउलो प्रभृतिकण्टकवृक्षाः। बुधे उत्करवती पुजस्थानं निष्फला वृक्षाः । गुरौ देवगृह सफलो वृक्षः । शुक्रे चन्द्रवज्जलस्थानं पुष्पफलयुतो वृक्षो वा। एवं शनौ राहौ च गर्ताः। तेन ग्रहेण सर्वमिदं पुस्त्रीनामक कथ्यम् । तेन नीचस्थेन शत्रुक्र्रराशिस्थेन शुष्कं भग्नं कुरुपं पूर्वोक्त वाच्यम् । शुभे शुभदृष्टे स्वः उच्चे परमोच्चे उदिते पुष्ठं श्रेष्ठमभग्नं वाच्यम् । एतदभिज्ञानादिकं स्वकीय जन्मप्रकाशादानीय व्याख्यातम् ।।१५।। दश स्थान में जो बलवान ग्रह हो उसके अनुसार गृहस्थिति कहना । जैसे-बलवान शनि हो तो जीणं लकड़ी के घर में, रवि बलवान हो तो जीर्ण घर में, चन्द्रमा बलवान हो तो नवीन घर में, मंगल बलवान हो तो जले हुए घर में, बुध हो तो चित्रविचित्र घर में, गुरु हो तो मजबूत घर में और शुक्र बलवान हो तो उत्तम घर में जन्म कहना। अपना जन्म प्रकाश ग्रंथ में कहा है कि-उपरोक्त फल कोई बलवान ग्रह लग्न में या चतुर्थ स्थान में रहा हो तो जानना, गुरु कर्क राशि में हो परन्तु उच्च प्रश का न हो और दशवें स्थान में रहा हो तो दो मजला मकान, उच्चांश के पूर्वाद्ध में हो तो तीन मंजला वाला और परम उच्च का हो तो प्रसुति मकान चार मजलावाला कहना । धनराशि का गुरु बलवान होकर दशव स्थान में रहा हो तो जन्म स्थान तीन शाला वाला था । मिथुन या कन्या का गुरु यदि दशम स्थान में रहा हो तो दो शालावाला मकान कहना । जिस ग्रह से घर का निर्माण किया हो उसके बारहवें स्थान से पश्चिम भाग और दूसरे स्थान से घर का अंगन जानना। इसमें यदि बलवान सूर्य हो तो उस स्थान पर निब, पिप्पल, वड़ आदि के वृक्ष है। चंद्रमा हो तो कुप्रां, बावड़ी बगीचा आदि जलस्थान या दूधवाले फली वृक्ष कहना। मंगल हो तो शमी बकुल और बोर आदि कांटेवाले वृक्ष कहना। बुध हो तो बिना फल के वृक्ष कहना। गुरु हो तो देवघर या फलवाले वृक्ष कहना। शुक्र हो तो अच्छे जलवाला स्थान तथा पुष्प और फलवाला स्थान कहना। शनि या राहु हो तो वह स्थान खड्ड वाला कहना। उपरोक्त ग्रह यदि नीच "Aho Shrutgyanam" Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय कल्लोलः राशि के या शत्रुराशि के क्रूरराशि के हों तो सूखा हुआ, फटा हुआ या कुरूप वृक्ष कहना । किन्तु शुभग्रह देखते हों, अपनी राशि के हों या उच्च के या परमोच्च के हों तो श्रेष्ठ वृक्ष कहना । इस प्रकार का ज्ञान यह ग्रंथकर्ता के बनाये हुए जन्मप्रकाश ग्रंथ में कहे हैं ॥ १५ ॥ अथ गृहद्वार दीपस्थानयोर्ज्ञानमाह - २७ द्वारं केन्द्रस्थदिक्पाद्वाङ्गभाद् वा द्वादशांशभात् । यद्दिपसार्कभाद् दीपश्चलादिश्वरभादिकात् ॥ १६ ॥ द्वारं केन्द्रस्थदिक्पाद्वाच्यं, लग्नं गृहं सप्तमं द्वारं, तत्र यो ग्रहो दिक्पतिः सबलस्तस्य या दिक् तदभिमुखं द्वारम् । अथ केन्द्रस्थाः केन्द्रगता ये ग्रहा बलिनोऽपि तेषां मध्ये यो बलवान् स दिक्पो यां दिशं पातीति यद्दिक्पः तन्नाथस्तस्मात् तस्या दिशः सम्मुखः सुतिकागृहद्वारमित्यर्थः । सूर्य शुक्रकुज राहु शनि चन्द्रबुधगुरवः पूर्वादिदिशां क्रमेण स्वामिन उक्ताः । अथवा पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरदिशां नाथा - बुधगुरु कुजाक शनिः शशिशुको क्रमेण ज्ञेयौ । केन्द्रस्थ ग्रहाभावे सति वाथवांगभात् लग्नराशितः । लग्नराशेर्या दिक् तस्या अभिमुखं द्वारं कथनीयम् । यथा - मेषसिंह धनुर्लग्नानां मध्यादेकतमे लग्ने पूर्वाभिमुखं द्वारम् । वृषकन्यामकराणामेकतमे लग्ने दक्षिणस्या; मिथुन तुला कुम्भानामेकतमे लग्ने पश्चिमायाः, कर्कवृश्चिकमीनानामेकतमे लग्ने उत्तरस्याः सम्मुखं द्वारं तत्र लग्ने बले सति । वाथवा द्वादशांशभावलग्ने यो द्वादशांशस्तस्य यद्भ राशिस्तस्य या दिक् तदभिमुखं द्वारं पूर्ववत् । शास्त्रान्तराद् मेषतुलावृश्चिककुम्भानामन्यतमे लग्नेऽशे वा सति पूर्वस्याः संमुखम् । धनुर्मीनमिथुन कन्यानामन्यतमे लग्नेंऽशे वा उत्तराभिमुखं वृषलग्ने वृषांशे वा पश्चिमस्याः, सिंहमकरयोर्लग्नेंऽशे च दक्षिणस्याः संमुखम् । ग्रथ यद्दिक्पो या दिशं पातीति यद्दिक्पो यस्या दिशः पतिः सार्कभं प्रर्केण सह वर्त्तते यद्भ राशिस्तस्माद् दीपः । किं विशिष्टश्चलादिः किं विशिष्टाच्चरभादिकाद् वाच्यः । तद्यथा – यत्र राशौ रविः स यस्या अधिपतिस्तस्य या दिक् तस्यां दिशि दीपः । राशिः पूर्ववत् । तद्यथा - मेषसिंहधनुषां राशौ गते पूर्वस्यां दीपः, इत्थमेव शेषदिक्षु ज्ञेयम् । अथ शास्त्रान्तराद् मेषवृषस्थे वाकेँ पूर्वस्यां दीपो, मिथुनस्थेऽर्के श्राग्नेयकोणे, कर्कसिंहस्थेऽर्के दक्षिणस्यां कन्यायां नैर्ऋतौ तुलावृश्चिकस्थे पश्चिमायां धनुर्गते वायव्ये, मकरकु भस्थे उत्तरस्यां मीनस्थे ईशान कोण दीपोऽभूदिति कथनीयम् । यत्र राशौ दोपः स यदि चरस्तदा हस्तधृतोऽभूत् । यदि स्थिरस्तदैकके प्रालके दीपिकायां वा भवेत् । स यदि द्विस्वभाव राशिस्तदाचालितः प्रतिष्ठितोऽवलंबितो दीपः कथ्यः ।। १६ ।। "Aho Shrutgyanam" Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः केन्द्र में रहे हुए ग्रहों में से जो ग्रह बलवान् हो, वह दिशा का अधिपति जानना । यह जिस दिशा का पति हो उस दिशा में सुतिका के घर का द्वार कहना। सूर्य शुक्र मंगल राहु शनि चंद्रमा बुध और गुरु ये क्रम से पूर्वादिदिशा के अधिपति हैं। अथवा पूर्वदिशा का बुध और गुरु, दक्षिण का मंगल और रवि, पश्चिम का मकर शनि और उत्तर का शुक्र और चंद्रमा स्वामी हैं। केन्द्र में यदि कोई ग्रह न हो तो लग्न की राशि की दिशा से सुतिका के घर के द्वार का निर्णय करना। जैसे लग्न यदि मेष सिंह या धन राशि का हो तो पूर्वाभिमुख, वृष कन्या या मकर का हो तो दक्षिणाभिमुख, मिथुन तुला या कुभ का हो तो पश्चिमाभिमुख और कर्क वृश्चिक या मीन राशि का हो तो उत्तराभिमुख द्वार कहना। अथवा लग्न के द्वादशांश की राशि की दिशा में द्वार कहना। अन्य शास्त्रों में कहा है कि-मेष तुला वृश्चिक या कुम्भ का द्वादशांश हो तो पूर्वाभिमुख धन मीन मिथुन या कन्या का द्वादशांश हो तो उत्तरमुख, वृष लग्न हो या वृष का द्वादशांश हो तो पश्चिममुख और सिंह या मकर का द्वादशांश हो तो दक्षिण द्वार कहना । सूर्य जिस राशि पर हो उसी राशि की दिशा में दीपक कहना। अन्य शास्त्र में कहा है कि-मेष या वृष का सूर्य हो तो पूर्व दिशा में, मिथुन का सूर्य हो तो अग्नि कोण में, कर्क या सिंह का सूर्य हो तो दक्षिण में, कन्या का सूर्य हो तो नैऋत्य में, तुला या वृश्चिक का सूर्य हो तो पश्चिम में, धन का सूर्य हो तो वायव्य कोण में, मकर या कुम्भ का सूर्य हो तो उत्तर में और मीन का सूर्य हो तो ईशान कोण में दीपक कहना । सूर्य यदि चर राशि का हो तो किसी के हाथ में दीपक कहना । स्थिर राशि का हो तो किसी स्थान पर स्थिर रखा हया कहना और द्विस्वभाव राशि का हों तो चलायमान धारण किया हुआ दीपक कहना ॥१६॥ अथ दीपवत्तितैलास्तित्वयोनिमाह लग्नादि मध्यान्ते दग्धाङ्गवर्णां वत्तिकाऽध्वना । सम्पूर्णादौ तु राश्यादौ चन्द्र तैलभृतादिकः ॥१७॥ दीपस्य वत्तिका वत्तिरध्वना मार्गेण लग्नादिमध्यान्त्ये सति दग्धा कथ्या । तद्यथा-जन्मकाले लग्नादौ लग्नस्यादौ धुरि मुखे दग्धाऽल्पदग्धेत्यर्थः । लग्नस्य मध्येऽर्द्ध दग्धा, लग्नस्यान्तेऽवसाने सर्वदग्धावत्तिः । सा कीदृशीवत्तिः ? अङ्गवर्णा अङ्ग लग्नं तस्य वर्णो यस्याः सांगवर्णा । तद्यथा-रक्तश्वेत हरित्ताम्र धूम्रपाण्डुर विचित्रभाः, कृष्णसूवर्णपोतधूम्रपिंगा वर्णा अजादितः । इत्थं राशिवर्ण उक्तः । स दीपस्तैलभृतादिकोऽध्वना मार्गेण कथ्यः। चन्द्र पूर्णादौ पूर्णतैलभृतो दीपः । आदितः आदि शब्दान्मध्यपूर्णेऽर्द्ध भृतः । क्षीणे चन्द्रऽल्पतैलः । यद्यैवं व्याख्यातं, ततो यद्यमावास्यायां जन्मान्धकारे स्यात् तन्न घटते । यतोऽयुक्तमिदमत्रार्थे समाधानमवधार्यताम् । तु पुनश्चन्द्र राश्यादौ सति तैलभृतादिकः कल्प्पः । तद्यथा-यत्र तत्र राशौ चन्द्र राश्यादिस्थे तैलपूर्णो दीपः, राशिमध्येऽर्द्ध पूर्णः, राशिप्रान्त्ये क्षीणतैलो दीपो वाच्यः ।।१७।। "Aho Shrutgyanam" Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय कल्लोलः २६ जन्मलग्न के जितने अंश व्ययतीत हो गये हों उतनी बत्ती जल गई कहना। अर्थात् लग्न की प्रादि में बत्ती का मुख, मध्य भाग में प्राधी और लग्न के अन्तिम भाग हो तो पूर्ण बत्ती जली हुई कहना। लग्न की राशि के वर्ण सदृश बत्ती का रंग कहना । लाल १, सफेद २. हरा ३. तांबे के सदृश ४,धुपा के सदृश ५, पांड्रवर्ण ६. अनेक प्रकार का वर्ण ७, काला, सुवर्ण ६, पीला १०. धुपा ११ और पीत १२ । ये मेष आदि बारह राशियों के वर्ण हैं। पूर्ण चन्द्रमा हो तो दीपक में पूर्ण तेल कहना । मध्य चंद्रमा हो तो प्राधा तैल और क्षीण चंद्रमा हो तो अल्प तेल कहना। यह योग कृष्णपक्ष में अमावास्या आदि में नहीं बन सकता, जिसे चंद्रमा जिस राशि के हो उसके बीते हुए अंशों के अनुसार तेल कहना। चंद्रमा यदि राशि की प्रादि में हो तो पूर्ण तैल, मध्य में हो तो प्राधा और अंत में हो तो थोड़ा तेल कहना ॥१७॥ अथ भुतिकासंख्या स्वरूपादिज्ञानमाह यावन्तः शशिलग्नान्त-ग्रहास्तत्संख्यसूतिका: । मध्येऽद्ध मध्यगा बाह्य बाह्यास्तत्समलक्षणाः॥१८॥ ग्रहा यावन्तो यावत्संख्या शशिलग्नान्तः शशिलग्नयोरन्तर्मध्ये भवन्ति, तत्संख्या सूतिकास्तेषां संख्यया संख्या यासां तावत्संख्या सूतिकाः समीपस्थाः स्त्रियो वाच्याः । द्वित्रिचितुःपञ्चषष्ठसप्तमराशयो लग्नस्यानुदिता भावाः, एतेऽदृश्यं नाम मध्यवामार्द्ध दक्षिणांगं नाम चोत्तरसंज्ञं च द्वितीयं नाम । तत्रस्थैमध्याई स्थितैर्मध्यगा गृहमध्यगा वाच्या: । अष्टमधर्मकर्मलाभव्यया लग्नस्योदिता भागाएते दृश्यादृश्यं नाम वामदक्षिणसंज्ञा च। लग्नस्य वामांगं नामाद्ध बाह्य तत्रस्थैर्वाह्य ऽद्ध स्थितर्बाह्याः गुविण्या वामभागगता कथ्याः। ये लग्नस्यामुदितभावास्ते सप्तमराशेरुदितभावाः। तथा ये लग्नस्योदितभागास्ते सप्तमराशेरनुदित भावा ज्ञेयाः । किं विशिष्टास्तास्तत्सम लक्षणास्तेषां ग्रहाणां समानि लक्षणानि यासां ता जातिरूपवयोवर्णधातु लक्षणाभरणानि, तासां तेभ्यो ग्रहेभ्यो वाच्यानीत्यर्थः । अय लग्नात् षष्ठं यावन्मध्यमद्धम् । सप्तमाद् व्ययं यावद् बाह्यमद्ध ज्ञेयम् । क्रूरैस्तत्रार्द्ध स्थितैविरूपा मलिना निर्लक्षणा रौद्राऽभाग्याः। शुभैः सुरूपा गौराः साभरणा धामिका वाच्याः ।।१८।। चंद्रमा और लग्न के मध्य में जितने ग्रह हो, उतनी संख्या तुल्य सुतिका स्त्रियें कहना। लग्न से सातवां स्थान तक जितनी ग्रह संख्या हो उतनी स्त्रियां भीतर थी। और पाठ से बारहवाँ स्थान तक जितने ग्रह हों उतनी स्त्रियां बाहर थीं एसा कहना । अथवा दाहिनी तथा बांयी ओर थी ऐसा करना। उनका जाति रूप वयः वर्ण आदि ग्रहों के अनुसार कहे । यदि पाप ग्रह हो तो वेडोल (कुरूप) मलिन कुलक्षणी क्रोधी और अभागिनी कहना । यदि शुभ ग्रह हो तो स्वरूपवती गौरी शृगारवाली और धार्मिक स्त्रिये कहना ॥१८॥ "Aho Shrutgyanam" Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः अथ खट्वास्वरूपं पुत्राकारवर्णयोनिमाह आपोक्लिमैः शय्यापादा रम्या भग्नाः शुभाशुभैः। लग्नांशपाकृतिः पुत्रो वर्णो राश्यंशपोपमः ॥१६॥ शय्यापादाः खट्वापादाः, लग्नादापोक्लिमैः स्थानैस्तृतीयषष्ठनवमव्ययैः कृत्वा पादा वाच्याः । लग्नधने शीर्षोपलम्, चतुर्थपञ्चमौ दक्षिणा ईशा । सप्तमाष्टमौ पादोपलम् । दशमैकादशौ वामा ईशा। द्वादशतृतीयौ शीर्षपादौ, षष्ठनवमौ पादान्तपादौ। तत्र द्वादशो मस्तकस्य वामपादः । तृतोयो दक्षिणः पादः, पादान्तस्य षष्ठो दक्षिणः पादः, नवमो वामपादः । तत्र तत्र गतैः शुभै रम्याः, अशुभैर्भग्ना विरूपा: पादादिकाः कल्प्याः परं यदि क्रूरास्तत्र तत्रोच्चमूलत्रिकोणमित्रस्वराशिगा भवन्ति तदा न भग्नाः । अथ लग्नांशपाकृतिरिति । लग्नस्य यो अंशपस्तं पातीति लग्नांशपः, तदंशनाथस्तद्वदाकृतिराकारो यस्य स पुत्रः तस्य च वर्णो राश्यंशोपमः। यत्र तत्र राशौ चन्द्रस्तस्य राशेर्योशो नवांशस्तं पातोति राश्यंशपस्तस्य नाथस्य उपमा सादृश्यं यस्य तत्सदृश इति । तद्यथा-'रक्तो गौरोऽरुणो नीलो वक्रः शुभ्रोऽसितोऽर्कतः'। इति वर्ण उक्तः । तीसरे छठे नववें या बारहवें स्थान में शभ ग्रह हों तो शय्या के पाये श्रेष्ठ कहना और पापग्रह हो तो खराब कहना। लग्न और दूसरा स्थान पलंग की ईश (मस्तक भाग के नीचे की लकड़ी), चौथा और पांचवां स्थान दाहिने ओर की ईश, सातवां और आठवां स्थान पैर तरफ की ईश, दशवां और ग्यारहवां स्थान वांयें ओर की ईश, बारहवां और तीसरा स्थान मस्तक तरफ के दो पाये, छठा और नववां स्थान पर की तरफ के दो पाये, बारहवां स्थान पलंग के ऊपर का बायां पाया, तीसरा स्थान दाहिना पाया, छठा स्थान नीचे वाला दाहिना पाया और नववां स्थान नीचे वाला बायां पाया जानना। इनमें जहां अशुभ ग्रह हो तो वे टूटे हुए, बेडोल पाये या ईश जानना। यदि शुभ ग्रह हो तो सुन्दर अच्छा जानना। यदि क्र र ग्रह उच्च के मूल त्रिकोण के मित्रग्रह के या स्वराशि के हों तो अच्छे पाये प्रादि कहना। लग्न का जो नवमांश हो उसी के स्वामी के अनुसार बालक की प्राकृति आदि कहना। अथवा चंद्रमा का जो नवमांश हो उसी के स्वामी के अनुसार शरीर की प्राकृति आदि कहना ॥१६॥ प्रथ जातः सन मात्रा त्यज्यते म्रियते च जीवति च यथा तज्ज्ञानमाह एकस्थाारयोः कोणेऽस्ते वाब्जे त्यज्यतेऽम्बया। जीवेक्ष्येऽन्यकरस्थोऽपि जीवेन्नारिवीक्षिते ॥२०॥ एकस्थाारयोरेकस्थौ एकराशिस्थौ यो आारौ शनिकुजौ तयोः कोणे नवमस्थे पञ्चमस्थे वा, चशब्दादस्ते सप्तमस्थेऽब्जे चन्द्रेऽम्बया मात्रा त्यज्यते "Aho Shrutgyanam" Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय कल्लोल ३१ जातः सन् मुच्यत इत्यर्थः। चन्द्र जीवेक्ष्ये गुरुदृण्टेऽन्यकरस्थः सन् जोवति सुखी दीर्घायुश्च स्यात् । अपि शब्दात् पुनश्चन्द्र पारार्कवीक्षिते यो जातः स त्यक्तः सन् जीवति ॥२०॥ एक राशि में रहे हए शनि और मंगल से नववें पांचवें या सातवें स्थान में चंद्रमा रहा हो तो जन्मा हग्रा बालक माता से छोडा जाय । उपरोक्त योग होने पर यदि चंद्रमा को गुरु देखता हों तो माता से छोड़ा हया बालक दूसरे हाथ से पाला जाय और सुखी तथा दीर्घायु होवे। उपरोक्त योग होने पर चन्द्रमा को सूर्य और मंगल देखते हों तो माता से छोड़ा हुआ बालक जीवित रहता है ॥२०॥ अथ योगान्तरमाह लग्नेऽब्जेऽर्केण मन्देन वा दृष्टेऽस्ते कुजे मृतिः । योगेऽस्तायगयोराारयोस्त्यक्तो विनश्यति ॥२१॥ अब्जे चंद्रे लग्ने लग्नस्थेऽर्केण, वाऽथवा मन्देन शनिना दृष्टे, अस्ते सप्तमस्थे कुजे त्यक्तस्य मृतिर्भवति । लग्नस्थे चद्रऽर्केण दृष्टे सतोति योगे आारयोः शनिकुजयोरस्तायगयोः सप्तमलाभयोरेकतमस्थयोर्मात्रा विमुक्तो विनश्यति । एषो द्वितीयो योगः ॥२१॥ लग्न में रहा हया चंद्रमा को सूर्य या शनि देखते हों और सातवें स्थान में मंगल बैठा हो तो बालक माता से छोडा जाय और मर जाय ११ अथवा लग्न में रहा हुया चंद्रमा को सूर्य देखता हो तथा शनि और मंगल सातवें या ग्यारहवें स्थान में रहे हों तो बालक माता से छोडा जाय और मर जाय २ ॥२१॥ अथ तज्जीवननाशनयोर्योगमाह यद्वर्णेशशुभेक्ष्येऽब्जे जीवेत्तद्वर्णहस्तगः । वेष्टेन वाकिरणा दृष्टे नश्येत् तत्करतः स च ॥२२॥ अब्जे चंद्र लग्नस्थे यद्वर्णेशशुभेक्ष्ये यस्य वर्णस्य विप्रक्षत्रियवैश्यशूद्राणामोशः स्वामी यः शुभग्रहः सबलस्तेनेक्ष्ये दृष्टे तद्वर्णहस्तगतस्तस्य विप्रादिवर्णस्य हस्तगतो जीवेत् । वाथवा च शब्दाच्चन्द्र लग्नस्थे इष्टेन शुभेन पाकिणा शनिना च दृष्टे, शुभशन्योर्मध्याद् यो बलवान् तत्करतस्ताहग्वर्णहस्तगतः सन्नश्येत् ॥२२॥ लग्न में रहे हुए चंद्रमा को कोई बलवान शुभ ग्रह देखता हो वह ग्रह जिस वर्ण (जात) का हो, उसी जाति वाले के हाथ से माता से छोडा हुअा बालक जीवे। अथवा लग्न में रहा हुआ चंद्रमा को कोई शुभ ग्रह और शनि देखते हों, उनमें से जो बलवान हो उसी जाति वाले के हाथ से बालक का नाश होगा ॥२२॥ "Aho Shrutgyanam' Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जन्मसमुद्रः अथ तन्मरणतज्जीवनतन्मातृपितृमृत्युरोगव्याधियोगानाह वेज्यादृष्टे सितज्ञेक्ष्ये व्यसुमिश्रेक्षिते न सः । सेन्दुग्रेऽस्ताम्बुगेऽम्बाया वांगेऽब्जेऽस्ताष्टगाधमैः ॥२३॥ वाथवा चन्द्र लग्नस्थे इज्यादृष्टे जीवेनादृष्टे सितज्ञेक्ष्ये शुक्रबुधदृष्टे सति स व्यसुः, विगता असवः प्राणा यस्य स व्यसुः, म्रियते तत्पाणिगत इत्यर्थः। एवं चंद्र मिश्रेक्षिते पापशुभदृष्टे पापशुभानां मध्याद् यो बली तत्करस्थो न व्यसुः स जीवेदित्यर्थः। एषु योगेषु गते चंद्रे जीवदृष्टे जीवति। जीवेनादृष्टे म्रियते यतो विप्रक्षत्रादिवर्णसंकरादिषु जीवमाना म्रियमाणाश्च दृश्यन्ते । अथाब्जे चंद्र सेन्दुग्रे इन्दुना सह वर्त्तते य उग्रः पापः स सेन्दूग्रस्तत्र सपापे चंद्रे अस्ताम्बुगे सप्तम चतुर्थयोरेकतमस्थेऽम्बामनिष्टं मातृपीडाप्रसवकालेऽभूत् । वाथवा अब्जे चंद्र अंगे लग्नस्थे अस्ताष्टाङ्गाधमैः, अस्तं सप्तमं अष्टशब्देनाष्टमं तत्र गता ये अधमाः पापास्तैः कृत्वा पुत्रेण सह मातृपीड़ा ॥२३॥ लग्न में रहा हुआ चंद्रमा को गुरु देखता न हो, परंतु बुध और शुक्र देखते हों तो बालक मर जाता है। एवं लग्न में रहा हुप्रा चंद्रमा को पाप और शुभ दोनों ग्रह देखते हों, इनमें से जो ग्रह बनवान हो उमी जाति वाले के हाथ से बालक जोवित रहता है। इन योगों में चन्द्रमा को गुरु देखता हो तो बालक जीवे और गुरु न देखता हो तो मरे ऐसा कहना । पापग्रहों के साथ चंद्रमा चौथे या सातवे स्थान में रहा हो तो जन्म के समय माता को कष्ट होता है । अथवा लग्न में चंद्रमा हो तथा सातवें और पाठवे स्थान में पाप ग्रह रहे हों तो जन्म समय पुत्र और माता को कष्ट होता है ॥२३॥ अथ योगान्तरमाह काब्जेऽम्बा म्रियते सोने पितार्के मिश्रगे सरुक् । कोणे वाब्जाद् यमे वार्के मातुलो वा कुजे सितात् ।।२४॥ काब्जः कुत्सितोऽब्जः काब्जस्तस्मिन् क्षीणेन्दौ सोने सपापे अम्बा माता म्रियते । अर्के पापयुक्ते पिता म्रियते । अथ कुचंद्र मिश्रगे पापशुभयुते माता सरुक् सरोगा। एवमर्के मिश्रगे पिता सरुक् । अर्थान्तराच्चंद्रे बलिभिः पापैदृ ष्टे माता स्रियते। एवं रवौ पिता स्रियते। एवं रवौ चंद्र वा मिश्रदृष्टे सति व्याधिस्तयोः क्रमेण कथ्यः। चंद्रे रवौ शुभैदृ ष्टे तयोः शुभं भवति । अथाब्जात् चंद्राद् यमे शनौ सोने सपापे कोणस्थे नवमस्थे पंचमस्थे वाऽम्बा म्रियते रात्रौ। वाथवार्के कोणगे चंद्रान्मातुलो म्रियते। सिताच्छुक्रात् कोणगे कुजे पापैदृ ष्टे युते वाऽम्बा विनश्येत् दिवा। शास्त्रान्तरात्-चंद्रात् सप्तमस्थैः पापैर्माता म्रियते। चंद्रादष्टमेऽर्के सपापे माता मातुलो वा म्रियते ॥२४॥ "Aho Shrutgyanam". Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय कल्लोलः ३३ क्षीण चन्द्रमा के साथ पाप ग्रह हो तो माता की मृत्यु और सूर्य पाप ग्रह के साथ हो तो पिता की मृत्यु कहना । क्षीण चंद्रमा यदि मिश्र (पाप और शुभ) ग्रहों के साथ हो तो माता को रोग और सूर्य यदि मिश्र ग्रहों के साथ हो तो पिता को रोग कहना। परन्तु चंद्रमा और सूर्य को शुभ ग्रह देखते हों तो शुभदायक कहना। चंद्रमा से नवें या पांचवें स्थान में पाप ग्रह के साथ शनि रहा होतो माता की मृत्यु रात्रि में होगी। अथवा चंद्रमा से नवें या पांचवें स्थान में पाप ग्रह के साथ सूर्य हो तो मामा की मृत्यु कहना। शुक्र से नवें या पांचवें स्थान में मंगल हो उसको पाप ग्रह देखते हो या उसके साथ हो तो माता की मृत्यु दिन में कहना। अन्य शास्त्र में कहा है कि--चंद्रमा से सातवें स्थान में पाप ग्रह रहे हों तो माता की मृत्यु कहना। चंद्रमा से पाठवें स्थान पर पाप ग्रह के साथ सूर्य रहा हो तो माता की या मामा की मृत्यु कहना ॥२४॥ अथ शरीरानोत्पत्तिस्थानान्याह काक्षिकर्णनसागल्लहन्वास्यान्युभयौ स्तनौ । कण्ठस्कन्धभुजापावहृदयक्रोडनाभयः ॥२५॥ बस्तिलिङ्गगुदाण्डोरु-जानुजङ्घाक्रमः क्रमात् । द्रेष्काणरस्य वाङ्गानि प्राहुर्दक्षिणवामयोः ॥२६॥ जनो जन्मकाललग्नस्य द्रेष्काणैस्त्रिभिरुभयोर्द्व योर्दक्षिणवामसंज्ञयोरस्य बालस्याङ्गानि देहावयवान् लग्नात् क्रमादाहुः कथयन्ति कल्प्यानीत्यर्थः । धनादिसप्तमं यावद् दक्षिणोऽष्टमादिलग्नं यावद् वामो भागः कल्पनीयः । तद्यथाकाक्षीति लग्नस्य प्रथमे द्रेष्काणे सति लग्नं कं मस्तकम्, धनव्ययौ अक्षिणी चक्षुषी, तृतीयलाभौ कणौं, चतुर्थदशमौ नासापुटे, पञ्चमनवमौ गल्लौ कपोलौ, षष्टाष्टमौ हनू चिबुके, सप्तममास्यं मुखं ज्ञेयम् । अथ लग्नसद्वितीयद्रेष्काणे कण्ठस्कन्धभुजादीनि । लग्नं कण्ठो गलः, धनव्ययौ स्कन्धौ, तृतीयलाभौ भुजौ, चतुर्थदशमौ पार्वे कुक्षी, पञ्चमनवमौ हृदयभागौ, षष्ठाष्टमौ क्रोड-उदरभागौ, सप्तमं नाभिः । अथ लग्नस्य तृतीयद्रेष्काणे बस्तिलिङ्ग इति । लग्नं बस्ति भिलिङ्गयोर्मध्यभागः । धनव्ययौ लिङ्गगुदे, तृतीयलाभावण्डौ वृषणौ, चतुर्थदशमौ ऊरू, पञ्चमनवमौ जानुनी, षष्ठाष्टमौ जङ्घ, सप्तमं पादद्वयं चिन्त्यम् । क्रमात्क्रमेण द्रेष्काणवशादस्य बालस्यैतान्यङ्गानि दक्षिणानि वामानि च ज्ञातव्यानि । अर्थवशाद् यत्र यत्राङ्गदीर्घराशिस्तत्पतिश्च भवेत् तदङ्गदीर्घ तस्य । अथ यत्राङ्ग ह्रश्वराशिस्तत्पतिश्च भवेत् तदङ्ग ह्रस्वं । अथ यत्राङ्ग ह्रस्वराशिर्दीर्घपतिश्च । अथवा विपरीते सति मध्यमाङ्ग वाच्यम् । “ह्रस्वं घटाद्याश्चत्वारः सिंहाद्या "Aho Shrutgyanam" Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जन्मसमुद्रः दीर्घमङ्गगाः । ये त्वन्ये राशयो मध्यं प्राहुर्वर्णस्व वर्णतः ॥” इति ह्रस्वदीर्घमध्यराशिस्वरूपमुक्तम् ।।२५-२६।। अब लग्न के द्रेष्कारणों से बालक के शरीर के अंगविभाग बतलाते हैं-लग्न यदि प्रथम द्रेष्कारण में हो तो लग्न की राशि मस्तक, दूसरा और बारहवां स्थान नेत्र, तीसरा और ग्यारहवां कान, चौथा दशवां नाशिका, पांचवां नववां गाल छट्टा आठवां ठोडी और सातवां स्थान की राशि मुख जानना । लग्न यदि दूसरे द्र ेष्काण में हो तो लग्न की राशि कंठ, दूसरा बारहवां स्कंध, तीसरा ग्यारहवां भुजा, चौथा दशवां बगलभाग, पांचवां नववां हृदय, छठा आठवां पेट, और सातवां स्थान की राशि नाभि समझना । लग्न यदि तीसरे कारण में हो तो लग्न की राशि बस्ति (लिंग और नाभी का मध्य भाग), दूसरा बारहवां लिंग और गुदा, तीसरा ग्यारहवां अंडकोश, चौथा दशवां ऊरू, पाँचवां नववां जानु, छट्टा आठवां जंघा और सातवां स्थान की राशि पैर समझना । इसी प्रकार द्रेष्कारण पर से बालक का अंग विभाग समझना । इनमें लग्न से सातवां स्थान तक दाहिनी ओर के अंग, तथा आठवें से बारहवां स्थान तक बाँयें अंग जानना । इन स्थानों में जो राशि ह्रस्व हो तो वह अंग ह्रस्व, दीर्घं हो तो वह अंग दीर्घ श्रौर मध्यम हो तो वह अंग मध्यम कहना । कुंभ मीन मेष और वृष ये ह्रस्व राशि है । सिंह, कन्या, तुला और वृश्चिक ये दीर्घं राशि है । मिथुन कर्क धन और मकर ये मध्यम राशि है ।। २५-२६॥ अथाङ्गगतलाञ्छनक्षतज्ञानमाह - तत्र भागे सपापेऽस्य व्रणो राशिसमाङ्गगः । स्वक्षशस्थिर भांशस्थे शुभे तु सहजो मषः ||२७|| तत्र भागे लग्नप्रथमादिद्र ेष्कारणोक्ताङ्गराश्युपलक्षिते दक्षिणे वामे सपापे `पापैर्यु ते व्रणो वाच्यः । किं विशिष्टः राशिसमांगगः । तद्यथा - कालपुरुषस्य योऽङ्ग राशिस्तस्य राशेः सम सदृशं यदंगं तत्रांगे तत्रावयवे गतः सञ्जातो वाच्यः । परं तत्र विभागे शुभैर्यु ते दृष्टे वा मशकादिचिह्न तु पुनस्तत्र विभागेऽवयवस्थशुभे, तु शब्दादशुभे ग्रहे वा स्वर्क्षशस्थितभांशस्थे स्वराशिस्वांश स्थिरांशानामन्यतमस्थे मशकादिचिह्न सहजं चिन्त्यम् । अर्थान्तरादेवं मित्रराशिमित्रांश शत्रु राशिशत्रुनवांशचर राशिचरनवांशानामेकतमस्थे भविष्यं लशुनम् ||२७|| जिस लग्नराशि के द्र ेष्कारण में पापग्रह हो, उसी राशि के अनुसार दाहिने या बांयें अंग में व्ररण (घाव) आदि कहना । परन्तु शुभ ग्रह हो या शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो मस आदि चिह्न कहना । अथवा कोई ग्रह अपनी राशि का या अपने नवमांश का, स्थिर राशि का या स्थिर के नवांश का हो तो भी मस तिल आदि चिह्न समझना । इसी प्रकार मित्र राशि का या मित्र के नवांश का, शत्रु राशि के या शत्रु के नवाँश का चर राशि का या चर के नवांश का जो ग्रह हो उसकी राशि के अनुसार अंग में लाखा, मस, तिल आदि चिह्न कहना ||२७| " Aho Shrutgyanam" Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय कल्लोलः अथ भविष्यवरणादिज्ञानमाह काष्ठशृङ्गन्यस्त्रभूनावाजोऽर्केन्द्वारबुधादिभिः । षष्ठे तत्र युते सद्भिर्वेक्ष्ये वा कृष्णबिन्दुकः ॥२८॥ अर्केन्द्वारबुधाकिभिः षष्ठे षष्ठगतैः अमात् तत्रांगे व्रणो भविष्यो भाष्यः । यथा-षष्ठे रवौ स्वदशांशगते काष्ठाच्चतुष्पदाद्वा वणः । तथा क्षीणेन्दौ शृगि प्राणितो जलयन्त्राद्वा । षष्ठे भौमे स्वदशांशगतेऽस्त्रतः शस्त्रादग्नितो वा विषाद्वा । एवं षष्ठे बुधे भूवो गर्तापाताल्लोष्ठकाद्वा। एवं षष्ठे शनौ ग्रावत: पाषाणाद्वा व्याधे: निगडाद्वा व्रणो भविष्यति । अथ तत्र व्रणकरे ग्रहे सद्भिः शुभैयु तेऽथवा ष्टे कृष्णबिन्दक. कृष्णमशको घनलोमस्थानं वा कालपुरुषस्यावयवस्य षष्ठे यो राशिर्भवति तत्रांगेऽभिज्ञानम् ।।२।। इति जन्मसमुद्रविवृतौ जन्मप्रत्ययलक्षणो द्वितीयकल्लोलः ।।२।। यदि छठे स्थान में रवि हो तो रवि की दशा में काष्ठ या पशु आदि से, क्षीणचंद्रमा हो तो चंद्रमा की दशा में सींगवाले प्राणियों से या जलयंत्र से. मंगल हो तो मंगल की दशा में शस्त्र से या अग्नि से या विष से, बुध हो तो बुध की दशा में भूमि के खड्ड में गिरजाने से या ढेले से, शनि होवे तो शनि की दशा में पाषाण से या व्याधि से या बेड़ी आदि से घाव आदि होवे। इन घाव आदि करने वाले ग्रह शुभ ग्रह के साथ हो या उन पर शुभ ग्रह की दृष्टि पड़ती हो तो काले मश, तिल प्रादि चिह्न कहना ॥२८॥ इति श्रीनर चंद्रोपाध्याय विरचित जन्मसमुद्रके जन्मज्ञान लक्षणनामका दूसरा कल्लोल समाप्त। "Aho Shrutgyanam" Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ रिष्टभंगलक्षणः कल्लोलो व्याख्यायते तत्रादौ मासमृत्युज्ञानमाह सन्ध्यायां चन्द्रहोरायां पापैर्भान्त्यांशगैम तिः । एतैः पृथक्चतुष्केन्द्र-गतैः साब्जैस्तु मासतः ।।१।। अस्तिमयाद् यावत्तारा व्यक्तिभूता भवन्ति तावत्सन्ध्या। अथ रवेरोदयं यावत्तारास्तेजोहानिकरा न स्युस्तावत् प्रातः सन्ध्या कथ्यते । इति सन्ध्याद्वय लक्षणमुक्तम् । तस्या काले चंद्रहोरायां च यस्य जन्म स्यात्, समलग्नस्य प्रथमाद्ध चन्द्रहोरा, विषमलग्नस्य द्वितीयाद्ध च चन्द्रहोरा प्रोक्ता। तस्यां सत्यां पापैः क्षीणेन्दुरविशनिकुजर्भान्त्यांशगैर्यत्र तत्र राशौ भानि राशयस्तेषामन्त्यो नवमो यो नवांशस्तत्र गर्जातस्य मृतिर्वाच्या । तु अथवा एतैः पापैः साब्जैश्चन्द्रयुक्तैः पृथक् चतुष्केन्द्रस्थः एकस्मिन् केन्द्र चन्द्र त्रिषु केन्द्रगतैः पापैः कृत्वा मासतो मृतिः ॥१॥ जब सूर्य प्राधा अस्त हो वहां से तारा दीखने लगे वहां तक संध्याकाल है। जब तारा के तेज की हानि होने लगे वहां से सूर्य प्राधा उदय हो जाय वहां तक प्रातः संध्या है। संध्याकाल में चन्द्रमा की होरा में जन्म हो और क्षीण चंद्रमा रवि मंगल और शनि ये पाप ग्रह किसी भी राशि के अंतिम नवांश में हो तो जातक की मृत्यु कहना। यदि क्षीण चंद्रमा और पाप ग्रह चारों केन्द्र में हों तो जन्मा हुमा बालक की एक मास में मृत्यु होगी ॥१॥ अथ योगान्तरमाह वा कोटाङ्ग खलैः सौम्यैश्चक्रपूर्वान्यभागगैः । धर्माष्टाङ्गान्त्यगैररिन्दुमन्दैः क्रमादरम् ॥२॥ वा शब्दोऽन्य योगार्थो ज्ञेयः । सर्वत्र मध्ये कोटांगे वृश्चिकलग्ने कर्कलग्ने वा खलैः पापैश्चक्रपूर्वान्यभागगैः पूर्वभागस्थैः सौम्यैः क्रमाद् झटिति शीघ्र मृतिः। 'जन्मकाले यावन्तो भागा लग्नस्योदितास्तावन्तो भागा दशमराशेरंशादारभ्य एकादशद्वादशलग्नद्वितोयतृतीयाद् यावच्चतुर्थराशेस्तावन्त एवांशास्तावच्चक्रस्य पूर्वार्द्ध मिदम् । चतुर्थमारभ्यः पञ्चमषष्ठसप्तमाष्टमनवमराशयो दशमराशेलग्नोदितभागतुल्यभागाश्चक्रस्यापराद्ध ज्ञेयम् ।' कर्कवृश्चिकमकरमीनानां कीटत्वमुक्तम् । तदत्र वृश्चिकककौं कथं व्याख्यातौ कीटौ ? मकरमीनयोर्जलत्वे सपक्षत्वात् कोटत्वमुच्यतेऽतो व्याख्यातौ । अथारेिन्दुमन्दैः सूर्यकुजक्षीणेन्दु "Aho Shrutgyanam' Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिष्टभंगलक्षणः कल्लोलो शनिभिः क्रमाद् धर्माष्टाङ्गान्त्य गैर्न वमाष्टम लग्नव्यय गतैर्बलिष्ठजीवाहष्टैररं झटिति मृत्युः । जीवदृष्टैर्न मृत्युः । बलहीन जीव दृष्टैः शनैर्मृत्युः ॥ २॥ जन्मलग्न कर्क या वृश्चिक हो, तथा पाप ग्रह चक्र के पूर्वभाग में हो और शुभ ग्रह चक्र के उत्तर भाग में हो तो बालक की शीघ्र ही मृत्यु कहना । जन्म लग्न के जितने अंश उदय में हो, उतने अंश दशम राशि का छोड़ कर बाकी के अंशों से लेकर ग्यारहवां बारहवां लग्न दूसरा तीसरा और चौथा स्थान की राशि के लग्न के उदित अंश बराबर अंश तक यह चक्र का पूर्वभाग है । और लग्न के उदित भाग बराबर चौथे स्थान की राशि के अंश छोड़कर बाकी के अंश, पांचवां छठा सातवां आठवां नववां श्रौर दसवें स्थान की राशि के लग्न के उदित अंश बराबर अंश यह चक्र का उत्तर भाग है। सूर्य नवमस्थान में, मंगल आठवें, क्षीणचंद्रमा लग्न में और शनि बारहवें स्थान में हो, उनको बलवान् वृहस्पति देखता न हो तो जातक की शीघ्र ही मृत्यु कहता । परन्तु उनको बलवान बृहस्पति देखता हो तो मृत्यु नहीं कहना और बलहीन वृहस्पति देखता हो तो कुछ समय के बाद मृत्यु कहना ॥२॥ अथ योगान्तरमार अङ्ग वास्ते खलान्तर्वान्त्यारिगैः स्वाष्टगैः खलैः । सोग्रे पापान्तरे वेन्दौ कोरणाष्टास्तान्त्यकाङ्गगे ॥३॥ अंगे लग्ने वास्ते सप्तमे खलान्तः पापद्वयमध्यस्थे सति मृत्युः । अर्थान्तरादंगेऽस्ते वा सौम्यद्वयमध्यस्थे न मृत्युः । वा प्रन्त्यारिः व्ययषष्ठगतैः खलैः कृत्वा, वा स्वाष्टगैर्धनाष्टगतैः खलैर्मृतिः । वा क्षीणेन्दौ सोग्रे उग्राः क्रूरास्तैः सह वर्त्तत इति सोग्रस्तत्र सोग्रे सपापे शुभैरदृष्टे सति मृतिः । वेन्दौ क्षीणचन्द्र पापान्तरे पापद्वयमध्यगते 'कोणाष्टास्तान्त्यकांगगे' पञ्चमनवमाष्टमसप्तमव्ययचतुर्थ ३७ लग्नानामेकतमस्थे मृतिः । शुभदृष्टे सति रिष्टाभावः ||३|| लग्न अथवा सप्तम स्थान दो पाप ग्रहों के बीच में हों तो मृत्यु कहना । परंतु शुभ ग्रहों के बीच में हो तो मृत्यु नहीं कहना। एवं छठे और बारहवें स्थान में अथवा दूसरे और आठवें स्थान में पाप ग्रह हों तो जातक की मृत्यु कहना । अथवा क्षीण चंद्रमा के साथ पाप ग्रह हो उसको शुभ ग्रह कोई देखता न हो तो जातक की मृत्यु कहना । अथवा क्षीण चंद्रमा दो पाप ग्रहों के बीच में हों और नववें पांचवें आठवें सातवें बारहवें चौथे या लग्न में रहा हो तो जातक की मृत्यु कहना । परन्तु शुभ ग्रह देखते हों तो मुत्यु न कहना ॥३॥ अथ योगान्तरमाह वेष्टेऽब्जे दुःसुमिश्रेक्ष्येऽष्टारौ दृग्दिग्युगाब्दतः । नादृष्टे वा न सत्पक्षे निशि कृष्णेऽह्नि जन्म चेत् ॥४॥ अब्जे क्षीणेन्दौ प्रष्टारौ श्रष्टमस्थे षष्ठस्थे वा सति दुःसुमिश्रेक्ष्ये दृग्दिग्युगाब्दतो मृत्युः क्रमेण कथ्यः । तद्यथा - क्षीपेन्दौ षष्ठेऽष्टमे वा दुरीक्ष्ये "Aho Shrutgyanam" Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जन्मसमुद्रः दुःशद्व ेन दुष्टाः पापास्तैरीक्षिते सति द्राक् शीघ्र ं मृत्युः । दृगब्दतः वर्षद्वयात् परं शुभादृष्टे सति । एवं चन्द्र तत्रस्थे स्वीक्ष्ये सुशब्देन शुभास्तैरीक्ष्ये दृष्टे पापैरदृष्टे दिगब्दतः, दिशोऽष्टौ तत्संख्याये अष्टास्तेभ्यो मृतिः, वर्षाष्टकादित्यर्थः । एवमत्रस्थे चन्द्र मिश्रेक्ष्ये पापशुभदृष्टे युगाङ्कतो मृत्युः, वर्षचतुष्कादित्यर्थः । वाथवेष्टे शुभे चन्द्रवदेवंविधे सति पूर्वोक्तवन्मृतिः । अथैवंविधयोगस्थे चन्द्र शुभे वा सर्वग्रहदृष्टे सति न मृत्युः । प्रर्थान्तरात् षष्ठेऽष्टमे वा यत्र तत्र राशौ वाब्जे चन्द्र पूर्णेन्दी वा शुभैर्युक्ते दृष्टे वा न मृत्युः । वाथवा सत्पक्षे सतां शुभानां पक्षे वर्गे ग्रहादौ तत्रस्थे षष्ठेऽष्टमे वा चन्द्र शुभदृष्टे सति न मृत्युः । एवंविध योगस्थे पूर्णचन्द्र मिश्रेक्ष्ये सर्वग्रहदृष्टे चेद् यदि शुक्लपक्षे निशि रात्रौ जन्म भवति तदा न मृत्युः, उक्तकाले रिष्टाभावः । षष्ठेऽष्टमे वा चन्द्र मिश्रक्ष्ये सर्वग्रहदृष्टे यदि कृष्णपक्षे दिवा जन्म तदा न मृत्युः । उक्तकाले रिष्टाभावः । एवं राशिनवांशे वा वक्तव्यम् ।।४।। क्षीण चंद्रमा छठे या आठवें स्थान में हो, उसको पाप ग्रह देखते हो और शुभ ग्रह न देखते हो तो दो वर्ष में मृत्यु कहना । छठे या आठवें स्थान में रहा हुआ क्षीण चंद्रमा को शुभ ग्रह देखते हो और पाप ग्रह न देखते हो तो आठ वर्ष बाद मृत्यु कहना । छठे या आठवें स्थान में रहा हुआ क्षीण चंद्रमा को शुभ और पाप दोनों मिश्र ग्रह देखते हो तो चार वर्ष के बाद मृत्यु कहना । इसी प्रकार अन्य कोई शुभ ग्रह चन्द्रमा की तरह हो तो चंद्रमा की तरह फल कहना । उक्त चद्रमा को कोई ग्रह न देखता हो तो उक्त दोष नहीं होगा । यदि चद्रमा शुभ ग्रह के साथ हो या शुभ ग्रह के वर्ग में हो तो अरिष्ट योग नहीं होगा । यदि पूर्ण चंद्रमा छठे या आठवें स्थान में हो या अन्य किसी स्थान में हो, परन्तु शुभ ग्रह के साथ हो या शुभ ग्रह की दृष्टि उन पर हो तो ग्ररिष्ट योग नहीं कहना, छठे या आठवें स्थान में रहे हुए चंद्रमा को कोई भी शुभाशुभ या मिश्र ग्रह देखते हो, परन्तु शुक्लपक्ष की रात्रि में और कृष्णपक्ष के दिन में जन्म हुआ हो तो अरिष्ट का नाश होता है, अर्थात् मृत्यु न होगी ॥४॥ अथ योगान्तरमाह ग्रस्तेऽङ्ग े सयमेऽत्रारेऽष्टमे मात्रा स्त्रियेत सः ॥ संज्ञे चार्केऽस्त्रतो वात्र दुष्टैः कोणेऽष्टरिति ॥ ५ ॥ समीपवत्तित्वात्तत्र चन्द्र ग्रस्ते ग्रहरणकाले राहुग्रस्तेऽङ्गो लग्ने शनियुक्ते सति आरे कुजेऽष्टमे सति मात्रा सह बालो म्रियेत । अर्के च शब्दात् राहुग्रस्ते लग्नस्थे सज्ञे बुधयुते सयमे च कुजेऽष्टमगे सति अस्त्रात् शस्त्रेण मात्रा सह म्रियेत । क्षीणेन्दुयुते सति न योगभंगः । वाथवात्र पूर्णेन्दो रवौ वा ग्रस्ते लग्नस्थे च "Aho Shrutgyanam" Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय कल्लोलः ३६ दुष्ठं पापैबंलिभिः कोणाष्टगैः पच्चमनवमाष्टानामेकतमस्थैः कृत्वा चेदमीभिदृ ष्टौ मृत्युरित्यमुना प्रकारेण शस्त्रेणेत्यर्थः । चन्द्र रवौ वा योगस्थे बलिष्ठे शुभैर्युते दृष्टे वा न मृत्युः ।।५।। __ ग्रहण के समय लग्न में चन्द्रमा राहु और शनि हों, तथा पाठवें स्थान में मंगल हो तो माता के साथ बालक की मृत्यु हो। एवं लग्न में राहु, सूर्य शनि और बुध हों और मंगल पाठव में होतो माता के साथ बालक की मृत्यु शस्त्र से कहना । सूर्य क्षीण चन्द्रमा के साथ हो तो यह अरिष्टयोग का भंग नहीं होता । सूर्य और राहु अथवा चन्द्रमा और राहु लग्न में रहे को नवें, पांचवें या पाठवें स्थान में रहे हए पापग्रह देखते हो तो शस्त्र से बालक की मृत्यु कहना । उपरोक्त रवि, चन्द्रमा के योग रहने पर यदि साथ में शुभ ग्रह हो या उन पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो मृत्यु योग नहीं रहता ॥५॥ प्रथ योगान्तरमाह अङ्ग क्वब्जे खलैस्तेि दृष्टे वास्तेऽङ्गपे खलैः। व्ययेऽब्जेऽष्टाङ्गगैः पाप: सौम्यैनिकष्टकै तम् ॥६॥ अब्जे क्षीणचन्द्रऽङ्ग लग्नस्थेऽस्ते सप्तमस्थैः खलः कृत्वा पापैर्यु ते वा मासाद् मृत्युः वा अङ्गपे लग्नेशेऽस्ते सप्तमस्थे खलैदृष्टे मृत्युः । खलैरिति सहार्थे तृतीया । अब्जे क्षीणेन्दौ व्यये द्वादशस्थे पापैरष्टाङ्गगैरष्टमलग्नस्थैः सौम्यैनिष्कष्टकैः केन्द्र रहितैरन्यत्र गतैः कृत्वा द्रुतं शीघ्र मृत्युः ।।६।। लग्न में क्षीण चन्द्रमा हो और सातवें स्थान में पाप ग्रह हो तो एक मास में मृत्यु कहना। अथवा लग्न का स्वामी सातवें स्थान में हो, उसको पाप ग्रह देखते हो तो मृत्यु योग कहना । अथवा चन्द्रमा बारहवें स्थान में हो तथा पाप ग्रह लग्न में और आठवें स्थान में हो और केन्द्र में कोई शुभ ग्रह न हो तो बालक की शीघ्र मृत्यु कहना ॥६॥ . . अथ योगान्तरमनुक्तकालरिष्टस्य कालज्ञानमाह भान्तगेऽब्जे शुभादृष्टे पापै : कोणगतैलंघु । स्वभाङ्ग बलिभं प्राप्ते पापेक्ष्येऽब्जे समान्तरे ॥७॥ अब्जे चन्द्र भान्तगे यत्र तत्र राशौ स्थितश्चन्द्रस्तस्यान्तगे नवमांशस्थे शुभादृष्टे शुभैरदृष्टे पापैः कोणगतैः पञ्चमनवमयोरन्यतमस्थैर्लघु शीघ्र मृतिः । अब्जे चन्द्र यत्र तत्र राशौ स्थिते जन्माभूत् स राशिः स्वभं स्वराशिस्तं राशि प्राप्ते गते चन्द्र चारक्रमेण पापदृष्टे मृत्युः । कदा समान्तरे वर्षमध्ये। अथाङ्ग लग्नं प्राप्ते चारक्रमेण गते चन्द्र पापदृष्टे सति समान्तरे मृत्युः । तथा चन्द्र बलिभं प्राप्ते पापदृष्टे समान्तरे मृतिः । तद्यथा-यत्र रिष्टयोगे कालावधि!क्त "Aho Shrutgyanam" Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जन्मसमुद्रः स्तस्त्र योगे जातस्य ये ग्रहा रिष्टकरास्तेषां मध्ये यो बलवान् स यत्र राशौ तिष्ठति स यदि राशिर्बलिनो भं स्थानं तत्र गते चन्द्र चारक्रमेण पापदृष्टे वर्षमध्ये नाश: । अत्र प्रतिमासं वर्ष यावच्चन्द्रमसा सह सर्वाण्येव स्थानानि ज्ञातव्यानि ॥७॥ चन्द्रमा जिस राशि पर हो, उसी के अन्तिम नवमांश में हो और उसको कोई शुभ ग्रह देखता न हो, तथा पाप ग्रह नवें और पांचवें स्थान में हो तो शोघ्र मृत्यु कहना। जन्म के समय चन्द्रमा जिस राशि पर हो वह अपनी स्वराशि है, उसमें चन्द्रमा जब प्रावे और पाप ग्रह देखे तो मृत्यु कहना । अरिष्टकारक ग्रहों में जो ग्रह बलवान हो, उस बलवान ग्रह की राशि पर चन्द्रमा आवे और पाप ग्रह देखते हो तो उसी वर्ष के मध्य में जातक की मृत्यु कहना ॥७॥ अधुनारिष्टयोगभंगज्ञानमाह - रिष्टहा केन्द्रसद्वीक्ष्यो बलोज्यो वाङ्गपोऽङ्गगः । केन्द्रगो वा भप: सदा सत्र्यंशेऽयष्टग : शशी ।।८।। इज्यो बृहस्पतिर्वाङ्गपो लग्नेशो वा भपो यत्र राशौ चन्द्रस्तस्य नाथो भपो राशिपतिः, वाशब्दाच्छुभो वा शशी पूर्णेन्दुर्वा, अमीषां यो बली बलवान् पुष्टोऽथवा केन्द्रसद्वीक्ष्यः केन्द्रस्था ये सन्तः शुभास्तैर्वीक्ष्यो दृष्टः सन्नमीषां पञ्चानां यः कोऽप्यस्ति स रिष्टहा रिष्टं हन्तीति सः । अथवामीषां योऽङ्गगः लग्नस्थः केन्द्रसद्वीक्ष्यः केन्द्रस्थशुभग्रहदृष्टो बलवान् बली रिष्टहा। अथवा यत्र तत्र गतो बलिष्ठः सन् शुभग्रहः केन्द्रसद्वोक्ष्यः सन् रिष्टहा स ग्रहः स्यात्, तदा रिष्टं भवतोत्यर्थः । वा चन्द्रोर्यष्टगः षष्ठाष्टमस्थः सत्र्यंशे सतः शुभस्य त्र्यंशे द्रष्काणे गतश्च रिष्टहा ।।८।। बलवान् बृहस्पति, लग्न में रहा हुअा लग्न का स्वामी. जिस राशि पर चन्द्रमा हो उस राशि का स्वामी और पूर्ण चन्द्रमा इनमें जो बलवान हो उसको केन्द्र में रहे हए शुभ ग्रह देखते हो तो अरिष्ट योग का नाश होगा। अथवा उनमें से जो लग्न में रहा हो उसको केन्द्र में रहे हए शुभ ग्रह देखते हो तो अरिष्ट योग का नाश कहना। अथवा कहीं भी रहे हुए बलवान शुभ ग्रह को केन्द्र में रहे हुए शुभ ग्रह देखते हों तो अरिष्ट योग का भंग कहना । अथवा छठे या पाठवें स्थान में रहा हा चन्द्रमा यदि शुभ ग्रह के ट्रेष्काण में हो तो अरिष्टयोग का नाश होता है I अथारिष्टभंगान्तरमाह पूर्णेन्दुः शुभभाशे वा सवा चेन्दुः शुभान्तरे । मेशाद् भूपचयस्थोऽयं वेन्दो: सौम्यास्तु षत्रये ॥६॥ "Aho Shrutgyanam" Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय कल्लोलः पूर्णेन्दुः शुभांशे शुभस्य यद्भ राशिस्तत्रस्थः शुभांशस्थो वा सन् रिष्टहा। वाथवा सम् शुभ. शुभराशिस्थः शुभांशस्थो वा रिष्टहा । वा इन्दुः शुभान्तरे शुभद्वयमध्यस्थो रिष्टहा । षट् त्रये वा इन्दोश्चन्द्रात्सौम्याः शुभाः। अथवा भेशाद् राशिनां पाद् लग्नेशाद् वा पूर्णचन्द्रः भूपचयस्थोऽपि चतुर्थविषट्दशैकादशानामेकतम स्थोऽपि रिष्टहा । षट्सप्ताष्टमानामेकतमस्था यदि भवन्ति तथा रिष्टं न स्यात् । यतोऽसावधियोगोनाम राजयोगः सप्तप्रकारः स्यात् । तद्यथा-यदा चन्द्रात् षष्ठे सर्वे शुभास्तदैकः प्रकारः । सप्तमे द्वितीयः । अष्टमे तृतीयः । एतेऽपि यदि षष्ठसप्तमस्थास्तदा चतुर्थः। षष्ठाष्टमस्था यदि तदा पंचमः । सप्ताष्टमस्थास्तदा षष्ठः। षष्ठसप्ताष्टमस्था प्रत्येकं यथासम्भवं तदा सप्तमो भेदः । एवं लग्नादेषु योगेषु पापादृष्टेषु सप्तसु जातो दण्डनायको मंत्री राजा । अन्यकुलजाता अतिसौख्यैश्वर्यसम्पन्ना हतशत्रवो दीर्घायुषो निरोगा निर्भया भवन्ति । अथवा लग्नाच्चन्द्राद्वा सौम्यस्त्रिभिरुपचयस्थैर्धनाढयः। अथवा द्वाभ्यामुपचयस्थाभ्यां शुभाभ्यां मध्यधनः । एकस्मिनुपचयस्थेऽल्पधनः । लग्नाच्चन्द्राद्वा यस्य जन्मनि उपचये शुभः कोऽपि न स्यात् तदा स दरिद्रः। अथ चन्द्र स्वांशे स्वमित्रांशे वा यत्र तत्र राशौ स्थिते सत्यथवा दृश्यार्द्ध स्थे चन्द्र गुरुदृष्टे सति दिवाजातो धनी ईश्वरः सुखी । अदृश्यार्द्धस्थे चन्द्र रात्रिजातो निर्द्ध नो दुःखी। अथैवंविधे अदृश्याद्धस्थे चन्द्र शुक्रदृष्टे रात्रिजातो महाधनी, दिवाजातो दरिद्रः । अथ सूर्याच्चन्द्र केन्द्रस्थे विनयनयधीधनशीलादिभिः रहितः। पणफरस्थचन्द्र गुणैरेतैर्मध्यमः । आपोक्लिमस्थे चन्द्रऽमीभिर्गुणैः सम्पन्नो विनयी धनी धीमानित्यर्थः । चन्द्रान्निधियोगफलमन्यशास्त्रात् प्रसङ्गागतमानीय व्याख्यातम् ।।६।। पूर्ण चन्द्रमा शुभ ग्रह की राशि में या उनके नवमांश में हो तो अरिष्ट का भंग हो जाता है । एवं शुभ ग्रह शुभ ग्रह की राशि में या उनके नवमांश में हो तो अरिष्ट का नाश कहना । अथवा चन्द्रमा शुभ ग्रह के मध्य में हो तो अरिष्ट का नाश कहना। अथवा चन्द्रमा से तीसरे या छठे स्थान में शुभ ग्रह हो तो अरिष्ट योग का नाश । जिस राशि पर चन्द्रमा हो उस राशि के स्वामी से या लग्न राशि के स्वामी से चौथे, तीसरे, छठे, दसवें या ग्यारहवें स्थान पर चन्द्रमा हो तो अरिष्ट का नाश कहना। अथवा चन्द्रमा से छठे, सातवें या पाठवें स्थान पर शुभ ग्रह हो तो अरिष्ट योग नहीं होता । इसी से सात प्रकार के राजयोग होते हैं, ये इस प्रकार हैं-(१) चन्द्रमा से शुभ ग्रह छठे, (२) सातवें, (३) पाठवें, (४) छठे और सातवें स्थानों में, (५) छठे और पाठवें स्थानों में (६) सातवें और पाठवें स्थानों में, (७) छठे, सातवें और आठवें स्थानों में हो तो अरिष्ट योग नहीं होता राज योग होता है । इस प्रकार लग्न से भी सात प्रकार के उपरोक्त योग होते हैं, उन पर यदि पाप ग्रह की दृष्टि न हो तो जातक दंडनायक, मंत्री या राजा होवे । नीच कुल में जन्म लेने पर भी बहुत "Aho Shrutgyanam Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जन्मसमुद्रः सुखी, ऐश्वर्य सम्पन्न, शत्रु को जीतने वाला, दीर्घायु, निरोगी और निर्भय होता है। लग्न से या चन्द्रमा से तीनों शुभ ग्रह उपचय (३-६-१०-११) स्थान में हों तो अधिक धनवान, दो शुभ ग्रह उपचय स्थान में हों तो मध्यम धनवाला और एक शुभ ग्रह उपचय स्थान में हो तो थोड़े धनवाला होता है । और कोई भी शुभ ग्रह उपचय स्थान में न हो तो दरिद्र योग होता है। किसी भी राशि में रहा हुअा चन्द्रमा अपने नवमांश का या मित्रग्रह के नवमांश का हो या दृश्याद्ध में रहा हो, उसको गुरु देखता हो और दिन का जन्म हो तो बालक धनवान और सुखी होता है। अदृश्याद्ध में चन्द्रमा हो और रात्रि में जन्म हो तो निर्धन और दु.खी होता है । अदृश्याद्ध में रहा हुअा चन्द्रमा को शुक्र देखता हो और रात्रि का जन्म हो तो महा धनवान और दिन का जन्म हो तो दरिद्र होता है। सूर्य से चन्द्रमा केन्द्र (१-४-७-१०) में हो तो जातक विनय, न्याय, बुद्धि, धन और शील प्रादि गुरगों से रहित होता है। सूर्य से चन्द्रमा पणफर (२-५-८-११) स्थान में हो तो विनयादि मध्यम गुणवाला होता है और पापोक्लिम (३-६-६-१२) स्थान में चन्द्रमा रहा हो तो विनयी, धनवान, बुद्धिमान आदि गुणयुक्त होता है । (बृहज्जातके अध्यायः १३) अथ रिष्टभंगान्तरमाह - शुभवर्गे खला इष्ट-दृष्टा इष्टांशवर्गगैः । षव्यायेऽहिः शुभेक्ष्यो वा सर्वशीर्षादये स्थितः ॥१०॥ खलाः पापाः शुभवर्गे शुभामां ग्रहहोरा द्रेष्काण नवांश द्वादशांशत्रिशांशानामेकतमे वर्गे स्थिता इष्टः शुभैरिष्टांशवर्गगैः इष्टा शुभास्तेषामंशवर्गो षड्वर्गस्तत्रस्थैदृष्टाः पापा यदि तदा न रिष्टं जातस्य । अथाहिः राहुः षट्त्र्याये षष्ठत्रिलाभानामेकतमस्थः शुभेक्ष्यो रिष्टहा। वा सर्वो ग्रहः शीर्षोदये शीर्षोदयराशौ स्थितः शुभदृष्टः प्रकृतिगत्या ततोऽरिष्टहा पूर्वोक्तरिष्टानां नाशकर्ता ॥१०॥ इति जन्मसमुद्रविवृतौ रिष्टभङ्गलक्षणकल्लोलस्तृतीयः ।।३।। शुभ ग्रहों के षड्वर्ग में रहे हुए पाप ग्रहों को शुभ ग्रह देखते हों तो अरिष्ट का नाश होता है। अथवा तीसरे, छठे या ग्यारहवें स्थान में रहा हा राह को शुभ ग्रह देखता हो तो अरिष्ट योग का नाश होता है। एवं सब ग्रह शीर्षोदय राशि में हों, उनको शुभ ग्रह देखते हों तो भी अरिष्ट योग का भंग होता है ॥१०॥ इति श्रीनरचंद्रोपाध्याय विरचित जन्मसमुद्र के रिष्टभङ्ग लक्षणनामका तीसरा कल्लोल समाप्त। "Aho Shrutgyanam" Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्थ मृत्युयोगलक्षणकल्लोलो व्याख्यायते तत्रादावष्टमस्थैमृत्युकरदेशयोनिमाह सूर्याधैरष्टगैर्मृत्यु-र्वयम्भोऽस्त्रज्वरामतः । तृट्क्षुज्जोऽन्यस्वमार्गान्तदेशे रन्धु चरादिगे ॥१॥ सूर्याद्य रष्टगैर्बलिभिः क्रमेण मृत्युश्चिन्त्यः । यथा-अष्टमस्थेऽर्के बलिनि वह्नितोऽग्नितः । एवं चन्द्रम्भस्तो जलात् । भौमेऽस्त्रतः शस्त्रात् । बुधे ज्वरात् । गुरौ आमतो रोगात् । शुक्रे तृड्जः तृषाया जातः तृट्जः । शनौ भुज्जः क्षुधाया जायते क्षुज्जः बुभुक्षया मृत्युः । क्व स्थाने इत्याह-रन्ध्रऽष्टमे चरादिगे चरादिराशिगते मृत्युकथके ग्रहेऽन्यदेशे परदेशे गतस्य सतः तस्य तदुक्त एव मृत्युः । आदि शब्दाद् रन्ध्र स्थिर राशिस्थे ग्रहे स्वदेशे ग्रहकृतो मृत्युः । अथाष्टमे द्विस्वभावराशिस्थे सति तत्र ग्रहेऽन्यदेशस्वदेशयोरन्तरे देशे मार्गमध्ये मृत्युः । अत्रान्तशब्दो मध्यवाची । “आदिमध्यावसानेषु अन्तशब्दः प्रयुज्यते” इति पाठात् । अथैतैरष्टमे प्रत्येकं गतैर्बलिभिर्यथोक्त एव मृत्युः शुभेन कर्मणा भवति । मध्यबलैरेतैर्मध्यकर्मणा हीनबलैरेतैरशुभकर्मणा मृत्युः। यदाष्टमस्था बहवो बलिनस्तदैतेषां मध्ये यो बलवांस्तदुक्त एव मृत्युः ॥१॥ आठदें स्थान में रहे हुए सूर्यादि ग्रहों के अनुसार मृत्यु का विचार करना चाहिए । जैसे-पाठवें स्थान में सूर्य हो तो अग्नि से, चन्द्रमा हो तो जल से, मंगल हो तो शस्त्र से, बुध हो तो ताव से, गुरु हो तो ग्राम रोग से, शुक्र हो तो तृषा रोग से और शनि हो तो क्षुधा रोग से मृत्यु होवे। किस स्थान पर मृत्यु होवे यह कहते हैं-यदि पाठवें स्थान में चर राशि हो तो विदेश में मृत्यु, स्थिर राशि हो तो अपने देश में और द्विस्वभाव राशि हो तो मार्ग में मृत्यु होती है। पाठवें स्थान में रहे हुए ग्रह यदि पूर्ण बलवान हों तो शुभ कर्म से, मध्यम बलवान हो तो साधारण कर्म से और निर्बल हो तो अशुभ कर्म से मृत्यु कहना । पाठवें स्थान में बहत से बलवान ग्रह हों, उनमें से जो अधिक बलवान ग्रह हो उसके अनुसार फलादेश कहना ॥१॥ अथाष्टमे शून्ये सति कथं मृत्युः कथ्य इत्याह पित्ताद् वातकफात् पित्ताद् वातपित्तकफात् कफात् । कफवातान्मरुत्तो यो रन्ध्र पश्येत् ततोऽस्ति सः ॥२॥ योऽर्कादिको ग्रहाणां सर्वेषां बलवान् अष्टमं रन्ध्र पश्येत् तत् तस्माद् ग्रहात् तदुक्तरोगात् स मृत्युरस्ति । तद्यथा-रवावष्टमं पश्यति सति पित्तात् "Aho Shrutgyanam" Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जन्मसमुद्रः पित्तोस्थरोगात् । एवं चन्द्र वातकफाद् वातश्लेष्मरोगात् । भौमे पित्तात् पित्तप्रकोपेन । बुधे वातपित्तकफेभ्यः । गुरौ कफात् श्लेष्मतः। शुक्रे कफवातादेव । शनौ मरुत्तो वायुतो मृत्युः । क्वाङ्ग वातादिरोगोत्पत्तिरित्याह-कालनरस्य यो राशिरष्टमे, तत्राङ्ग जातस्य तदुत्त्पन्नवातादिरोगपीडया मृत्युः । यदाष्टमं बहवो वलिनः पश्यन्ति. तदा तदुक्तदोषैस्तत्राङ्ग समुत्पन्न भृत्युः ।।२।। यदि आठवें स्थान को सूर्य देखता हो तो पित्त रोग से. चन्द्रमा देखता हो तो वायु और कफ से, मंगल देखता हो तो पित्त रोग से, बुध देखता हो तो वात, पित्त और कफ से अर्थात् त्रिदोष रोग से, गुरु देखता हो तो कफ से, शुक्र देखता हो तो कफ और वायु से एवं शनि देखता हो तो वायु रोग से मृत्यु योग कहना। अष्टम स्थान की जो राशि हो वह कालनर के जिस अंग में हो उसी अंग में रोग की उत्पत्ति कहना ॥२॥ अथ जलोदरबन्धकृतमृत्युज्ञानमाह शनौ कर्कगते चंद्र मकरस्थे जलोदरात् । त्रिकोणस्थौ शुभादृष्टौ पापौ चेद् बन्धनान्मृतिः ॥३॥ जन्मकाले शनौ कर्कगे चन्द्र मकरस्थे सति जलोदरान्मृत्युः । जन्मकालेऽथ पापौ द्वौ त्रिकोणस्थौ पंचमस्थौ नवमस्थौ, वा अथवा एकः पापः पंचमेऽपरो नवमे द्वावेतौ शुभादृष्टौ केनापि शुभेनादृष्टौ चेत् स्यातां ततो बन्धनान्मृतिः ।।३॥ जन्म समय में कर्क राशि का शनि हो और मकर राशि का चन्द्रमा हों तो जलोदर रोग से मृत्यु कहना। एवं दो पाप ग्रह एक साथ नवें या पांचवें स्थान में हो, अथवा एक नवें और दूसरा पांचवें स्थान में हो, उन दोनों को कोई शुभ ग्रह देखता न हो तो बन्धन से मृत्यु होती है ॥३॥ अथ शस्त्रवह्निदोरकपातकृतमृत्युमाह पापद्वयान्तरे चन्द्र कुजः शस्त्रवह्नितः ।। आकिभे रज्जुपाताग्नेरेवं स्त्रीभेऽस्त्रशोषतः ॥४॥ चन्द्र कुजः मेषवृश्चिकयोरेकतमे पापद्वयान्तरे पापद्वयमध्यगते सति शस्त्रवह्नितः शस्त्रादग्नितो वाथवा प्राकिभे शनिराशौ मकरकुम्भयोरेकतमस्थे चन्द्र पापद्वयमध्यस्थे रज्जुपाताग्नेः रज्ज्वा दोरेण पातादुच्चप्रदेशाद्वा वह्नितो वा मृत्युः । अथैवंविधे चन्द्रे पापद्वयमध्यस्थे स्त्रीभे कन्याराशिस्थे अस्त्रशोषतः अस्त्राद् दुष्टरक्तात् शोषाद्वा ।।४।। "Aho Shrutgyanam" Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ कल्लोलः ४५ मेष या वृश्चिक राशि का चन्द्रमा हो और वह दो पाप ग्रह के बीच में हो तो शस्त्र से या अग्नि से मृत्यु योग कहना। दो पाप ग्रह के बीच में रहा हुमा चन्द्रमा मकर या कुम्भ राशि का हो तो रस्सी ( फांसी) से या उच्च प्रदेश से गिरने से या अग्नि से मृत्यु कहना । एवं दो पाप ग्रहों के बीच रहा हुआ चन्द्रमा कन्या राशि का हो तो अस्त्र से रक्त दोष से या शोष रोग से मृसु कहना ॥४॥ प्रथ स्त्रीहेतुकशूलकृतमृत्युज्ञानमाह मोनाङ्गऽर्के सिते स्वेऽस्ते चन्द्र सोने गृहे स्त्रिये । भौमेऽर्के चाम्बुगे मन्दे कर्मस्थे शूलिकाभव : ॥५॥ __ अर्के मीनाङ्ग मोनलग्नस्थे, सिते शुक्रे स्वे धनगे, चन्द्रऽस्ते सप्तमस्थे सोने सपापे सति स्त्रिये स्त्रीहेतवे स्वगेहे मृत्युः। अथ भौमेऽर्के वा अम्बुगे चतुर्थस्थे, मन्दे शनौ कर्मस्थे च शुलिकाभवः शूलीप्रोतस्य मृत्युरित्यर्थः ।।५।। सूर्य मीन राशि का होकर लग्न में रहा हो तथा शुक्र दूसरे स्थान में और चन्द्रमा पाप ग्रह के साथ सातवें स्थान में रहा हो तो स्त्री के कारण घर में मृत्यु होवे । एवं मंगल और रवि चौथे स्थान में हों और शनि दसवें स्थान में हो तो शूली से मृत्यु कहना ॥५॥ अथ शलीकृतयोगद्वयमाह सातिक्षीणेन्दुपापैश्च कोणाङ्गस्थैश्च कारतः । तुर्येऽर्के खे कुजे केन्दु-युक्तावेक्ष्येऽस्ति शौलिकः ॥६॥ अतिक्षीणेन्दुना सह वर्त्तते ये पापास्तैः सातिक्षीणेन्दुपापैः कोणाङ्गस्थैः समकाले पंचमनवमलग्नानामेकतमस्थैश्च कारतः चोरितः च शब्दाच्छूलीप्रोतस्य मृत्युः। सचन्द्राणां पापानामेतत् स्थानत्रयं मुक्त्वाऽन्यत्रावस्थितिर्नहि । अथार्के तुर्ये चतुर्थे कुजे खे दशमे केन्दुयुक्तावेक्ष्ये च क्षीणोन्दुना युक्त दृष्टे वा कुजे शौलिको मृत्युरस्ति शूल्याभवः शौलिकः ।।६।। __ पाप ग्रहों के साथ अति क्षीण चंद्रमा लग्न में पांचवें या नवें स्थान में रहा हो तो चोरी के कारण या शूली से मृत्यु होवे । एवं सूर्य चोथे स्थान में रहा हो और मंगल दसवें स्थान में क्षीण चन्द्रमा के साथ हो या क्षीण चन्द्रमा से देखा जाता हो तो शूली से मृत्यु कहना ॥६॥ अथ काष्ठक्षतकृतमृत्युमाह सुखेऽर्के खे कुजे मन्दयुक्तेक्ष्ये काष्ठसम्भवः । स्वाम्बुखस्थैः शानीन्द्वारैः क्रमेण क्षतकीटतः ॥७॥ "Aho Shrutgyanam" Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जन्मसमुद्रः अर्के सुखे चतुर्थस्थे, कुजे खे दशमस्थे, मन्दयुक्तेक्ष्ये च शनिना युक्ते दृष्टे वा सति काष्ठसम्भवः काष्ठताडितस्य जातस्य मृत्युर्जायते । शनीन्द्वारैः शनिक्षीणेन्दुकुजैः क्रमेण स्वाम्बुखस्थैः क्षतकीटतः क्षतस्य व्रणस्य ये कीटाः कृमयः तेभ्यो मृत्युः शरीरपातः स्यात् ।।७।। सूर्य चौथे स्थान में और मङ्गल दसवें स्थान में हो उसके साथ शनि हो या शनि की दृष्टि हो तो लकड़ी से मृत्यु कहना । एवं शनि दूसरे स्थान में, चन्द्रमा चोथे स्थान में और मंगल दसवें स्थान में हो तो घाव के कीडे से मृत्यु कहना ॥७॥ अथ लकुटाहतस्य मृत्युज्ञानमाह यष्टेः केन्द्वारसौरा-रष्टाज्ञाङ्गाम्बुगैर्यथा । कर्मधर्माङ्गधोगैश्च धूमबन्धाग्निकुट्टनात् ॥८॥ केन्द्वारसौराकैः क्षीणेन्दुकुजशनिसूर्यैः यथामार्गेणाष्टाज्ञाङ्गाम्बुगैर्यथासंख्यमेतैरष्टमदशमलग्नचतुर्थस्थैर्यष्टेर्दण्डाहतस्य लकुटताडितस्य जन्तोमृत्युः । अथ च शब्दादेतैः क्रमेण कर्मधर्माङ्गधीस्थैर्दशमनवमलग्नपंचमस्थैरेतैः क्षीणेन्दुकुजशनिसूर्यैः धूमबन्धाग्निकुट्टनाद् धूमेन शरीरबन्धेन वा वह्नितो वा कुट्टनात् खट्वाङ्गादिप्रहरणाद्वा मृत्युभविष्यतीति वाच्यम् ।।८।। क्षीण चन्द्रमा पाठवें स्थान में, मंगल दसवें स्थान में, शनि लग्न में और सूर्य चोथे स्थान में हो तो लकड़ी से मृत्यु कहना। क्षीण चन्द्रमा दसवें स्थान में, मंगल नवें स्थान में शनि लग्न में और सूर्य पांचवें स्थान में हो तो धुग्रां से, शरीर बन्धन से, अग्नि से या किसी के प्रहार से मृत्यु होने का योग है ।।८।। अथ यानकूपयोमृत्युमाह पदे सूर्ये सुखे भौमे स्यन्दनाश्वादियानतः । खास्ताम्बुगैः क्रमाद् वक्र-चन्द्रमन्दैस्तु कूपतः ॥६॥ सूर्ये पदे दशमस्थे, भौमे सुखे चतुर्थस्थे, स्यन्दनाश्वादिपाततः स्यन्दनाच्छकटरथवाहिन्यादिपाताद् अथवाश्वगजवृषभादिपातात् तस्य मृत्युः। अथवा वक्र चन्द्र मन्दैः कुजेन्दुशनिभिः क्रमात् क्रमेण खास्ताम्बुगैः कर्मसप्तचतुर्थस्थैः कूपतः कूपादिपतितस्य मृत्युः ॥६॥ सूर्य दसवें स्थान में और मंगल चोथे स्थान में हो तो रथ या घोड़े आदि की सवारी से गिर कर जातक की मृत्यु होवे । एवं मंगल दसवें स्थान में, चन्द्रमा सातवें स्थान में और शनि चोथे स्थान में हो तो कूना प्रादि में गिर कर मृत्यु होवे ॥॥ "Aho Shrutgyanam" Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ कल्लोलः श्रथ विष्टागतयोगद्वयमाह विष्टान्तर्मन्दमे चन्द्र कुजे तौलिन्यजे यमे । केन्दt खेऽर्केऽस्तगे तुर्ये भौमेऽस्यामेध्यमध्यतः ॥१०॥ चन्द्र मन्दभे मकरकुम्भयोरेकतमस्थे, कुजे तौलिनि तुलास्थे, यमे शनौ अजे मेषस्थे सति विष्टान्तरमेध्यमध्यपतितस्य मृत्युः । अथ केन्दौ क्षीणेन्दौ दशमस्थे सति, अर्कोऽस्तगे सप्तमस्थे, भौमे तुर्ये चतुर्थस्थे सति प्रमेध्यमध्ये पतितस्यास्य मृत्युः ।। १०॥ चन्द्रमा मकर या कुम्भ राशि में हो, मंगल तुला राशि में और शनि मेष राशि में हो तो विष्टा आदि में गिर कर मृत्यु होवे । एवं क्षीण चन्द्रमा दसवें स्थान में, सूर्य सातवें स्थान में और मंगल चौथे स्थान में हो तो विष्टा आदि में गिर कर मृत्यु होवे ॥१०॥ अथ यन्त्रपक्षिजातमृत्युज्ञानमाह ४७ कामे भौमेऽङ्गगैः केन्द्विनाकिभिर्यन्त्रपीडया । सारेऽर्केऽस्ते यमेऽष्टस्थे केन्दौ तुर्ये विहङ्गतः ॥११॥ भौमे मङ्गले कामे सप्तमस्थे सति, केन्द्विनाकिभिः क्षीरणचन्द्ररविशनिभिरङ्गगैर्लग्नस्थैर्यन्त्रपीडया यन्त्रमुक्तस्येत्यर्थः । अथार्के सारे सकुजेऽस्ते सप्तमस्थे सति, यमे शनौ अष्टमस्थे च केन्दौ क्षीणेन्दौ तुर्ये चतुर्थस्थे सति विहङ्गतः पक्षिभ्यो मृतिः । यतोऽग्नेः संस्कारो न स्यात् ।। ११ ।। मंगल सातवें स्थान में तथा क्षीण चन्द्रमा, रवि और शनि ये लग्न स्थान में हो तो किसी यन्त्र से मृत्यु होवे । श्रथवा मंगल के साथ सूर्य सातवें स्थान में, शनि आठवें स्थान में और क्षीण चन्द्रमा चोथे स्थान में हो तो पक्षियों से मृत्यु होवे ॥११॥ अथ गुह्यविद्य त्पर्वतकुडवकृतमृत्युज्ञानमाह - बल्यारेक्ष्ये विधौ छिद्र यमे गुह्यात्तिकर्मतः । धर्मध्यष्टाङ्गकेन्द्वाराकनैः शम्याद्रिकुडयतः ॥१२॥ विधौ प्रत्यासन्नोक्तत्वात् क्षीरणेन्दौ बल्यारेक्ष्ये बली बलिष्ठो यः आरः कुजस्तेनेक्ष्ये दृष्टे सति, यमे शनौ छिद्र े ऽष्टमस्थे च गुह्यात्तिकर्मतः गुह्यस्य य प्रातिः पीडा तस्या मृत्युः, गुह्यकर्मत इत्यर्थः । गुह्यकर्मतः शस्त्राद्दाहाद् भगन्दराद्वा मृतिः । धर्मध्यष्टाङ्ग इति धर्म नवमं, धीः पंचमम्, अष्टमं प्रसिद्धम् श्रङ्ग लग्नं येषु स्थानेषु गताः स्थिता ये केन्द्वारार्कीनाः क्षीणेन्दुकुजशनि सूर्यास्तै शम्याद्रि "Aho Shrutgyanam" Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जन्मसमुद्रः कुडयतः शम्याया विद्युतः, अद्र: पर्वतपाताद्वा कुड्यतो गृहभित्तिपाताद्वा मुत्युः ।।१२।। क्षीण चन्द्रमा को बलवान मंगल देखता हो और शनि पाठवें स्थान में हो तो भगंदर प्रादि रोग से गुह्य स्थान की पीड़ा से मत्य होवे । एवं क्षीण चन्द्रमा नवें स्थान में, मंगल पांचवें स्थान में, शनि पाठवें स्थान में और सूर्य लग्न में हो तो बिजली से, पर्वत से गिर कर या दीवाल आदि के गिरने से मृत्यू होवे ॥१२॥ अथ शैलजस्वजनोत्थमृत्युज्ञानमाह सूर्यारौ खाम्बुगौ शैलाद् द्वयङ्गाङ्गऽविधू जलात् । कन्यास्थौ पापदृष्टौ चेदर्केन्दू स्वजनादपि ॥१३॥ .. सूर्यारौ समकालौ खाम्बुगौ वा खं दशमं तत्र स्थितौ अम्बु चतुर्थं तत्र स्थितौ वा शैलात् शिलाया भवोऽयं शैलः तत् पाषाणान्मृत्युः। अथार्कविधू सूर्यचन्द्रौ अन्यशास्त्रदृष्टत्वाच्छनीन्दू वा द्वयङ्गाङ्ग द्विस्वभावलग्नस्थौ यदि ततो जलाज्जले मज्जनतो मृत्युः । अप्यथवार्केन्दू कन्यास्थितौ पापदृष्टौ चेद् यदि तदा स्वजनाद् विनाश: स्वकेन जनेन व्यापाद्यत इत्यर्थः ।।१३।। सूर्य और मंगल दोनों एक साथ दसवें स्थान में या चोथे स्थान में हों तो पर्वत से अर्थात् पाषाण से मृत्यु होवे । एवं सूर्य और चन्द्रमा अन्य शास्त्र के अनुसार शनि और चन्द्रमा ये द्विस्वभाव राशि के होकर लग्न में रहे हों तो पानी से मृत्यु होवे। सूर्य और चन्द्रमा कन्या राशि में हों और उनको पापग्रह देखते हों तो अपने घर के मनुष्य के हाथ से मृत्यु होवे ॥१३॥ अथ शस्त्राग्निराजकोपगुप्तिकृतमृत्युज्ञानमाह कामेऽऽम्बुनि भौमे खे शनौ शस्त्राग्निराधः । भुजंगनिगडत्र्यंशैरष्टस्थैर्गुप्तितोऽस्ति सः ॥१४॥ कामे सप्तमस्थेऽर्के अम्बुनि चतुर्थस्थे भौमे, खे दशमस्थे शनौ सति शस्त्राग्निराट, धः शस्त्रात् खड्गकुन्ततोमरादितोऽग्नितो वा राट्क्रुधः राज्ञो या क्रुट् कोपस्तस्माद्वा मृत्युः । अथ भुजङ्गनिगडत्र्यशैर्भु जगनिगडनामद्रेष्काणरष्टमस्थैर्गुप्तितोऽस्ति भवने निगडबद्धस्येत्यर्थः। भुजङ्गनिगडनामानौ द्रेष्काणौ कथं ज्ञेयावित्याह-वृश्चिकस्यद्यो द्रेष्काणो द्वितीयो वा, मीनस्य तृतीयो वा भुजंगनामा ज्ञेयः । मकरस्याद्यो द्रेष्काणो निगडनामा ज्ञेयः । स द्रेष्काणो जन्मलग्ने यदि भवति तदाष्टमे स ज्ञेयस्तैः द्रष्काणैरष्टमस्थैर्बन्धाद् गुप्तिगृहगतस्य मृत्युः ।।१४।। "Aho Shrutgyanam" Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ कल्लोलः ४६ सूर्य सातवें स्थान में, मंगल चौथे स्थान में और शनि दसवें स्थान में हों तो शस्त्र, अग्नि या राजा के क्रोध से मृत्यु होवे । यदि पाठवां स्थान भुजंग या निगडनाम के द्रषकारण में हो तो जेलखाने में मृत्यु होवे । वृश्चिक राशि का प्रथम और दूसरा द्रषकारण तथा मीन राशि का तीसरा द्रषकारण भुजंग नाम का द्रषकारण कहलाता है। एवं मकर राशि का पहला द्रषकाण को निगड नाम का द्रषकारण कहते हैं ॥१४॥ अथ योगान्तरमाह यत्र व्यंशेऽजनिष्टातो द्वाविंशो यश्च तत्पतेः । यत्रर्वेऽसौ तु तत्पात्स कालपुङ्गाष्टगाङ्गभूः ॥१५॥ यत्र त्र्यंशे द्रेष्काणेऽजनिष्ट जातो यो बालोऽतोऽस्माद् द्रेष्काणात् यो द्वाविंशो द्रेष्काणश्चकारादष्टमस्थः स मृत्युकारणमुक्तः । कथमित्याह-तत्पतेस्तस्य द्वाविंशद्रेष्काणस्य यः पतिस्तस्मान्मृत्युर्वयम्भोऽस्त्रज्वरामत इत्यादिदोषेण स मृत्युः कथ्यः । तु पुनरसौ द्वाविंशत्र्यंशो यत्र ऋक्षौ राशौ भवेत् तत्पात् तं द्वाविंशंद्रेष्काणं पातीति तस्य द्रेष्काणस्य नाथात् तदुक्तरोगदोषेणेत्यर्थः । स द्वाविंशो द्रेष्काणोऽष्टमस्थाने कथं ज्ञेय इत्युच्यते-यदि लग्नस्य प्रथमो द्रेष्काणस्तदाष्टमस्यापि प्रथमः । यदि लग्ने द्वितीयस्तदाष्टमोऽपि द्वितीयः। यदि लग्ने तृतीयस्तदाष्टमेऽपि तृतीयः। सर्वराशीनामेषा व्यवस्था। अनेन क्रमेण योऽष्टमे द्रेष्काणः स एव द्वाविशद्रेष्काण इति । स कस्मिन्नङ्ग रोगो जायत इत्याहकालपुङ्गाष्टभागभूः कालपु सिगतं यदष्टमं भं अष्टमराशिस्तस्य यदङ्ग तस्माद् भवतीति । तत्राङ्ग रोगोऽस्तीति तस्मान्मृत्युः । अथोक्तयोगाभावेऽष्टमग्रहस्थाने ग्रहयुतिदृष्टिरहिते वसति द्वाविंशतिद्रेष्काणाधिपाष्टमराश्यधिपयोर्यो बलवान् तदुक्त दोषेण मृत्युः । तु शब्दात् तत्पादष्टपादित्यर्थः ॥१५॥ बालक का जन्म जिस ट्रेषकाण में हुअा हो उस द्रषकाण से बाईसवा द्रषकाण ( आठवें स्थान का द्रषकाण) के स्वामी मृत्युकारक योग है । पाठवें स्थान की राशि का पति और बाईसवां द्रषकारण का पति इनमें जो बलवान हो उसके अनुसार रोगादि से मृत्यु हो ॥१५॥ अथ काकादिकृतमृत्युज्ञानमाह मृगाद्यो निगडस्त्र्यंशोऽहिः कर्काल्यादिमो द्विकः । मीनान्त्यश्चाष्टमस्थेऽत्र काकश्चाद्यैः स भक्ष्यते ॥१६॥ मृगस्य मकरस्याद्यः प्रथमो यस्त्र्यंशो द्रेष्काणोऽस्ति निगडो नाम । कर्कस्यादिमो वृश्चिकस्यादिमो द्वितीयश्च; मीनस्य तृतीय द्रेष्काणोऽहिर्भुजङ्गो नाम । "Aho Shrutgyanam" Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जन्मसमुद्रः अत्र द्रेष्काणेऽष्टमस्थे सति यत्पूर्व निगडैर्बद्धो म्रियते इत्युक्तं स काकश्वाद्यैः काककुक्करशृगालनकुलकोलमूषकैर्भक्ष्यते, यतोऽग्निसंस्कारो न स्यात् तस्य ॥१६॥ मकर का पहला द्रषकाण को निगड नाम का द्रषकाण कहते हैं । कर्क राशि का पहला द्रषकाण, वृश्चिक राशि का प्रथम और दूसरा द्रषकाण, एवं मीन राशि का तीसरा नेषकारण ये चारों भुजंग नाम का द्रषकारण कहा जाता है। इस निगड या भुजंग नाम का द्रषकाण में आठवां भाव हो तो जेलखाने में बेडी से बंधा हुमा मरे या उसको कोप्रा, कुत्ता, शियार, नेवला, चूहा आदि भक्षण कर जावे परन्तु अग्नि संस्कार न होवे ॥१६॥ अथ जलाग्निप्रक्षेपासंस्कार शोषकृतमृत्युज्ञानमाह सौम्यस्यैष जले क्षेप्यः पापस्यैवं च पावके । पापस्य सेष्ट एवं वा सतः सोऽग्रोऽथ शुष्यति ॥१७॥ एष द्वाविंशद्रेष्काणश्च शब्दाष्टमस्थः सौम्यस्य शुभस्य सक्तो यदि तदा जले क्षेप्यो भवति, मृतः सन् जले क्षिप्यत इत्यर्थः । अथ च शब्दात स द्रेष्काणः पापस्यैवमष्टमस्थो यदि तदा पावकेऽग्नौ क्षेप्यो यतोऽग्निसंस्कारो न भवति । वाथवैवं सोऽपि द्रेष्काणोऽष्टमस्थः पापस्य सक्तः सेष्ट इष्टेन शुभेन सह वर्तमानः स शुभो यदि तदा सोऽपि शुष्यति । अथवैवं सोऽपि त्र्यंशोऽष्टमस्थ: सतः शुभस्य सोनः सपापो यदि तदा शुष्यति स मृतः सन् न दह्यते, न बाल्यते वेत्यर्थः ।।१७।। जो बाईसवां द्रषकारण शुभ ग्रह हो तो मृत शरीर को पानी में डूबो दिया जाय । और पाप ग्रह का हो तो अग्नि में रखा जाय । बाईसवां द्रषकारण पाप ग्रह का हो, परन्तु शुभ ग्रह साथ हो तो मृत शरीर सूखा पड़ा रहे । एवं बाईसवां द्रषकारण शुभ ग्रह का हो परन्तु पाप ग्रह के साथ हो तो मृत शरीर सूखा पड़ा रहे, उसका अग्नि संस्कार न होवे ॥१७॥ अथ कस्यां भूवि म्रियत इतिज्ञानमाह लग्नांशपतियुक्तःसमायां भुवि मृत्युता। देवाऽम्भोऽग्निक्रीडाकोशस्वप्नधूल्यवनौत्विनात् ॥१८॥ जन्मकाले लग्नांशपतिरिति । लग्नस्य योंऽशो नवमांशस्तस्य पतिस्तेन युक्तं सदृश राशिस्तस्य समा सदृशी भूमिस्तस्यां भूमौ मृत्युर्वांच्यः । तद्यथायदि स राशिौषराशिस्तदा छागीभूर्मेषादिप्रचारायां भुवि तस्य मृत्युभविष्यति । एवं स वृषराशिस्तदा वृषमहिष्यादिप्रचारायां भूमौ । एवं मिथुनराशिस्तदात्मीयगेहे । कर्कस्तदा जलाश्रये । सिंहस्तदा वने । कन्या चेद् बेडायां जले वा। तुलायां "Aho Shrutgyanam" Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** चतुर्थ कल्लोलः हट्ट, वृश्चिके विवरे गर्त्तायां । धनुष्यश्वादिप्रचारायां । मकरे जलाश्रये । कुम्भे, गृहे । मीने नदीवापीकूपादिजले मृत्युरिति । अथवा इनात् सूर्यादेर्यथा मृत्युः स्यात् तद्यथा-देवाम्भोऽग्नीति | लग्नांशपतौ रवौ देवावनौ देवभूमी मृत्युः । चन्द्र जलाश्रये, भौमेंऽशपती अग्निस्थाने रन्धनादिस्थले, बुधे क्रीडागृहे, गुरौ भाण्डारे, शुक्रे शय्यास्थाने, शनौ धूलौ पुञ्जकमध्ये मृत्युर्भविष्यतीति द्वितीयरीत्या भूमिज्ञानम् । अर्थान्तरात् पूर्वोक्त राशिलग्नांशनाथयोर्यो बलवांस्तदुक्तभुवि मृत्युर्वाच्यः । अथानुषङ्गिणं सारावलोशास्त्रान्मेषादिराशिद्र ष्काणेभ्यः प्रत्येकं मृत्युमाह, तद्यथा—मेषस्य प्रथमद्र षकाणे क्रू रैदृ ष्टे सति एतत्सर्वेषु द्र ेष्काणेषु ज्ञेयम् । श्रथ प्रथमे त्र्यंशे यो जातः शूलीविषसर्पपित्तविकाराणामेकतमेन म्रियते । द्वितीये द्रेष्काणे यो जातः स शकटयपातविद्युद्वनजलानामेकतमेन म्रियते । तृतीये त्र्यंशे यो जातः स कृपसरः शस्त्राणामेकतमेन । वृषस्य प्रथमद्रेष्काणे यो जातः स शरभाश्वखरोष्ट्राणामेकतमेन म्रियते । द्वितीये पित्ताग्निदावानलचोरतः । तृतीये वाहनाश्वपातरणशस्त्रतः । मिथुनस्य प्रथमे द्रेष्काणे कासश्वासजलात् । द्वितीये वृषमहीषादिविद्युत्संनिपातानामेकतमेन म्रियते । तृतीये गजवनशैलात् । कर्कस्यादिमे त्र्यंशे श्वासमद्यपानकण्टकस्वप्नाद्वा । द्वितीये घातविषाद्वा, तृतीये प्लीहकप्रमेहरोगात् । सिंहस्यादिमे जलविषयादिरोगात् । द्वितीये जलामयकृतवन्रोद्देशे, तृतीये विषशस्त्रगुदरोगात् । कन्याया आदिमे शिरोरोगानिलात् । द्वितीये गिरिसर्पभयात् । तृतीये खरकरभास्त्रजलपानात् । तुलायाः प्रथमे स्त्रीचतुष्पदपातात् । द्वितीये जलोदररोगात् । तृतीये सर्पजलात् । वृश्चिकाद्य विषशस्त्र स्त्रीरसान्नपानात् । द्वितीये कटिबस्तिरोगात् । तृतीये पाषाणलोष्टघातजङ्घास्थिरोगात् । धनुः प्रथमे गुदधातात् । द्वितीये विषवातात् । तृतीये जठररोगात् । मकारादिमे नृपसिंहशूकरात् । द्वितीयेऽस्त्रचोराग्निज्वरात् । तृतीये जलविकारात् । कुम्भस्यादिमे स्त्रीतो यो द्विषगिरेः । द्वितीये स्त्रीगुह्यरोगात् । तृतीये चतुष्पदमुखरोगात् । मीनादिमे गुल्मग्रहणीप्रमेहरोगस्त्रीतः । द्वितीये गृहपातजङ्घाजलरोगात् । तृतीये कुत्सितरोगेण मृत्युः । इति राशिद्रेष्काणे मृतिः ।। १८॥ जन्म लग्न के नवमांश के स्वामी के सदृश या नवमांश पति से युक्त राशि के सदृश भूमि में मृत्यु होवे । जैसे राशि मेष हो तो बकरी आदि के स्थान में, वृष राशि हो तो गौ, भैंस श्रादि के स्थान में, मिथुन राशि हो तो अपने घर में, कर्क राशि हो तो जलाशय में, सिंह राशि हो तो जंगल में, कन्या राशि हो तो जहाज में या जल में, तुला राशि हो तो दुकान में, वृश्चिक राशि हो तो खड्ड में, धन राशि हो तो घोड़े के स्थान में, मकर राशि हो तो " Aho Shrutgyanam" Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जन्मसमुद्रः जल में, कुम्भ राशि हो तो घर में और मीन राशि हो तो नदी, बावड़ी, कुग्रा आदि जलाशय में मृत्यु होवे । लग्न के नवमांश का स्वामी सूर्य हो तो देवस्थान में, चन्द्रमा हो तो जलाशय में, मंगल हो तो अग्नि स्थान में, बुध हो तो क्रीड़ाघर में, गुरु हो तो भंडार के स्थान में, शुक्र हो तो शैया के स्थान में और शनि हो तो धूलवाली भूमि में मृत्यु होवे । सारावली ग्रन्थ में कहा है कि-जन्म यदि मेष के प्रथम द्रषकाण में हो तो शूली, विष, सर्प या पित्त विकार से मरे । दूसरे द्रषकाण में हो तो गाड़ी घोड़ा आदि से गिर कर या बिजली के गिरने से जंगल में या पानी में मृत्यु होवे। तीसरे द्रषकारण में हो तो कुमा, सरोवर प्रादि जलाशय में अथवा शस्त्र से मृत्यु होवे । जन्म यदि वृष राशि के प्रथम द्रषकारण में हो तो शस्त्र (अष्टापद ) घोड़ा, गधा अथवा ऊंट से मृत्यु कहना । दूसरे द्रषकारण में हुग्रा हो तो पित्त विकार, अग्नि दावानल या चोर से मारा जाय । तीसरे में होने से वह वाहन या घोड़े आदि से गिर कर या युद्ध में शस्त्र से मरे । मिथुन राशि के प्रथम द्रषकाण में जन्म हुअा हो तो खांसी, श्वास या जल से मरे । दूसरे में जन्मा हुअा गाय, भैंस प्रादि से या बिजली गिरने से मरे । तीसरे में जन्मा हुया हाथी या पर्वत से गिर कर जंगल में मारा जाय । कर्क राशि के प्रथम द्रषकाण में जन्मा हुअा श्वास, मदिरापान, कांटे या स्वप्न से मरे । दूसरे में हो तो वह घाव या विष से मरे । तीसरे में हो तो प्लीहा, प्रमेह आदि रोग से मरे । सिंह राशि के प्रथम द्रषकाण में जन्म हो तो वह जल या विषय रोग से मरे । दूसरे में जल वाले वन प्रदेश में मरे । तीसरे में विष, शस्त्र या गुदा रोग से मरे। कन्या राशि के प्रथम द्रषकाण में जन्म हो तो सिर रोग से, दूसरे में हुया हो तो पर्वत से या सर्प के भय से, तीसरे में जन्मा हुआ गधा, हाथी, शस्त्र या जहाज आदि से मरे । तुला राशि के प्रथम द्रषकारण में जन्मा हुअा स्त्री या पशु द्वारा मारा जाय। दूसरे में जन्मा हुया जलोदर रोग से, तीसरे में जन्मा हुमा सांप या जल से मरे । वृश्चिक के प्रथम द्रषकाण में जन्मा हुआ विष, शस्त्र, स्त्री या रसवाले अन्नपान से मरे । दूसरे में जन्मा हुग्रा कम्मर या बस्ति रोग से मरे । तीसरे में जन्मा हुअा पाषाण या मट्टी के ढेले के घाव से या जांघ की हड्डी के रोग से मरे । धन राशि के प्रथम द्रषकाण में जन्मा हुअा गुदा के घाव से दूसरे में जन्मा हुअा विष से या वायु रोग से, तीसरे में जन्मा हुअा जठर रोग से मरे । मकर के प्रथम द्रषकाण में जन्मा हुअा राजा, सिंह या सुअर आदि से, दूसरे में जन्मा हुआ शस्त्र, चोर, अग्नि या ज्वर से, तीसरे में जन्मा हुया जल विकार से मरे। कुम्भ के प्रथम द्रषकारण में जन्मा हुअा स्त्री से, दूसरे में जन्मा हुया स्त्री से या गुदा रोग से, तीसरे में जन्मा हुअा पशु से या मुख रोग से मरे। मोन के प्रथम द्रषकाण में जन्मा हुया गुल्म संग्रहणी प्रमेह आदि रोग से या स्त्री से, दूसरे में जन्मा हुमा घर गिरने से या जांघ के रोग से, तीसरे में जन्मा हुआ दुष्ट रोग से मरे ॥१८॥ "Aho Shrutgyanam" Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ कल्लोलः अथ मृत्युकालज्ञानमाह लग्नभुक्तांशकालोऽस्ति तावन्मोहोऽत्यये भवेत् । स्वामीष्टेण्टेशयुक्तेक्ष्ये वाङ्गतद् द्वित्रिषड्गुण: ॥१६॥ लग्नस्य जन्मलग्नस्य ये भुक्तांशा नवांशास्तेषां पिण्डितानामेकत्रमिलितानां यावान् कालोऽस्ति तावान् तावत्संख्यो मोहोऽत्यये मृत्युसमये भवेत् । परमङ्ग लग्ने 'स्वामीष्टेष्टेशयुक्तेक्ष्ये' सति मोहस्तस्मादुक्तकालाद् द्वथादिगुणः क्रमेण वाच्यः। यथा लग्नस्वामिना दृष्टे युक्ते स एव कालो द्विगुणः। लग्ने इष्टः शुभैर्यु ते दृष्टे वा सकालस्त्रिगुणः । लग्ने इष्टेशयुक्तेक्ष्ये दृष्टाः शुभा ईशः स्वामी तैर्युक्ते दृष्टे वा स उक्तकालः षड्गुणो वाच्यः ।।१६।। लग्न के भुक्त नवमांश संख्या तुल्य दिन तक मृत्यु के समय मोह रहे । यदि लग्न का स्वामी लग्न में हो या लग्न को देखता हो तो द्विगुण समय तक मोह रहे। लग्न में शुभ ग्रह हो या शुभ ग्रह देखता हो तो त्रिगुरण दिन तक मोह रहे । लग्न में लग्न का स्वामी और शुभ ग्रह हो या देखते हों छगुण दिन तक मोह रहे ॥१६॥ अथ क्वगतो गमिष्यति मृतो वेति ज्ञानमाह - केन्द्रार्यष्टोच्च संस्थेज्ये मीनाङ्गस्थे शुभांशगे। होनैरन्यैध्र वाष्टारित्र्यंशपस्यास्ति सा गतिः ॥२०॥ __ इज्ये गुरौ केन्द्रगते, अरौ षष्ठेऽष्टमे वा, उच्चे कर्कटस्थे वा सति ध्र वा गति : मोक्षगतिः । वा मीनाङ्ग मीनलग्नस्थे गुरौ शुभांशगे शुभनवांशस्थे वा, अन्य शेषैविना गुरु हीनबलैः कृत्वा निश्चला गतिर्भवति । याति यास्यति वा मोक्षमिति वाच्यम् । अथाष्टारित्र्यंशपस्य या पूर्वमुक्ता सा गतिः । यथा षष्ठाष्टमयोर्मध्ये यो बलवान् व्यंशस्य पतिस्तस्य यो लोक उक्तस्तत्र लोके तस्य मृतस्य गतिः कथ्या । शास्त्रान्तरादथ सप्ताष्टमानामन्यतमस्थः कश्चिद्ग्रहो भवति तस्य ग्रहस्य यो लोको दर्शितस्तत्र गतः सोऽपि मृत इत्तर्थः । अतः कारणादत्र न व्याख्यातो द्रषकाणपतेर्लोकः । यतो जन्मकाले प्रथम कल्लोले भवितोऽस्ति विस्तरेण ॥२०॥ इति वृत्तिबेड़ासज्ञायां जन्मसमुद्रविवृतौ निर्वाणलक्षणो नाम चतर्थः कल्लोलः ॥४॥ वृहज्जातक, अ० २५, श्लोक १२ में 'मोस्तु मृत्युसमयेऽनुदितांशतुल्यः' ऐसा पाठ होने से लग्न का भोग्य नवमांश माना गया है। "Aho Shrutgyanam" Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जन्मसमुद्रः गुरु केन्द्र में, छटे या आठवें स्थान में अपनी उच्च राशि (कर्क राशि) का होकर रहा हो तो मोक्ष गति होवे । मीन लग्न में रहा हा गुरु शुभ ग्रहों के नवमांश में हो और दूसरे ग्रह निर्बल हों तो मृतक की मोक्ष गति होवे । छटा या आठवां स्थान में जो बलवान हो उसके द्रषकारण के स्वामी का जो लोक है, वह गति कहना । अन्य शास्त्र में कहा है किसातवें या आठवें स्थान में जो ग्रह हो, उस ग्रह के लोक तुल्य लोक में मृतक की गति कहना । द्रषकाण के स्वामी के लोक का ज्ञान प्रथम कल्लोल के अन्तिम श्लोक में कहा है, वहां से देख लिया जाय ॥२०॥ इति श्री नरचंद्रोपाध्याय विरचित जन्मसमुद्र के निर्वारणलक्षण नाम का चतुर्थ कल्लोल समाप्त। "Aho Shrutgyanam" Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधुना द्रव्योपार्जनराजयोगलक्षणो नाम पंचमः कल्लोलो व्याख्यायते । तत्रादौ धनोपार्जनज्ञान माह मूर्त्तर्यन्नवमं चेन्दो- र्युक्तं तत्पेन वीक्षितम् । तन्मित्रैर्वा निजे देशे धनी त्वन्पैस्तथा परे ॥ १ ॥ मूर्त्तेर्जन्मलग्नस्य, इन्दोरचन्द्रस्य, अनयोर्मध्याद् यो बलवांस्तस्माज्जन्मलग्नाच्चन्द्राद्वा यन्नवमं भाग्यं तदुच्यते तस्य भाग्यपतिः क्वस्थानेऽस्ति । अथ भाग्यस्थितो ग्रहः कोऽप्यस्ति बलवान् निर्बल इति ज्ञेयं प्रथमम् । पश्चान्नवमं स्थानं तदुक्तं तस्माद् भाग्यं कल्प्यम् तन्नवमं तत्पेन तन्नवमं पाति रक्षति इति तत्पस्तन्नाथस्तेन भाग्येशेन, वाथवा तन्मित्रैर्भाग्याधिपतिमित्रैः । अथार्थवशाद् भाग्योच्चपतिना युक्तमीक्षितं च यदि भवति ततो निजदेशे ग्रात्मीयदेशे धनी धनाढ्यः, धनमुपार्जयेदित्यर्थः । तु पुनरन्यैर्भाग्याधिपशत्रुनिर्बलिभिस्तथेति कोऽर्थः ! युक्तं दृष्टं वा यदि भाग्यं भवति, भाग्याधिपं तन्मित्रयुक्तं दृष्टं वा न भवति तथा परे परदेशे गतो धनी विदेशगतो धनमर्जयतीत्यर्थः । अर्थवशाद् बलिष्ठभाग्यपति मित्रोच्चपतिनामेकतमेन युक्तं दृष्टं च शेषैः स्यात् ततो निजदेशे च धनीतिरीत्या शेषं स्वधिया योज्यम् । जन्म लग्न से या चन्द्रमा से जो नवां स्थान है, वह भाग्य स्थान है । इस भाग्य स्थान का पति, भाग्येश का मित्र या भाग्येश के उच्च राशि का पति, इनमें से कोई भाग्य स्थान में रहा हो या भाग्य भवन को देखता हो तो अपने देश में धन उपार्जन करे । यह योग न हो तो परदेश में धन उपार्जन करे। यदि भाग्येश के बलवान शत्रु ग्रह से भाग्य भवनयुक्त हो या दृष्ट हो और भाग्येश अपने मित्र के साथ या दृष्ट न हो तो परदेश में धन प्राप्त करे । परन्तु भाग्येश बलवान हो अपने मित्र के साथ या अपनी उच्च राशि के ग्रह के साथ हो या देखे जाते हो तो अपने देश में धन प्राप्त करें ॥१॥ अथ कस्मादर्थमुपार्जयेत् तत्र गतोऽसौ तज्ज्ञानमाह लग्नेन्द्वोः खस्य यो राशिर्बली यादृगथो खपः । तत्सदृग्वस्तु देशादेरर्थलाभस्तु नान्यथा ॥२॥ लग्नेन्द्वोर्लग्नचन्द्रयोः, अनयोर्मध्ये यो बलवान् बली तस्मात् खस्य दशमस्य यो राशिः । अथो खपः कर्मपतिर्बलवान् बली यादृक् यद्रूपो भवति ग्रामारण्य "Aho Shrutgyanam" Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जन्मसमुद्रः जलस्थलरूपशुभपापग्रहद्विपदचतुष्पदसरीसृपोभयरूपानामेकतमरूपो भवेत् तत्सदृशवस्तुदेशस्तस्य दशमस्य राशेर्दशमपतेर्वा सहक् सदृशं यद्वस्तु यद्दे शरूपादिकं स्यात् ततोऽर्थलाभोऽस्ति । तस्य जातस्य तत्र पूर्वोक्तदेशंगतस्य भवतीर्थः । तु पुनर्नान्यथा । अनेन प्रकारेण नार्थलाभ इत्याह—यदि दशमस्य राशिपतिर्वा निर्बलो भवेत् ततस्तादृश वस्तुदेशादेर्थिलाभो भवति, किन्तु भोजनमात्रं स्याद् इत्यर्थः ।।२।। लग्न या चन्द्रमा इनमें जो बलवान् हो उससे दसवां स्थान की राशियां दसवां स्थान का राशिपति इनमें जो बलवान हो उसके अनुसार वस्तुओं से धन प्राप्त होवे । यदि दशम राशि या दशम राशिपति निर्बल हो तो धन का लाभ अधिक न होवे केवल उदर निर्वाह होवे ॥२॥ प्रसङ्गागतं सारावलीयं दशमस्य मेषादिराशिपत्योर्वर्गफलमुच्यते होराराशिनोर्बलवान् यस्तस्मात् कर्मगस्य यो राशिः स्यात् । यो बलयुक्तो वर्गस्तदधिपतौ वा तदादिशेद् वृत्तिम् ॥१॥ प्रसंगोपात 'सारावली' ग्रन्थ से दसम स्थान में रहे हए मेषादि राशि या मेषादि राशि के पति के अनुसार फल बतलाते हैं-लग्न या चन्द्रमा इनमें जो बलवान हो उससे दशम स्थान की राशि के वर्ग बल के अनुसार या राशिपति के अनुसार जातक की आजीविका कहना ॥१॥ आरामपत्रसेवाकृषिरसवणिगक्षदूतकार्येण । जीवन्ति नरा नित्यं मेषगरणे दशमराशिस्थे ॥२॥ यदि दसवें स्थान में मेष राशि हो तो पाराम पत्र सेवा, खेती, रस वणिक वृत्ति और दूत इत्यादि कार्यों से जातक जीवे ॥२॥ वृषभगणों दशमस्थे शकटचतुष्पदविहङ्गगृहजीवी । धान्यादिसंग्रहेण च जाङ्गलदेशे फलं भवति ।।३॥ दशम स्थान में वृष राशि हो तो गाड़ी, पशु, पक्षी, गृहजीवी और धान्य संग्रह आदि से जंगल प्रदेश में आजीविका करे । जलवणिजः सुसमृद्धा मुक्ताशंखप्रवालभाण्डैश्च । लिपिलेख्यगणितजीवी नृमिथुनवर्गे च दशमस्थे ॥४॥ दसम स्थान में मिथुनराशि हो तो जल, वणिक वृत्ति, मोती, शंख, प्रवाल, बरतन, लेखन विद्या और गणित विद्या इनके द्वारा धन उपार्जन करें॥४॥ "Aho Shrutgyanam" Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कल्लोलः शस्त्राग्नियोनिपोषणमुक्ताशङ्खोपजीविनो जाता । आहिण्डिकवृत्या वा कर्कस्य गरणे दशमस्थे ॥५॥ दशम स्थान में कर्क राशि हो तो शस्त्र, अग्नि, योनि पोषण, मोती और शंख या शिकार द्वारा धन उपार्जन करें ॥ ५॥ संवाहकामिनीनां पावारण सुवर्णरूप्यकुम्भैश्च 1 करण निरताः सिंहे गोजीवा धान्यवाणिजकाः ॥६॥ दशम स्थान में सिंह राशि हो तो स्त्रियों के संवाह से, पाषाण, सोना, चांदी, कलश खेती, गौ या धान्य विक्रय आदि से धन उपार्जन करें || ॥ शाकारिकास्तक्षणिका हैरण्यकगन्धविक्रये दक्षाः । गान्धवं शिल्पलेख्यैः कन्या वर्गे सदा विशुचा ॥७॥ दशवें स्थान में कन्या राशि हो तो कास्तकारी से सोने और सुगन्धित वस्तुत्रों को बेचने से गान्धवं शिल्प और लेखन कलाओं से धन प्राप्त करें ॥७॥ धनधान्यमूलवणिजः फलमूलकृषीवला एव । जायन्ते घटवर्गे कलास्वभिज्ञा दशमगर्तः ||८|| ५७ दसवें स्थान में तुला राशि हो तो धन-धान्य, मूल आदि के व्यापार से फल-मूलादि की खेती कर के धन प्राप्त करें। यह कलाओं को भी जानने वाला है ||८|| स्त्री सम्पर्कज विभवाः कर्षणनिरतोद्यतास्तथा चौराः । भृत्या वैद्या लुब्धा वृश्चिकवर्गे दशमसंस्थे ॥ ॥ दसवें भवन में वृश्चिक राशि हो तो स्त्री के सम्बन्ध से विभव वाला, खेती करने वाला, चौर सेवक वैद्य और लोभी होता है ॥६॥ B नृपमंत्री दुर्गपालन गौरासभवानिकाष्ठशकुनैश्च यंत्रोपस्कर गणितंर्जीवन्ति चिकित्सया धनुषः ॥ १०॥ दसवें स्थान में धन राशि हो तो राजा, मंत्री या कोतवाल या गौ, भैंस से, लकड़ी से निमित्तों से, यंत्रों से या गणित वैद्यक विद्या से आजीविका करें ॥ १०॥ दशमे च मकरवर्गे जलपण्यधनं भवेन्महाविभवी । केदारद्र, मरो पण रसायनैर्जीव्यते जातः ॥११॥ दसवें स्थान में मकर राशि हो तो पानी या क्रयारणक के व्यापार से अच्छा वैभवशाली होवे, वृक्षों के रोपने से या रसायनों से धन प्राप्त करें ॥११॥ "Aho Shrutgyanam" Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शस्त्रदहनादिभेदेश्वोर्येण वर्त्तते खननवृत्त्या । दशमे घटवरवर्गे भारकवहनेन बाहुबलात् ॥ १२ ॥ दसवें स्थान में कुम्भ राशि हो तो शस्त्रों से, अग्नि से, चोरी से, खोदने के काम से या भुजबल से भार वहन करके अपनी प्राजीविका चलावें ॥१२॥ शास्त्रादुदकाद् योनिप्रपोषरणा दस्त्रविक्रयादेव 1 वर्गे मीनप्रभवे दशमस्थे जायते वृत्तिः ॥ १३ ॥ दसवें स्थान में मीन राशि हो तो शास्त्र से, जल योनि से, प्याऊ से या कर अपनी आजीविका चलावे ॥ १३ ॥ इत्यादिकं फलं सूर्यादिकर्मस्थैश्च ज्ञेयम् । अथ योगान्तरमाह जन्मसमुद्रः शस्त्र बेच तयोरथ खगोsर्कादिः सोऽर्थदः स्वदशां गतः । तातात्तातानुगाच्छत्रो - मित्राद् भ्रातुः स्त्रिया भृतः ॥ ३ ॥ अथैनयोर्लग्नचन्द्रयोर्योऽर्कादिग्रहः खगः कर्मगतः स स्वदशायां गतः सन् प्रर्थदो धनदाता क्रमेण भवति । तद्यथा - लग्नाच्चन्द्राद्वा रविर्दशमस्थो यदि तदा तस्य जातस्य स्वदशायां गतस्तातात् पितुरर्थदो भवति । एवं यदि चन्द्रस्तदा तातानुगात् पितृसेवकाद् धनदः । एवं यदि भौमस्तदा शत्रोः रिपुतोऽर्थदः । एवं यदि बुधो मित्राद् धनदः । एवं यदि गुरुस्तदा भ्रातुः सहोदरात् । एवं यदि शुक्रस्तदा स्त्रियाः स्त्रीतः । एव यदि शनिस्तदा भृतेः कर्मकारादर्थदः स्वदशायाम् । यदा द्वौ बहवो वा ग्रहाः कमंगता भवन्ति तदा त एव स्वदशायां धन दातारः ।।३॥ लग्न अथवा चन्द्रमा से दसवें स्थान में सूर्यादि जो ग्रह हो, उसकी दशा में वह ग्रह धन दायक होता है । जैसे - लग्न या चन्द्रमां से दसवें स्थान में सूर्य हो तो सूर्य की दशा आने से, पिता से धन प्राप्ति होवे । चन्द्र हो तो चन्द्र की दशा में पिता के सेवकों से धन प्राप्ति होवे । इसी प्रकार मंगल हो तो शत्रु से, बुध हो तो मित्रों से, गुरु हो तो भाई से, शुक्र हो तो स्त्री से और शनि हो तो अपनी दशा में सेवकों से धन प्राप्ति होवे । यदि दो या अधिक ग्रह दसवें स्थान में रहे हो तो ये सब अपनी २ दशा में धन देने वाले होते हैं ||३|| अथ योगान्तरमाह "Aho Shrutgyanam" शाश्रितांशपे वाङ्ग न्द्वर्कारणां तदभावके । सूर्याद्यंशगते स्वर्ण तृणोर्णारोगिसेवया ॥४॥ तदभावे लग्नचन्द्रयोस्तस्य दशमस्याभावे कर्मणि शून्ये सति अङ्ग ेन्द्रकरणां लग्नचन्द्रसूर्याणां प्रत्येकस्य खेशाश्रितांशपे यः खेशो दशमपतिस्तेन श्रितो योंऽशो Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कल्लोलः ५६ नवांशस्तं पाति रक्षति इति अंशपोंऽशनाथो यो ग्रहस्तत्रांशपे सूर्यादीनामंशगते क्रमेण फलमाह तद्यथा-सूर्यांशगतेऽशपे स्वर्णतृणोरोगिसेवया स्वर्णेन स्वर्ण परीक्षया, तृणैः सुगन्धैः, उर्णया रोमविक्रयाद्वा रोगिसेवया वैद्यकर्मणा धनमर्जयति ।।४।। लग्न या चन्द्रमा से दसवें स्थान पर कोई ग्रह न हो तो लग्न चन्द्रमा या सूर्य से. दसवें स्थान का स्वामी जिस राशि के नवमांश में हो, उस नवमांश का जो स्वामी हो वह धन देने वाला होता है । जैसे--दसवें का स्वामी सूर्य के नवमांश हो तो सोना, सुगन्धित द्रव्य, ऊन और वैद्य कर्म से धन का लाभ होवे ॥४॥ प्रथ चन्द्रकुजबुधगुरुनवांशगतांशपतेःफलमाह-- स्त्रीसेवाकृषिमुक्तादे-र्धात्वस्त्रानलसाहसात् । लिपिकाव्यादिनादेव-धर्मज्ञाकरतीर्थतः ॥५॥ आदि शब्दात् तत्रांशपे ग्रहे चन्द्रांशगते सति स्त्रीसेवया कृषिमुक्तादेः स्त्रीसेवया धन. कृषेमुक्तादेमुक्ताफलविक्रयाद्, आदिशब्दात् प्रवालशंखादीनां क्रयविक्रययोर्धनी । अादिशब्दात्तत्र कुजांशगते सति धात्वस्त्रानलसाहसात्, धातवो मृत्तिकाः पक्वा । अथवा सुवर्णादिमनःशिलाहिंगुलहरितालादयो धातव उच्यन्ते तेभ्यो धनम् । अस्त्रात् खड्गकुन्ततोमरशस्त्रिकारिकादिशस्त्रात् । अथवानलादग्निक्रियायाः । अथवा साहसात्-अनवलोकितकार्यकरणात्, स्वबलारम्भक्रियाद्वा धनी । एवं तत्र बुधांशगते सति लिपिकाव्यादिना, लिप्या अक्षरविन्यासेन गणित व्याख्यानेन वा । काव्येन काव्यशास्त्रकरणेनादिग्रहणाच्चित्रपुस्तपत्रच्छेदसूचीबाणमाल्यरचनादिभिर्धनी स्यात् । एवं तत्र जीवांशगते सति देवधर्मज्ञाकरतीर्थतो देवाद्देवार्चनाद् धनी, वा धर्माद्दानशीततपोभावना गुरुसेवया, ज्ञेभ्यु पण्डितेभ्योऽथवाऽऽकरेभ्यः सुवर्णादिलवणाद्यञ्जनादिगजादीनामन्यतमस्थानभ्यः, अथ तीर्थतस्तीर्थपूजया धनी स्यात् ।।५।। दशम भवन का स्वामी चन्द्रमा के नवांश में हो तो स्त्री की सेवा से. खेती से, मोती प्रवाल. शंख आदि के व्यापार से धन उपार्जन करे । मंगल के नवमांश में हो तो सोना. चांदो, मनःशिल, हिंगलु. हरताल प्रादि धातु के व्यापार से, तलवार, भाला, तोमर, शक्ति छुरी आदि शस्त्रों से, अग्नि क्रिया से, साहस से धन प्राप्त करे । बुध के नवमांश में हो तो लेखन कला से. काव्य प्रादि शास्त्र रचना से, चित्र आदि कला से धन का लाभ करे। गुरु के नवमांश में हो तो, देव पूजन से, धर्माराधना करके, पंडित सेवा से, खान से या तीर्थ पूजन से धन लाभ करे ॥५॥ "Aho Shrutgyanam" Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जन्मसमुद्रः अथ शुक्रशन्यंशगतांशपादर्जनमाह-- मरिणभादेः श्रमाद् बन्धभारोढिनीचकर्मभिः । मित्रस्वारिगृहे खेशे मित्रस्वारिगृहाद् धनम् ॥६॥ आदिशब्दात् तत्रांशपे शुक्रगते सति मणिभादेर्मणितो मरकतवज्रपद्मरागपुष्परागेन्द्रनोलचन्द्रकान्तसूर्यकान्तादिभ्यः । अादिशब्दादश्ववृषमहिषीश्रेष्ठनरसेवाभ्यः । हयं तत्र शन्यंशगते श्रमाद् बन्धमारोढिनीचकर्मभिः, श्रमेण देशांतरग्रामान्तरगमनेन । अथ बन्धनेन स्वशरीरताडनेन, भारोढया भारवहनेन, नीचकर्मभिः स्वकुलानुचितकरणर्धनी स्यात् । अथ यदि जन्मकाले ये ग्रहा लग्नचन्द्रयोर्दशगास्तदभावे सति लग्नेन्द्राणां खेशाश्रितांशनाथमित्रस्वारिगृहे भवन्ति, तदा तैः कृत्वा मित्रस्वारिगृहाद् धनी स्यात् । यथा यद्येते मित्रगृहे भवन्ति तदा मित्रगृहाश्रयादेवं स्वगृहस्थैरेतैः स्वगृहादेवमेतैः शत्रुराशिस्थैः शत्रुगृहाद् धनमर्जयतीत्यर्थः । त्रिभिविशेषकम् ।।६।। दसवां भवन का स्वामी शुक्र के नवांश में हो तो मरकत, वजू पद्मराग, पुष्पराग, इन्द्रनील, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त आदि मणियों के व्यापार से तथा घोड़े, बैल और भैंस आदि पशुओं से या उत्तम पुरुष की सेवा से धन उपार्जन करे । शनि के नवमांश में हो तो परिश्रम से, भार वहन करने से या नीच कर्म करके धन उपार्जन करे। नवमांश का स्वामी दशम भाव के पति का मित्र हो तो, मित्र के घर से, अपनी राशि का हो तो, अपने घर से और शत्रु राशि का हो तो, शत्रु के घर से धन प्राप्त करे ।।६।। अथ धनार्जनयोगान्तरमाह ___ लग्नस्वायगतैः सौम्यैर्बलिभिः स्वमनेकधा । __कर्मभि: सोऽर्जयेद् वा बलिन्युच्चै : स्ववीयतः ॥७॥ सौम्यैः शुभैर्बलिभिर्बलिष्ठलग्नस्वायगतैर्लग्नधनलाभानामेकतमस्थैः स्वं धनमनेकधा बहुप्रकारैः कर्मभिः स वालोऽर्जयेदुपार्जयेत् । वा अथवा अर्के बलिन्युच्चे मेषस्थे स्ववीर्यतो निजभुजबलाद् धनमुपार्जयेदित्यर्थः । येन केन कर्मणा पूर्वोक्तेन धनमीहते तेन तेन प्रकारेण यत्नादेव प्राप्नोतीत्यर्थः । इत्याजीविका ।।७।। बलवान् शुभ ग्रह यदि लग्न में धन स्थान में या ग्यारहवें स्थान में रहे हो तो अनेक प्रकार से धन उपार्जन करे । अथवा सूर्य बलवान् होकर अपनी उच्च राशि में (मेष राशि में) रहा हो तो अपने भुज बल से धन उपार्जन करे ।।७।। अधुना राजयोगानाह भादिमध्यान्तगेऽङ्गस्थे भूदेशग्रामपोऽङ्गपे । षत्र्याये स्वदंगेष्विन्दो: सौम्येष्वीशोऽथवा धनी ॥८॥ "Aho Shrutgyanam Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कल्लोलः अङ्गपे लग्ननाथे, अङ्गगे लग्नस्थे क्रमेण भादिमध्यान्तगे सति भं राशिस्तस्यादिमध्यान्तगे भूदेशग्रामपो भवति । तद्यथा - लग्नपे बलिष्ठे राश्यादौ गते लग्नस्थे भूपो राजा स्याज्जाति कुलदेशानुमानतः । एवं लग्नपतौ लग्ने राशिमध्यस्थे सति देशपतिः । एवं लग्नपे लग्नं राशिप्रान्तगते ग्रामपो ग्रामपतिः । प्रथाथवा इन्दोश्चन्द्रात् सौम्येषु शुभेषु स्वर्क्षगेषु स्वं स्वकोयं यद्ऋक्षं राशिस्तत्र गच्छन्तिस्म तेषु स्वकीय राशिगतेषु षट्ट्ट्याये रिपुसहजलाभानामेकतमस्थेषु ईशो राजा वा धनीश्वरः स्यात् ||८|| लग्न का स्वामी बलवान् होकर लग्न में रहा हो, वह यदि राशि की आदि में प्रथम दस अंश तक हो तो जातक जाति कुल और देश के अनुसार राजा होवे । राशि को मध्य में बीस प्रश तक हो तो देश का स्वामी और राशि के अन्त में २१ से ३० अंश तक हो तो ग्रामपति होवे । यदि चन्द्रमा से शुभ ग्रह अपनी राशि के होकर छठे, तीसरे या ग्यारहवें स्थान में रहे हों तो जातक राजा या धनपति होवे ||5|| - अथ योगद्वयमाह - उच्चेऽङ्गगे गुरौ ज्ञेन्दुशुकराये पदे रवौ । सूर्येऽजाङ्ग गुरौ धर्मे कुजे खे भवगे शनौ ॥६॥ ६१ गुरावङ्गगे उच्चे कर्कस्थे सति, ज्ञेन्दुशुः, आये लाभस्थैः कृत्वा पदे कर्मस्थे च रवौ राजा । प्रथाजाङ्ग मेषलग्नस्थे सति सूर्ये सूर्यप्रत्यासन्नत्वादर्थान्तराच्चन्द्रे च सति, गुरौ धर्मस्थे च सति नवमे च, कुजे खे दशमस्थे च शनौ भवगे लाभस्थे यो जातः स राजा भवति ॥६॥ कर्क राशि पर गुरु उच्च का होकर लग्न में रहा हो, तथा बुध, चन्द्रमा और शुक्र ये ग्यारहवें स्थान में हो और सूर्य दसवें स्थान में हों तो जातक राजा होता है । अथवा सूर्य मेष राशि का होकर लग्न में रहा हो तो, तथा गुरु नवें स्थान में, मंगल दसवें स्थान में और शनि ग्यारहवें स्थान में रहा हो तो राजा होता है ॥६॥ अथ द्वात्रिंशद् राजयोगानाह तुङ्गङ्गऽर्के गुरौ वाकौं चारे च स्वर्क्षगे विधौ । स्वांशेऽङ्ग वा विधौ दृष्टे निश्चन्द्र इचतुरादिभिः ॥ १० ॥ अर्कोऽङ्ग े लग्नस्थे उच्चस्थे, च शब्दाद् गुरौ वार्को शनौ च प्रारे कुजे वान्यत्र राशौ गते सति, एषां मध्यादेकैकस्मिन् लग्नगे उच्चे चत्वारो राजयोगा भवन्ति । वा शब्दादेषां मध्यादेकस्मिन् लग्नगे त्रिभिः कृत्वा द्वादशयोगा भवन्ति । वा शब्दात् तेषां चतुर्णा मध्याद् द्वाभ्यां द्वाभ्यां कृत्वा तयोर्मध्यादेकस्मिन् "Aho Shrutgyanam" Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जन्मसमुद्रः लग्नगे चन्द्र स्वर्क्षगे कर्कस्थे च सति द्वादशयोगाः । एषां चतुर्णा मध्यादेकस्मिन् लग्नसंस्थे कर्मगते चन्द्रे चत्वारो राजयोगाः । एव द्वात्रिंशद्योगाः । तद्यथा - [१] मेषस्थेऽर्के, कर्के जीवः, तुलायां शनि:, मकरे भौमोऽन्ये यथेच्छं गताः, एवं मेष लग्ने एको योगः । [२] कर्क लग्ने द्वितीय: । [३] तुलायां तृतीयः । [४] मकरलग्ने चतुर्थः । अथ त्रिभिश्च यथा - मेषेऽर्कः, कर्के जीवः, तुलायां शनिः शेषा यथेच्छं गताः । एव मेषलग्ने एकः । [६] कर्के द्वितीयः । [७] तुलायां तृतीयः । एवं पूर्वोक्तैः सह सप्त । [ ८ ] अथ मेषेऽर्कः, कर्के जीवः, मकरे कुजः, शेषा यथेच्छं गताः । एवं मेषलग्ने एकः । [६] कर्के द्वितीयः । [१०] मकरे तृतीयः । [११] एते त्रयः पूर्वैः सह दश । [१२] मेषेऽर्कः, तुलायां शनिः, मकरे कुजः, एतैः पूर्वः सह त्रयोदशः । [१३] कर्केजीवः, तुलायां शनिः, मकरे भौमः शेषाः स्वेच्छं गताः, एवं पूर्वैः सह षोडशः । [१४] अर्कगुरुशनिकुजैश्चतुर्भिस्त्रिभिर्वा ये योगाः कृतास्ते उक्ताः । [१५] च शब्दाच्चतुर्णा मध्याद् द्वाभ्यां सह स्वर्क्षगे चन्द्रे सति, एवं द्वादशयोगाः । [१६] तद्यथा— मेषेऽर्कः, कर्के चन्द्रजीवौ शेषाः स्वेच्छं गताः । [१७] मेषलग्ने एको योगः, कर्के द्वितीयः । [१८] अथ मेषेऽर्कः कर्केचन्द्रः, तुलायां शनि परे स्वेच्छंगताः । [१६] मेषलग्ने एकोयोगः, कर्के द्वितीयः, तुलालग्ने तृतीयः । [२०] तुलायां चतुर्थः, मेषेऽर्कः, कर्के चन्द्रः, मकरे कुजः, शेषाः स्वेच्छ गताः । [२१] कर्के सप्तमः, तुलायामष्टमः । [२२] अथ कर्के चन्द्रजीवौ, मकरे भौमः, शेषाः स्वेच्छंगताः। [२३] कर्के नवमो, मकरे दशमः । [२४] कर्के चन्द्रः, तुलायां शनिः, मकरे कुजः परे यथा स्वैरं । [२५] तुलायामेकादशः, मकरे द्वादशः । [२६] अथ चन्द्र णैव सह तेषां चतुरर्णा मध्यादेकैकेनाह-- मेषलग्नस्थेऽर्के कर्कस्थे चन्द्र े च एको यौनः । [२७] कर्कलग्नस्थे द्वितीयः । तुलालग्नस्थे शनौ कर्कस्थे चन्द्र सति तृतीयः । [ २८ ] मकर लग्नस्थे कुजे, कर्कस्थे चन्द्र चतुर्थः । [२६] एवं पूर्वैः सह द्वात्रिंशदुक्ता योगाः । अर्थवशादर्क गुरुशनिकुजैरुच्चै - र्लग्नस्थैः कृत्वा ये योगा उक्तास्तथामीभिरपि लग्नस्थैः प्रत्येकं नीचैः वृश्चिकस्थे चन्द्र े च राजयोगा न भवन्ति परं राजवत् कल्प्याः । सूर्य, गुरु, शनि और मंगल ये उच्च राशि के होकर उनमें से कोई एक लग्न में रहा हो, इसी से जो-जो राजयोग होते हैं, वह इस प्रकार है - (१) मेष राशि का सूर्य लग्न में रहा हो तथा कर्क का गुरु, तुला का शनि और मकर राशि का मंगल हो तो राजयोग होता है । (२) एवं कर्क राशि का गुरु लग्न में, मेष का सूर्य, तुला का शनि और मकर का मंगल हो "Aho Shrutgyanam" Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कल्लोलः तो राजयोग । (३) तुला का शनि लग्न में, मेष का सूर्य, कर्क राशि का गुरु और मकर । मंगल हो तो राजयोग। (४) मकर राशि का मंगल लग्न में. मेष का सूर्य, कर्क का गुरु और तुला का शनि हो तो राजयोग । (५) मेष का सूर्य लग्न में, कर्क का गुरु और तुला का शनि हो तो राजयोग। (६) कर्क का वृहस्पति लग्न में, मेष का सूर्य और तुला का शनि हो तो राजयोग। (७) तुला का शनि लग्न में, मेष का सूर्य और कर्क का गुरु हो तो राजयोग। (८) मेष राषि का सूर्य लग्न में, कर्क का गुरु और मकर का मंगल हो तो राजयोग। (8) कर्क का गुरु लग्न में, मेष का सूर्य और मकर का मंगल हो तो राजयोग । (१०) मकर का संगल लग्न में, मेष का सूर्य और कर्क का गुरु हो तो राजयोग । (११) मेष का सूर्य लग्न में, तुला का शनि और मकर का मंगल हो तो राजयोग । (१२) तुला का शनि लग्न में, मेष का सूर्य और मकर का मंगल हो तो राज (१३) मकर का मंगल लग्न में, मेष का सूर्य और तुला का शनि हो तो राजयोग । (१४) कर्क का गुरु लग्न में, तुला का शनि और मकर का मंगल हो तो राजयोग । (१५) तुला का शनि लग्न में, कर्क का गुरु और मकर का मंगल हो तो राजयोग । (१६) मकर का मंगल लग्न में, तुला का शनि, कर्क का गुरु हो तो राजयोग। (१७) मेष का सूर्य लग्न में, कर्क राशि का गरु और चन्द्रमा हो तो राजयोग। (१८) कर्क राशि का गुरु और चन्द्रमा लग्न में और मेष का सूर्य हो तो राजयोग । (१६) मेष का सूर्य लग्न में, कर्क का चन्द्रमा और तुला का शनि हो तो राजयोग । (२०) तुला का शनि लग्न में, कर्क का चन्द्रमा और मेष का सूर्य हो तो राजयोग। (२१) मेष का सूर्य लग्न में, कर्क का चन्द्रमा और मकर का मंगल हो तो राजयोग । (२२) मकर का मंगल लग्न में, मेष का सूर्य और कर्क का चन्द्रमा हो तो राजयोग । (२३) कर्क का गुरु और चन्द्रमा लग्न में और तुला का शनि हो तो राजयोग। (२४) तुला का शनि लग्न में और कर्क का गुरु और चन्द्रमा हो तो राजयोग । (२५) कर्क का चन्द्रमा और गुरु लग्न में और मकर का मंगल हो तो राजयोग । (२६) मकर का मंगल लग्न में और कर्क का चन्द्रमा और गुरु हो तो राजयोग । (२७) तुला का शनि लग्न में, मकर का मंगल और कर्क का चन्द्रमा हो तो राजयोग। (२८) मकर का मंगल लग्न में, तुला का शनि और कर्क का चन्द्रमा हो तो राजयोग । (२६) मेष का सूर्य लग्न में और कर्क का चन्द्रमा हो तो राजयोग । (३०) कर्क का गरु लग्न में और चन्द्रमा ककं का हो तो राजयोग । (३१) तुला का शनि लग्न में और कर्क का चन्द्रमा हो तो राजयोग । (३२) मकर का मंगल लग्न में और कर्क का चन्द्रमा हो तो राजयोग होता है। ये बत्तीस राजयोग सूर्य, मंगल, गुरु और शनि उच्च राशि के होकर लग्न में रहे एवं कर्क का चन्द्रमा हो तो होते हैं । परन्तु ये ग्रह नीच राशि के होकर लग्न में रहे हों और वृश्चिक का चन्द्रमा हो तो राजयोग नहीं होते हैं, परन्तु वह जातक राजवत् हो ऐसी कल्पना की जाती है। अथ चतुश्चत्वारिंशद् योगानाह स्वांशेऽङ्ग चेति जन्मकालेऽङ्ग लग्ने स्वांशे स्वकीयनवांशस्थे निश्चन्द्रश्चन्द्ररहितैश्चतुरादिभिश्चतुःप्रभृतिभिर्ग हैईष्टे, आदि शब्दात् पञ्चभिः षड्भिर्वा "Aho Shrutgyanam" Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जन्मसमुद्रः दृष्टे योगा द्वाविंशतिर्योगा भवन्ति । अत्र लग्ने चन्द्रण दृष्टे योगभङ्गो नहि, किन्तु पश्यतां मध्ये न गण्यते । यतः शशी पश्यत्वथवा मा पश्यतु । एवं प्रकारेण विधौ चन्द्र स्वांशस्थे चतुरादिग्रह दृष्टे द्वाविंशतिर्योगाः। एवं प्रकारेण चतुश्चत्वाविंशत् । यथा लग्नेऽथवा चन्द्र चतुभि ष्टे पञ्चदशयोगाः, पञ्चभिःषट्, षड्भिरेकः । एवं द्वाविंशतिः । यथा लग्नेऽथवा चन्द्र रविकुजबुधगुरुभि ष्टे एको योगः । रविकुजबुधशुक्रदृष्टे द्वितीयः । रविकुजबुधशनिभिस्तृतीयः । रविकुजजीवशुक्रैश्चतुर्थः । रविकुजजीवशनिभिः पञ्चमः । रविकुजशुक्रशनिभिः षष्ठः। रविबुधगुरुशुक्रः सप्तमः । रविबुधशुक्रशनिभिरष्टमः । रविबुधगुरुशनिभिर्नवमः । रविगुरुशुक्रशनिभिर्दशमः । कुजबुधगुरुशुक्ररेकादशः । कुजबुधगुरुशनिभिदिशः । कुजबुधशुक्रशनिभिस्त्रयोदशः। भौमबृहस्पतिशूक्रशनिभिश्चतुर्दशः । बुधगुरुशुक्रशनिभिदृष्टे लग्ने पञ्चदशः। अथ पञ्चविकल्पात् षड्योगानाह-रविमङ्गलबुधगुरुशुक्रदृष्टे लग्ने एको योग । रविमङ्गल बुधबृहस्पतिशनिभिद्वितीयः । रविमङ्गलबुधशुक्रशांनभिस्तृतीयः । रविमङ्गलगुरुशुक्रशनिभिश्चतुर्थः । रविबुधगुरुशुक्रशनिभिः पञ्चमः । कुजबुधबृहस्पतिशुक्रशनिभिः षष्ठः । अथषड्भिः-रविमङ्गलबुधबृहस्पतिशुक्रशनिभिः स तमः । एवं सर्वैः सह द्वाविंशतिर्योगाः। यथा लग्नादुक्तास्तथा चन्द्राद् द्वाविंशतिर्योगा भवन्ति । एवं कारके चतुश्चत्वारिंशत् परमार्थेन योगद्वयमेतत् । यथा स्वांशगते लग्ने चतुरादिभि ष्टे एको योगः। इत्थं चन्द्र द्वितीयः । संख्या दर्शनार्थमत्रैव यदि राशौ लग्ने स्वांशस्थिते सति षष्ठया गणितं कियते । तदामीषां योगानां चतुषष्ठयाधिका शतद्वयी स्यात् । एवं स्वांशस्थे चन्द्र च । एवं कारके लग्नचन्द्रयोरेकीकृतानां योगानां पञ्चशतान्यष्टविंशत्यधिकानि भवन्ति ॥१०॥ जन्म के समय लग्न में अपने २ नवमांश में रहे हुए लग्न या चन्द्रमा को चार, पांच या छः ग्रह एक साथ देखते हों तो बाईस योग होते हैं। उनमें चन्द्रमा लग्न को देखे या न देखे उसका कोई विचार नहीं है । जैसे-अपने नवमांश में रहे हए लग्न या चन्द्रमा को सूर्य, मङ्गल, बुध और गुरु देखते हों तो राजयोग होवे ।११ सूर्य, मङ्गल, बुध और शुक्र देखते हों तो राजयोग ।२। सूर्य, मंगल, बुध और शनि देखते हों तो राजयोग ।३। रवि, मंगल, गुरु, शुक्र देखते हों तो राजयोग ।४। रवि, मंगल, गुरु और शनि देखते हों तो राजयोग ।५। रवि, मंगल, शुक्र और शनि देखते हों तो राजयोग ।६। रवि, बुध, गुरु और शुक्र देखते हों तो राजयोग ।७। सूर्य, बुध, शुक्र और शनि देखते हों तो राजयोग 11 सूर्य, बुध, गुरु और शनि देखते हों तो राजयोग ।।। रवि, गुरु, शुक्र और शनि देखते हों तो राजयोग ।१०। मंगल, बुध, गुरु और शुक्र देखते हों तो राजयोग ।११। मंगल, बुध, गुरु "Aho Shrutgyanam" Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कल्लोलः और शनि देखते हों तो राजयोग ।१२। मंगल, बुध, शुक्र और शनि देखते हों तो राजयोग ।१३। मगल, गुरु, शुक्र और शनि देखते हों तो राजयोग ।१४। बुध, गुरु, शुक्र और शनि देखते हों तो राजयोग ।१५। सूर्य, मंगल, बुध और गुरु देखते हों तो राजयोग ।१६। रवि, मंगल, बुध, गुरु और शनि देखते हों तो राजयोग ।१७। रवि, मंगल, बुध, शुक्र और शनि देखते हों तो राजयोग ।१। रवि, मंगल, गुरु, शुक्र और शनि देखते हों तो राजयोग ।१६। रवि, बुध, गुरु, शुक्र और शनि देखते हों तो राजयोग ।२०। मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि देखते हों तो राजयोग ।२१सूर्य, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि देखते हों तो राजयोग ।२२। ये बाईस राजयोग लग्न के और बाईस राजयोग चन्द्रमा के मिला कर कुल ४४ राजयोग हुए । इसी प्रकार लग्न के और चन्द्रमा के अपने २ वर्गोत्तम के अनुसार कल्पना किया तो कुन लग्न के २६४ और चन्द्रमा के २६४ मिला कर ५२८ राजयोग बनते हैं । १०॥ अथ राजयोगत्रयमाह अथाजेऽर्के वृषे चन्द्र वाकौ कुम्भे तनुस्थिते ।' नृयुसिहालिगैश्च ज्ञजीवारभूपतिर्बली ॥११॥ अथानन्तरमजे मेषे तनुस्थिते लग्नस्थे वार्के रवौ तत्र गते सति ज्ञजीवारैः क्रमेण नृयुक्सिंहालिगैमिथुनसिंहवृश्चिकगतैश्च कृत्वा भूपतिः पृथ्वीपतिर्बली बलवान् भवति । वाथवा एवमब्जे चन्द्र वृषे वृषराशौ तनुस्थिते लग्नस्थे पूर्वोक्त स्थानस्थैर्ग्रहैरेतैरिति द्वितीयो योगः । वाथवाकौं शनौ कुम्भे कुम्भराशौ तनुस्थिते लग्नस्थिते सति च शब्दादेतैः पूर्वोक्तस्थानस्थैः कृत्वा राजा इति तृतीयो योगः ॥११॥ मेष राशि का सूर्य लग्न में रहा हो, तथा बुध मिथुन राशि में, गुरु सिंह राशि में और मंगल वृश्चिक राशि में रहा हो तो जातक राजा होता है। अथवा वृष राशि का चन्द्रमा लग्न में रहा हो तथा बुध, गुरु और मंगल ये क्रमशः मिथुन, सिंह और वृश्चिक राशि में हों तो राजा होवे। अथवा कुम्भ राशि का शनि लग्न में रहा हो तथा बुध, गुरु और मंगल ये क्रमशः मिथुन, सिंह और वृश्चिक राशि में हो तो जातक राजा होवे ॥११॥ अथापरयोगद्वयमाह मृविच्चे विधौ स्त्रीगौ ज्ञाकौं शुक्रज्यभूमिजाः । तौलिकर्काजगाः स्युश्च यदि राजैवमर्कजे ॥१२॥ विधौ पूर्णेन्दौ जन्मलग्नस्थे उच्चे वृषभराशिस्थे च सति यदि स्त्रीगौ कन्यागतौ ज्ञाकौं बुधसूयौं', च शब्दात् शुक्रेज्यभुमिजाः क्रमेण तौलिकर्काजगास्तुला 1 'वृषेऽब्जवा कर्के इति पाठः ।' "Aho Shrutgyanam" Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UP - जन्मसमुद्रः कर्कमेषराशिस्थाश्च भवन्ति, तदा राजा। वृषलग्ने एको योगः । एवममुना प्रकारेणार्कजे शनौ मूत्तौ लग्ने उच्चे तुलाराशिस्थे सति शेषा यथोक्तस्था भवन्ति तदा राजा । तुला लग्ने द्वितीयो योगः ।।१२।। यदि पूर्ण चन्द्रमा वृष राशि का होकर लग्न में रहा हो, बुध और सूर्य ये दोनों कन्या राशि में, गुरु कर्क राशि में, शुक्र तुला राशि में और मंगल मेष राशि पर हो तो राजयोग होता है। एवं तुला राशि का शनि यदि लग्न में रहा हो, बूध और सूर्य राशि पर, शुक्र तुला राशि में, गुरु कर्क राशि में और मंगल मेष राषि का हो तो राजयोग होता है ॥१२॥ अथान्यद्योगत्रयमाह सारैणाङ्गऽस्त्रगार्केन्द्वोर्वात्र साब्जेऽस्त्रगे रवौ । अजाङ्गऽर्के मदे मन्दे सेन्दौ धर्मे गुरौ विभुः ॥१३॥ आरो मङ्गलस्तेन सह वर्तते यत्तदेणाङ्ग मकरलग्नं तत्र सकुजे मकरलग्ने सति अस्त्रं धनुस्तत्र गतौ यावर्केन्दू तयोः सतो राजा स्यान्मकरलग्ने एको योगः । वाथवात्र सारेणाङ्ग मकरलग्ने मकरलग्ने सति सब्जे सचन्द्रऽस्त्रगेधनूराशिस्थे रवौ च राजा स्यादिति द्वितीयो योगः। अजाङ्ग मेषलग्ने तत्रा: मन्दे शनौ सप्तमस्थानगते सेन्दौ सचन्द्र च सति, धर्मे नवम्स्थे गुरौ जीवे विभुः स्वामीत्येष तृतीयो योगः ।।१३।। मकर राशि का मंगल लग्न में रहा हो, तथा सूर्य और चन्द्रमा दोनों धन राशि में हों तो राजयोग होता है ।। अथवा मकर राशि के मंगल और चन्द्रमा दोनों लग्न में रहे हों और सूर्य धन राशि में हो तो भी राजयोग होता है ।२। अथवा मेष राशि का सूर्य लग्न में रहा हो, तथा शनि और चन्द्रमा दोनों तुला राशि सप्तम स्थान में हों और बृहस्पति धन राशि नवम स्थान में हो तो जातक राजा होता है ॥१३॥ अथ योगद्वयमाह वृषाङ्गडब्जे स्मरे जीवे खे यमेऽर्के सुखे विभुः। व्यरिधर्मान्त्यगैर्वेन्द्रादिकैरेणाङ्गगे शनौ ॥१४॥ __ अब्जे चन्द्र वृषाङ्ग वृषलग्नस्थे, जीवे गुरौ स्मरे सप्तमगते च, यमे शनौ च खे कर्मस्थे, अर्के सुखे चतुर्थस्थे प्रभुः स्यात् ।१। वाथवा एणाङ्गगे मकरलग्नस्थे शनौ, इन्द्वादिकैः क्रमेण व्यरिधर्मान्त्यगैस्त्रिषष्ठधर्मव्ययस्थैश्च राजा । ननु चन्दाद्यैरित्युक्तं शुक्रः क्वगत इत्युच्यते-यथा संख्यात् पञ्चमस्थानाभावात् । यतः शुक्रस्यादित्यपञ्चमत्वादनवकाशः ।।१४।। "Aho Shrutgyanam" Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कल्लोलः ६७ वृष राशि का चन्द्रमा लग्न में रहा हो, गुरु सप्तम स्थान में, शनि दशवें स्थान में और सूर्य चौथे स्थान में रहा हो तो जातक राजा होता है ।१एवं मकर राशि का शनि लग्न में रहा हो, चन्द्रमा तीसरे, मंगल छठे, बुध नवें और गुरु बारहवें स्थान में हो तो राजयोग होता है ॥१४॥ अथ योगद्वयमाह सेन्दौ जीवेऽस्त्रगे भौमे मृगे वोच्चेऽङ्गगे सिते। बुधे वा धीस्थभौमार्योस्तुर्यस्थेज्येन्दुभार्गवैः॥१५॥ जोवे सेन्दौ सचन्द्र ऽस्त्रगे धनुस्थे, भौमे मृगे मकरस्थे च सति, सिते शुक्रेऽङ्गगे लग्नस्थे सति, उच्चे मीनस्थे च सति राजा स्यात् । मीन लग्ने एको योगः । अथवाङ्गगे लग्नस्थे बुधे उच्चे कन्याराशिचतुर्दशांशस्थे सति, धीस्थभोमार्योः, धीः पञ्चमं तत्र गतौ यौ भौमार्की तयोः, भौमशन्योः सतोस्तुर्यस्थेज्येन्दुभार्गवैः तुर्य चतुर्थं तत्र तिष्ठन्तिस्म इज्येन्दुभार्गवाः गुरुचन्द्रशुक्रास्तैः कृत्वा राजा स्यात् । कन्यालग्ने द्वितीयो योगः ।।१५।। गुरु और चन्द्रमा दोनों धन राशि में हों, मंगल मकर राशि में और मीन राशि का शुक्र लग्न में हो तो राजयोग होता है।१एवं कन्या राशि का बुध लग्न में हो, मंगल और शनि ये दोनों पांचवें स्थान में, गुरु, चन्द्रमा और शुक्र ये तीनों चौथे स्थान में हो तो राजयोग होता है ॥१५॥ अथ योगत्रयमाह सेन्दौ झषाङ्ग कुम्भसिंहस्थाकिकुजांशुभिः । सारेऽजाङ्ग गुरौ कर्के वा कर्काङ्ग गुरौ तथा ॥१६॥ झषाङ्ग मीनलग्ने सेन्दौ सचन्द्र, कुम्भैणसिंहस्थाः कुम्भमकरसिंहराशिस्थाः क्रमेण ये पाकिकुजांशवः शनिकुजसूर्यास्तैस्तत्रस्थैः कृत्वा राजा। एको योगः । अथाजाङ्ग मेषलग्ने सारे सकुजे गुरौ कर्कस्थे च सति राजा। वाथवा कर्काङ्ग कर्कलग्नस्थे सति गुरौ, तथेति कोऽर्थः ? मेषकुजयुते च राजा । इति तृतीयो योगः ।।१६।। मीन राशि का चन्द्रमा लग्न में हो, कुम्भ राशि का शनि, मकर राशि का मंगल और सिंह राशि का सूर्य हो तो राजयोग होता है ।। अथवा मेष राशि का मंगल लग्न में हो और गुरु कर्क राशि का हो तो राजा होवे ।२। अथवा कर्क राशि का गुरु लग्न में रहा हो और मेष राशि में मंगल हो तो राजयोग होता है ॥१६॥ "Aho Shrutgyanam" Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ जन्मसमुद्रः अथान्यद् योगद्वयमाह 1 वषे शुक्रऽम्बुगे चन्द्र धर्म व्यंगायगेतरैः। - पुष्ट ज्ञेऽङ्ग शुभे केऽन्यैर्धर्मस्वोपचयाश्रितः ॥१७॥ शुक्रेऽम्बुगे चतुर्थस्थे वृषे वृषराशौ सति, चन्द्र धर्मे नवमस्थे सति त्र्यङ्गाये गच्छन्ति त्र्यङ्गायगास्त्रिलग्नलाभानामेकतमस्था ये इतरे यथासम्भवं रविकुजबुधगुरुशनयस्तत्रस्थैस्तैः कुम्भलग्ने सति राजा । इत्येको योगः । अथ ज्ञे बुधे पुष्टे सर्वबल युक्तेऽङ्गगे लग्नगते शुभे गुरुशुक्रयोरेकतमे चतुर्थस्थे, अन्यैः शेषैर्धर्मस्वोपचयाश्रितैर्नवमधनविषडेकादशदशमानामन्यतमस्थै राजा धर्मात्माऽन्यो धनी स्यात् ।।१७।। वृष राशि का शुक्र चौथे स्थान में रहा हो, चन्द्रमा नवें स्थान में और दूसरे ग्रहरवि, मंगल, बुध, गुरु और शनि ये लग्न में तीसरे स्थान में या ग्यारहवें स्थान में रहे हों और कुम्भ लग्न हो तो राजयोग होता है ।१। सम्पूर्ण बलवान बुध लग्न में रहा हो, तथा शुभ ग्रह-गुरु और शुक्र चौथे स्थान में हो तथा बाकी के पाप ग्रह नवें, दूसरे, तीसरे, छठे, दसवें या ग्यारहवें स्थान में हो तो राजयोग होता है, अर्थात् राजा धर्मात्मा या धनवान होता है ॥१७॥ अथ योगद्वयमाह उच्चेऽङ्ग ऽब्जे यमे षष्ठे जीवे स्वे लाभगः परैः। मन्देऽङ्गगे पदेऽर्केन्द्वो-र्जीवेऽम्बुन्यायगैः परैः ॥१८॥ अब्जे चन्द्र उच्चे वृषेऽङ्गगे लग्नस्थे सति षष्ठे यमे शनौ च जीवे गुरौ स्वे धनस्थे च सति परैः शेषः रविकुजबुधशुक्रशनिभिर्लाभगैः कृत्वा राजा। वृषलग्ने एको योगः। मन्दे शनौ अङ्कगते सति पदे दशमस्थयोरन्द्वोर्जीवे गुरौ अम्बुनि च चतुर्थस्थे आयगापरैरायगा लाभगा ये अपरा कुजबुधशुक्रास्तैः कृत्वा राजा धनीत्येष द्वितीयो योगः ॥१८॥ वृष राशि का चन्द्रमा लग्न में रहा हो, शनि छठे स्थान में, गुरु धन स्थान में और अन्य सब ग्रह ग्यारहवें स्थान में हों तो राजयोग होता है । एवं शनि लग्न में हो, सूर्य और चन्द्रमा ये दोनों दसवें स्थान में हो, गुरु चौथे स्थान में हो और अन्य सब ग्रह ग्यारहवें स्थान में हो तो राजयोग होता है ॥१८॥ 1 'स्वः शुक्र' ऐसा पाठ हैं जिसे वृष या तुला इनमें से किसी राशि पर हो। "Aho Shrutgyanam" Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथान्यद् योगद्वयमाह - शश्यार्कोज्याः खायाङ्गस्था ज्ञारौ स्वेऽर्कसितौ सुखे । मंशौ लग्नेऽस्तखाम्ब्वाय धर्मेज्यार्केन्दु वित्सितैः ॥ १६ ॥ शश्यार्काज्याः चन्द्रशनिजीवाः क्रमेण खायाङ्गस्था दशमलाभलग्नस्थाः, ज्ञारौ बुधकुजौ स्वे धनस्थो, यद्यर्कसितौसूर्यशुक्रौ सुखे चतुर्थे च भवत्तस्तदा राजा । मंशौ मंशब्देन मंगलः, शशब्देन शनिः, एतौ द्वौ लग्ने स्यातां, यदि प्रस्तखाम्ब्वायधर्माः' सप्तमदशमचतुर्थलाभनव मास्तत्रस्था यथासंख्यं ये 'इज्यार्केन्दुबित्सिताः ' जीवसूर्यचन्द्रबुध शुक्रास्तैः कृत्वा राजा स्यात् ॥ १६ ॥ चन्द्रमा दसवें, शनि ग्यारहवें स्थान में, गुरु लग्न में, मंगल और बुध दोनों दूसरे स्थान में तथा सूर्य और शुक्र ये दोनों चौथे स्थान में रहे हों तो राजयोग होता है |१| अथवा मंगल और शनि दोनों लग्न में हो, गुरु सातवें, सूर्य दसवें, चन्द्रमा चोथे, बुध ग्यारहव और शुक्र नवें स्थान में हों तो राजयोग होता है ॥ १६ ॥ प्रथान्यद् योगद्वयमाह सार्कों मृगांगे स्यादीशः सेशैः खास्ताष्टभूशुभैः । कन्यांगे ज्ञे सिते खेऽस्ते जीवेन्द्वोर्धोयमारयोः ॥२०॥ ६६ मृगाङ्ग मकर लग्ने सार्कों शनियुक्ते सति खास्ताष्टभूशुभैः कर्मसप्ताष्टचतुर्थनवमस्थानस्थैरेते सेरौ स्वामिभिः सह वर्त्तन्ते ये ते सेशाः स्वनाथयुतास्तैः कृत्वा ईशः स्वामी स्यात् । शुभशब्देन नवमस्थानमुच्यते । अथ ज्ञे बुधे कन्यांगे कन्या लग्नस्थे सति, शुक्रे खे दशमगते वास्ते सप्तमस्थयोर्जीवेन्द्रोः, धीः पञ्चमं तत्रस्थयोर्य मारयोः शनिकुजयो राजा ॥ २० ॥ शनि के साथ मकर लग्न हो तथा दसवां, सातवां, आठवां, चौथा और नवां ये पांचों भवन अपने २ स्वामी से युक्त हों तो राजयोग होता है । लग्न में कन्या राशि का बुध हो, दसवें स्थान में शुक्र, सातवें स्थान में गुरु और चन्द्रमा, पांचवें स्थान में शनि और मंगल हो तो राजयोग होता है ||२०| प्रथान्यानन्तयोगान्तरोत्पत्तिमाह त्र्याद्यैरुच्चैस्त्रिको स्थः सम्पुष्टैर्नृ पजो नृपः । पश्चाद्यैरन्यजः पुष्टैः सवित्तः स्यान्नृपोपमः ||२१|| स्वोच्चराशिस्थैस्त्र्याद्यैस्त्रिभिरादिशब्दाच्चतुर्भिः पुष्टैः सूर्याद्यैर्ग्रहैरुच्चैः षड्बलोपेतैर्नृपजो नृपाज्जायतेऽसौ नृपजो राजपुत्रो राजा स्यात् । एवं त्रिकोणस्थैर्मू लत्रिकोरणगैः पुष्टैस्त्रिभिश्चतुभिर्वा अन्यजो हीनकुलजातोऽपि राजा । परम "Aho Shrutgyanam" Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जन्मसमुद्रः पुष्टर्बलहीनस्त्रिभिश्चतुभिः पञ्चभिः षड्भिर्वा, उच्चै लत्रिकोणस्थैर्वा सवित्तः सद्रव्यो राजसमो वा स्याद् भवति । सोऽन्यवंशजातः स नृपो राजा, नहि नहि पुना राजवंशजो राजा । एकेन पुष्टेनोच्चेन द्वाभ्यां स्वस्थानस्थाभ्यां कृत्वा राजवंशजोऽन्यवंशजो वा न राजा स्यात् किन्तु धनी स्यादेव ।।२१।। मूलत्रिकोणसंज्ञामाह विंशतिरंशाः सिहे त्रिकोणमपरं स्वगृहमकर्मस्य । वृषस्यांशद्वयमुच्चं तृतीयोऽशः परमोच्चः, अपरेंऽशास्त्रिकोरणं चन्द्रस्य । मेषे द्वादशांशास्त्रिकोणं शेषा गृहं कुजस्य । कन्यायाश्चतुर्दशांशा उच्चाः, पञ्चदश परमोच्चः, ततः पञ्चांशास्त्रिकोणं शेषा गृहं बुधस्य । धनुषोंऽशा दश त्रिकोणं परेंऽशा: स्वक्षेत्रं गुरोः । तुलायाः पञ्चदशांशास्त्रिकोणं शेषा गृहं शुक्रस्य । कुम्भस्य विशतिस्त्रिशांशा मूलत्रिकोणं शेषा गृहं शनेरिति मूलत्रिकोणसंज्ञा उक्ताः। शुभम्र हैरुच्चैमूलत्रिकोणगैर्वा राजा धर्मात्मा, पापैः पापात्मा कलहादिप्रियः केचिन्मते ।।२१।। जिसकी जन्मकुण्डली में तीन, चार प्रादि ग्रह बलवान होकर उच्च के रहे हों या मूल त्रिकोण में रहे हों तो हीन कुल में जन्म लेने वाला भी राजा होता है। यह राजा के बराबर धनवान होता है। यदि बलवान पांत्र आदि ग्रह उच्च के हों या मूल त्रिकोण में हो तो भी नीच कुल में जन्म लेने पर भी राजा होता है या राजा के बराबर धनवान होता है। एक या दो ग्रह बलवान होकर उच्च के या मूल त्रिकोण में हों तो राजा नहीं किन्तु धनवान होता है। प्रसंगोपात्त मूल त्रिकोण संज्ञा बतलाते हैं सिंह राशि के तीस अंशों में से बीस अंश सूर्य का मूल त्रिकोण है और बाकी के स्वगृह हैं। चन्द्रमा के वृष राशि के दो अंश उच्च, तीसरा अंश परमोच्च है और बाकी के अंश चन्द्रमा के मूल त्रिकोण हैं एवं मंगल, मेष राशि के बारह अंश तक मूल त्रिकोण हैं और बाकी के अंश स्वगृह हैं। बुध के कन्या के चौदह अंश उच्च का और पन्द्रहवां अश परमोच्च का है, उसके बाद पांच अश मूल त्रिकोण और बाकी के अंश स्वगृह हैं। गुरु के धन राशि के पहले दस अंश मूल त्रिकोण है और बाकी के स्वगृह है। शुक्र के-तुला राशि के पहले पन्द्रह अंश मूल त्रिकोण है और बाकी के स्वगृह है । एव शनि के-कुम्भ राशि के बीस अंश मूल त्रिकोण हैं और बाकी के दस अश स्वगृह हैं। शुभ ग्रह उच्च के हों या मूल त्रिकोण में हो तो राजा धर्मात्मा होता है और पाप ग्रह उच्च के या मूल त्रिकोण में हो तो पाप कर्म करने वाला और कलह प्रिय होता है ॥२१॥ अथ राजयोगे सति कदा जातस्य राज्यप्राप्तिभविष्यतीति ज्ञानमाह-.. खस्थो यो वाङ्गगः पुष्टो राज्यदः स्वदशोदये। शत्रुनीचःयातस्य दशायां च्युतिसंश्रयौ ॥२२॥ "Aho Shrutgyanam" Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कल्लोलः राजयोगकर्तृणां ग्रहाणां मध्याद् यो ग्रहः खस्थो दशमस्थो वाथवाङ्गगो जन्मलग्नगः पुष्टो भवति, नस्य जातस्य ग्रहः स्वदशोदये निजदशायां सत्यां राज्यदो राज्यदाता स्यात् । अर्थान्तराद् दशमे लग्ने वा द्वो त्रयो वा भवन्ति तदा तेषां यो बलवान् स स्वदशोदये राज्यदाता । अथ कर्म लग्ने यदि शून्ये तदा जन्मकाले सर्वेषां ग्रहाणां मध्ये यो ग्रहः पुष्टोऽत्तिपुष्ट: स्वदशोदये राज्यदाता । तस्य लब्धराजस्य जन्मकाले शत्रुनीचःजातस्य ग्रहस्य दशायां च्युतिसंश्रयौ बाच्यौ । यथा -शत्रुराशिस्थेन नीचराशिस्थेन वा या दशा दत्ता तत्र बलवति ग्रहे राज्यच्युतिः । तत्र नीचे विबलग्रहे राज्याश्रयः कार्य इति ।।२२।। है राजयोग करने वाले ग्रहों में जो ग्रह दसवें स्थान में या लग्न में रहे हों, उनमें जो बलवान हो उसकी दशा में या अन्तर्दशा में राज्य प्राप्ति या धन की प्राप्ति होवे। यदि लग्न में या दसवें स्थान में कोई ग्रह न हो तो जन्म के समय जो ग्रह सब ग्रहों से अधिक बलवान हो उसकी दशा में या अन्तर्दशा में राज्य प्राप्ति कहना। यदि बलवान ग्रह नीच राशि के या शत्रु राशि के नवांश के हों तो उसकी दशा अन्तर्दशा में राजभ्रष्ट कहना। परन्तु नीच राशि के होने पर भी यदि ग्रह निर्बल हो तो राज्य भ्रष्ट नहीं करता ॥२२ अथ योगान्तरमाह शुक्रेज्यज्ञेऽङ्गगे खेऽर्के यमेऽस्ते भोगवान्नरिः। र केन्द्र : सुभः पापक्षगान्यैः शबरचौरराट् ।।२३॥ शुक्रेज्यज्ञे शुक्रगुरुबुधानां मध्यादेकस्मिन्नङ्गगे लग्नगे, दशमस्थे वार्के, यमे शनौ अस्ते सप्तमस्थे सति अरि स्ति, रैव्यं रैर्द्रव्य यस्यासो अरिद्रव्यहीनोऽपि भोगवान् भवति । अथ केन्द्र शुभक्षैः शुभानां ऋक्षाणि राशयस्तेषु गता येऽन्ये क्रू रास्तैः पापैश्चोरराट् । अर्थवशात् केन्द्रस्था ये शुभराशयस्तत्रस्थैरशुभैः पापानां ये राशयस्तत्र तत्र शुभैश्चोरपतिः । शास्त्रान्तरादर्कोऽधिमित्रस्थश्चन्द्र यदि पश्येत् ततश्चोरपतिः ।।२३॥ शुक्र, गुरु और बुध इनमें से कोई लग्न में हो, सूर्य दसवे स्थान में और शनि सातवें स्थान में हो तो जातक द्रव्य हीन होने पर भी भोगवान होवे । अथवा केन्द्र में शुभ राशियों पर पाप ग्रह और पाप राशियों पर शुभ ग्रह हों तो चोरों का राजा होवे । अन्य शास्त्र में कहा है कि-अधिमित्र के क्षेत्र में रहा हया सूर्य यदि चन्द्रमा को देखता हो तो चोरों का राजा होवे ॥२३॥ अथ विचित्रयोगान्तरमाह स्वाधिमित्रत्रिकोणोच्च-सद्वर्गाक्षियुतोदिताः । लग्नांशराशिपेष्टान्यां राजदा व्यस्तगा न तु ॥२४॥ "Aho Shrutgyanam" Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः लग्नं जन्मलग्नं, अंशो लग्ननवांशो, राशिर्जन्मराशिरमून् पान्ति अमीषां ये पतयोऽथवेष्टाः शुभाः, अथान्ये पापाः, स्वाधिमित्र त्रिकोणोच्च सद्वर्गाक्षियुतोदिता भवन्ति । स्वर्क्षगतावा स्वाधिमित्रगता वा मूलत्रिकोणस्था वा उच्चाः परमोच्चा वा यदि भवेयुः । अथवा सतां शुभावां वर्ग : षड्वर्गस्तत्रस्था एतेऽथ सदृक्षाः सतां शुभानां प्रक्षि दृष्टिर्येषां ते सदृक्षाः शुभदृष्टाः सद्युताः शुभयुता मित्रदृष्टाः त्रिकोगोच्चग्रहैर्युता दृष्टा वा उदिताश्च यद्यतै 'लग्नांशराशिपेष्टान्या' एवं विधा भवन्ति तदा राज्यदा । तु पुनर्व्यस्तगा विपरोतस्थाः शत्रोरधिशत्रोर्वा नीचस्य वा क्रूरस्य वा वर्गगता क्रूरैर्युता दृष्टा वा, अस्तमिता वा निर्बला यदि स्युस्तदा न राज्यदातारः । मित्र स्वर्क्षत्रिकोणोच्चस्था ग्रहा एवं चांशस्था एवं वा केन्द्रस्थाः परस्परं कारकयोगकराः । अत्र योगे नीचकुलजातः कुलमुख्यो राजभूपजो ज्ञेयः ।। २४ ।। ७२ जन्म लग्न, लग्न का नवमांश और जन्म राशि इनके जो शुभाशुभ ग्रह हों, वे अपनी राशि में, या अधिमित्र की राशि में हो, या मूल त्रिकोण राशि में है, या उच्च, परमोच्च राशि पर हो, शुभ वर्ग के षड् वर्ग में हो या शुभ ग्रह देखते हों या शुभ ग्रह साथ हो तो जातक राजा होवे । इन योगों से विपरीत हो तो राजा न होवे । एवं मित्र ग्रह में, स्वगृह में, त्रिकोण में, उच्च राशि में, नवमांश में या केन्द्र में रहे हुए ग्रह योग कारक है, इस योग में नीच कुल में जन्मा हुआ भी अपने कुल में मुखिया होवे या राजपुत्र होवे ||२४|| श्रथ विशेषयोगान्तरमाह केस्द्रस्वर्थीच्चर्गः शुक्रा रेज्याकिज्ञः स राज्यभाक् । खषि खषि नभोगनन्द-वष खाष्ट समा नराः ।। २५॥ शुक्रारेज्याकिज्ञैः क्रमेरण केन्द्रस्वर्क्षाच्चगैः कृत्वा यो जातः स राज्यभाक् । तद्यथा— शुक्रो यदि केन्द्र स्वर्क्षगतः स्वराशिगतोऽथवोच्चगो मीनस्थस्तदा खषिसमाः खशब्देन शून्यं ऋषिशब्देन सप्तसंख्या समा वर्षाणि ताः खर्षमिता सप्ततिवर्षारिण यावत् स नरो राज्यभागित्यर्थ: । शुक्रवदेवंविधः सन्मङ्गलोऽपि ज्ञेयः । यद्य ेवं गुरुस्तदा नभोनन्दसमाः, नभः शब्देन पूर्णं नन्दशब्देन नव तत्संख्या समा नवतिवर्षारिण यावदित्यर्थः । यद्य वं शनिस्तदा सप्ततिवर्षारिण यावत् । यद्य वंविधो बुधो भवति तदा खाष्टसमा प्रशीतिवर्षारिण यावद्राज्यभाक् । अथवैतैः केन्द्रस्थैः स्वराशिगैर्वाथवा यत्र तत्रोच्चगैः स्वराशिगैश्च स मंत्री स्यात् ||२५|| शुक्र, मंगल, गुरु, शनि और बुध इनमें से जो ग्रह केन्द्र में हो, स्वगृह में या उच्च राशि पर हो तो अनुक्रम से ७०, ७०, ६०, ७० और ८० वर्ष तक राज्य भोगे । अर्थात् केन्द्र में, स्वगृह में या उच्च राशि पर शुक्र हो तो ७० वर्ष, मंगल हो तो ७० वर्ष, गुरु हो तो "Aho Shrutgyanam" Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कल्लोलः १० वर्ष, शनि हो तो ७० वर्ष और बुध हो तो ८० वर्ष तक राज्य करे। उपरोक्त ग्रह केन्द्र में अपनी राशि के या किसी स्थान में रहे हए भी उच्च राशि के हों तो जातक मंत्री होता है ॥२५॥ अथ यत्रवयसि राज्यं भवेत् तद्भानमाह शीर्षपृष्टोभयक्षस्थाः केन्द्रजीवाङ्गराशिपाः । वयसोऽथादिमध्यान्ते राज्यार्थेशत्वसौख्यदाः ॥२६॥ जीवाङ्गराशिपा गुरुलग्नेशराशिपतयो यदि बलिष्ठाः केन्द्रशीर्षपृष्टोभयक्षस्था भवन्ति तदा वयसः आदिमध्यान्ते राज्यार्थेशत्वसौख्यदाः राजधनस्वामित्वसुखदातारो ज्ञेयाः। तद्यथा-यदि जीवः केन्द्र शीर्षरशिस्थो बलवांस्तदा वयस प्रादौ बाल्ये धनं वा सुखं च । सिंहकन्यातुलावृश्चिककुम्भाः शीर्षोदयाराशयो ज्ञेयाः। एवं गुरुः केन्द्र पृष्ठोदयराशिस्थो यदि तदा वषस्ये मध्ये तारुण्ये राज्यादिदाता । मेषवृषकर्कधनुर्मकराः पृष्ठोदयराशयो ज्ञेयाः । अथ यदि जीवः केन्द्रे उभयोदयराशिस्थो मोनराशिस्थो वयसोऽन्त्ये वृद्धत्वे राज्यधनठाकुरत्वसूखदाताः । एवं लग्नपतिः । एवं जन्मराशिपतिरवलोक्यो जीववत् । अथ यदि जीवलग्नेशजन्मराशिनाथा यथासम्भवं केन्द्रस्थिता भवन्ति ततः शीर्षपृष्ठोभयराश्यनुमानाद् वयसि राजधनादिदातारो जायन्ते ध्रुवम् । अपि शब्दो विभिन्न योगक्रमवाची ॥२६॥ बृहस्पति, लग्न का स्वामी और जन्म राशि का स्वामी ये केन्द्र में हों और शीर्षोदय राशि पर हो तो बाल्यावस्था में, पृष्ठोदयराशि के हो तो मध्यावस्था में और उभयोदय राशि में हो तो अन्तिम अवस्था में राज्य, धन, सुख और ऐश्वर्य प्रादि की प्राप्ति होती है। जैसे-बृहस्पति केन्द्र में हो और शीर्षोदय राशि पर हो तो बाल्यावस्था में, केन्द्र में रहा हा गुरु उभयोदय राशि पर हो तो मध्यावस्था में और केन्द्र में रहा हया गुरु उभयोदय राशि पर हो तो अन्तिम अवस्था में राज्य प्राप्ति धन सुख और ऐश्वर्य प्रादि की प्राप्ति होती है । मिथुन, सिंह, कन्या, तुला वृश्चिक और मकर ये शीर्षोदय राशि हैं। मेष, वृष, कर्क, धनु और मकर पृष्ठोदय राशि है और मीन उभयोदय राशि है ॥२६॥ अथ शास्त्रान्तराद् राजभङ्गयोगानाह __ सर्वे क्रूराः केन्द्रे नीचारिराशिगताः शुभैरदृष्टाः शुभो व्ययारिरन्ध्रस्थाश्च यदि भवन्ति तदा राजयोगभङ्गः । लग्ने सर्वग्रहादृष्टे सति भङ्गः । स्वांशे रवौ चन्द्र क्षीणे पापदृष्टे राजा पश्चाद्धृष्टः । केषूच्चेषु केषु स्वमूलत्रिकोणस्थेषु सत्सु राजा, परमनीचस्थेऽपि भङ्गः। केमद्रुमे चन्द्रे सर्वग्रहादृष्टे च भङ्गः । त्र्याधींचैर्भङ्गो यदि नोच्चै रवीन्दू स्याताम् । सारावलीयमिदम् "Aho Shrutgyanam" Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः कुम्भाष्टभागे कोणस्थे चन्द्रो जातो नृपो भवेत् । कुम्भलग्नं तु न श्रेष्ठं द्वादशांशोऽस्य कुत्र न ॥ इतिश्रीकाशहृदगच्छीय श्रीसिंहतिलकसूरिशिष्य श्रीनरेन्द्रचन्द्रोपाध्यायकृतायां वृत्तिबेडाया जन्मसमुद्र विवृतौ द्रव्योपार्जनराजयोगलक्षणो नाम पञ्चमः कलोलः। यदि सब क्रूर ग्रह केन्द्र में हों, नीच के या शत्रु राशि के हों और उनको शुभ ग्रह देखते न हों तथा शुभ ग्रह बारहवें, आठवें या छठे स्थान में रहे हों तो राजयोग का भंग हो जाता है। लग्न को कोई ग्रह देखते न हों तो राजयोग का भंग होता है ।२। रवि और क्षीण चन्द्रमा अपने नवमांश में हों, उनको पाप ग्रह देखते हों तो राज्य पद से भ्रष्ट हो जाता है ।३। कितनैक ग्रह उच्च के या मूल त्रिकोण के हो तो राजयोग होता है, परन्तु नीच राशि के हो तो राजयोग का भंग हो जाता है।४। केमद्र म के चन्द्रमा को कोई ग्रह देखते न हो तो राजयोग का भंग होता है ।५। तीन आदि ग्रह नीच राशि के हों और रवी, चन्द्रमा उच्च के न हों तो राजयोग का भंग होता है। सारावली ग्रंथ में कहा है कि-कुम्भ के आठवें नवमांश में रहा हा चन्द्रमा नवें या पांचवें भवन में रहा हो तो राजयोग होता है। कुम्भ लग्न और कुम्भ का द्वादशांश कहीं भी अच्छा नहीं है। इति श्री नरचंद्रोपाध्याय विरचित जन्मसमुद्र के द्रव्योपार्जन राजयोग लक्षण नाम का पञ्चम कल्लोल समाप्त। "Aho Shrutgyanam" Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधुना जातस्वरूपलक्षणो नाम षष्ठः कल्लोलो व्याख्यायते । तस्यादिश्लोकेन यत्र जाते सति वंशच्छेदः स्यात् । यत्र जीविति सति स्त्रियः पुत्राणां च मृत्युस्तज्ज्ञानमाह खास्ताम्बुर्गः क्रमाच्चन्द्र-शुक्रपापैः स्ववंशहा। स्त्र्यङ्गोऽर्केऽस्ते यमे स्त्रोघ्नः सुते चारे स्वपुत्रहा ॥१॥ चन्द्रशुक्रपापैः क्रमात् पर्यायेण खास्ताम्बुगैः दशमसप्तमचतुर्थस्थैः कृत्वा यो जातः स स्ववंशहा स्वं स्वकीयं वंशं गोत्रं कुलं वा हन्तीति स्ववंशोच्छेदकारी दुर्योधनप्राय इत्यर्थः । अथार्के स्त्र्यङ्ग कन्यालग्नस्थे, यमे शनौ सप्तमस्थे सति स्त्रीनः स्त्रियं हन्ति इति स्त्रीन: । तस्य जीवत एव भार्या म्रियत इत्यर्थः ।।१। ___ यदि जन्मकुन्डली में चन्द्रमा दसवें स्थान में, शुक्र सातवें में और पाप ग्रह चौथे स्थान में हो तो जातक अपने वंश का दुर्योधन की तरह नाश करने वाला होता है । एवं जिस पुरुष की कुन्डली में कन्या राशि के लग्न में सूर्य रहा हो और शनि सातवें स्थान में हो तो स्त्री का विनाश कारक योग है अर्थात् पुरुष जीते हुए उसकी स्त्री मर जाय। एवं कन्या राशि के लग्न में सूर्य हो और पांचवें भवन में मंगल हो तो पुत्र का नाश कारक योग होता है ॥१॥ अथ भार्यामृत्युयोगत्रयमाह शुक्रात् तुर्याष्टगैः पापस्तभार्या म्रियतेऽग्नितः । सिते तन्मध्यगे पातात् पाशान्निःसौम्यदृग्युते ॥२॥ पापैः रविकुजशनिभिः शुक्राद् यथा सम्भवं तुर्याष्टगैः चतुर्थाष्टगैस्तद्भार्या म्रियतेऽग्नितः, परं जीवत एव । अथ सिते शुक्रे तन्मध्यगे पापद्वयमध्यगे पातादुच्चप्रदेशाच्च पतिता सति म्रियते । सिते शुक्र निःसौम्यदृग्युतौ निर्गते सौम्ययो ष्टियुती यत्र स निःसौम्यदृग्युतिः, तत्र यथा शुक्रे सौम्ययोरेकेनादृष्टे एकेनायुक्ते च सति पाशात् । तस्य जीवत एवात्मानं व्यापादयति ।।२।। जिस पुरुष की कुण्डली में शुक्र से चौथे या आठवें स्थान में पाप ग्रह हो तो स्त्री की अग्नि से मृत्यु होवे ।१। यदि शुक्र दो पाप ग्रह के बीच में हो तो स्त्री की मृत्यु ऊचे प्रदेश में गिरने से होवे ।२। यदि दो पाप ग्रह के बीच में रहा हुअा शुक्र को कोई शुभ ग्रह देखते न हो, या कोई शुभ ग्रह साथ भी न हो तो स्त्री की मृत्यु फांसी से होवे ।३। ॥२॥ "Aho Shrutgyanam' Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ अथ दम्पतीकारणत्व एकपुत्रत्वज्ञानमाह काणः पत्न्या सहार्केन्द्रोर्व्ययारौ वैकनन्दनः । एकाङ्गा स्त्री सुते वास्ते धर्मे वा सूर्यशुक्रयोः ||३|| अर्केन्द्रोव्ययारौ व्ययषष्ठस्थयोः क्रमेण पत्न्या स्त्रिया सह कारण एकाक्षः । अथार्केन्द्वोः सूर्यचन्द्रयोर्व्ययस्थयोरथ षष्ठस्थयोर्वाथवा द्वर्योर्व्ययषष्ठस्थयोर्वा एकनन्दनः एकापत्यः । वाथवा सूर्यशुक्रयोः सुते पञ्चमस्थयोर्वाथवाऽस्ते सप्तमस्थयोर्वाथवा धर्मे नवमस्थयोः स्त्री भार्या एकाङ्गा एकाङ्गहोना तस्य भवति ॥३॥ सूर्य और चन्द्रमा इन दोनों में से एक छठे स्थान में और दूसरा बारहवें स्थान में हो या दोनों एक साथ छठे या बारहवें स्थान में हों तो स्त्री के साथ पुरुष कारणा होवे अथवा एक संतान होवे । एवं सूर्य और शुक्र ये दोनों पांचवें स्थान में या सातवें स्थान में या नवें स्थान में हों तो एक अंग से हीन स्त्री होवे ||३|| अथ स्त्रं शुभ अशुभाचेति ज्ञानमाह - जन्मसमुद्रः मूर्वेन्दोः स्मरे चैक - द्वित्रिपुष्टशुभेषु सा । वेष्टवर्गेऽथ वेशेक्ष्ये स्त्री भव्येत्थं खलेषु न ॥४॥ मूर्त्तेर्जन्मलग्नाद् वाथवेन्दोश्चन्द्रात् स्मरे सप्तमे एकद्वित्रिपुष्टशुभेषु एको द्वौ वा त्रयो वा चत्वारो वा पुष्टा ये शुभास्तेषु स्मरस्थेषु सा भार्या तस्य भव्या प्रधाना । वाथवात्र सप्तमस्थे इष्टवर्गे शुभषड्वर्गे सति, वाथवा ईशेक्ष्ये स्वामिदृष्टे सप्तमे धार्मिका गुणयुक्ता स्त्री । अर्थान्तरात् सप्तमस्थ व गंपतिस्वभावाः सप्तमाधिपांशतुल्या भार्या भवन्ति ग्रहवीक्षरणाद् वेति गुरूपदेशोऽयम् । सर्वत्रेत्थं पूर्ववत् । खलेषु पापेषु स्मरे सप्तमस्थेषु वाथवा वर्गे सप्तमस्थे यस्य पापस्य सक्ते तेनेक्ष्ये दृष्टे सति नाभीष्टा न भव्या । अर्थवशाद् मिश्रः सप्तमस्थैः पापिनी कलहिनी धार्मिका सुशीला च ||४|| लग्न से अथवा चन्द्रमा से सातवें स्थान में बलवान शुभ ग्रह हो तो पुरुष को उत्तम स्त्री मिले । श्रथवा सातवें स्थान को शुभ ग्रह या सातवें स्थान का स्वामी देखते हों, या सातवां स्थान शुभ ग्रह के षड्वर्ग में हो तो उत्तम स्त्री मिले । एवं सातवें स्थान में पाप ग्रह हो या पाप ग्रह देखते हों या पाप ग्रह के षड्वर्ग में हो तो अच्छी स्त्री न मिले । यदि मिश्र ग्रह सातवें स्थान में हो तो मिश्र स्वभाववाली मिले ॥४॥ श्रथ योगान्तरमाह एकार्कारांशगौ ज्ञेज्यौ वात्रार्कोन्दू परप्रिया । शुक्रेज्यौ तु स्ववर्णान्द्वाराकैरन्यवणंजा ॥५॥ "Aho Shrutgyanam" Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ कल्लोलः ७७ ज्ञेज्यौ बुधगुरू, अत्र सप्तमेऽर्कारांशस्थौ सूर्यकुजयोरंशगतौ यदि तदा एका स्त्री । वाथवार्कीन्दू अत्र सप्तमे यदि स्यातां तदा परप्रिया पुनर्भू स्यात् । अथवा शुक्रेज्यौ शुक्रगुरू सप्तमे यदि तदा स्ववर्णा स्वकीयो वर्णो यस्याः सा सवर्णा । अथार्कीन्द्वाराः शनिचन्द्रकुजसूर्यैः सप्तमस्थैरन्यवर्णजा। अन्यस्मिन् वर्णे जायतेस्म या स्त्री सा भवेत्तस्य भार्या । शास्त्रान्तरादत्र सप्तमे शुक्रेन्द्वोरथवानयोर्वर्गे सप्तमेऽथवा आभ्यां दृष्टेऽथवा युक्ते सति बहुस्त्रीको भवति ।।५।। बुध और गुरु ये दोनों सूर्य या मङ्गल के नवमांश के होकर यदि सातवें स्थान में हों तो एक स्त्री होवे । शनि और चन्द्रमा सातवें स्थान में हों तो पर स्त्री मिले। गुरु और शुक्र सातवें स्थान में हों तो अपने जाति की स्त्री मिले। शनि, चन्द्रमा, मङ्गल और सूर्य सातवें स्थान में हों तो दूसरी जाति की स्त्री मिले । अन्य शास्त्रों में कहा है कि-- सातवें स्थान में शुक्र और चन्द्रमा हो. या इन दोनों में से एक के षड्वर्ग का सातवां भवन हो, या इन दोनों की दृष्टि हो तो जातक अधिक स्त्रो वाला होवे ॥शा अथाभार्यापुत्रत्वज्ञानमाह विस्त्रोसुतोऽन्त्यास्ताङ्गस्थैः पापै/स्थे च दुविधौ । कामगाभ्यां यमाराभ्यां स चैकस्थेन्दुशुक्रयोः॥६॥ पापैर्यथासम्भवमन्त्यास्ताङ्गस्थैर्व्ययसप्तमलग्नस्थैः, दुविधौ क्षीणेन्दौ धीस्थे पञ्चमस्थे सति विस्त्रीसुतो विगता स्त्री सुताश्च यस्य स तस्य भार्या न पुत्रो न च स्यादिति वाच्यम् । अथ यमाराभ्यां शनिकूजाभ्यां कामगाभ्यां सप्तमस्थाभ्यां, यत्र तत्र राशौ एकस्थेन्दुशुक्रयोः सतोश्चशब्दादभार्यापुत्रश्च स्यात् ।।६।। जिसकी जन्म कुण्डली में पाप ग्रह बारहवां, सातवां और लग्न इन तीनों स्थान में हो, तथा क्षीण चन्द्रमा पांचवें स्थान में हो तो जातक को स्त्री और पुत्र की प्राप्ति न होवे। एवं शनि और मंगल सातवें स्थान में हो, अथवा चन्द्रमा और शुक्र एक राशि का होकर किसी भी स्थान में रहे हो तो स्त्री और पुत्र की प्राप्ति न होवे ॥६॥ चिः अथ चित्रकर्मादिजीवियोगद्वयमाह - लग्नस्थाकॊक्षिते सज्ञे त्र्यंशे शिल्पादिजीविकः। चित्र्यङ्गऽब्जे मदे सूर्ये व्ययाथस्थयमारयोः ॥७॥ त्र्यंश इति त्र्यंशो द्रेष्काणो यस्य राशिसम्बन्धी भवेत्, तत्र राशौ सज्ञे सुबुधे लग्नस्थार्कीक्षिते लग्नस्थो य आर्किः शनिस्तेनेक्षिते दृष्टे शिल्पादि जीविकः चित्रकर्मादिविज्ञानाजीवीत्यर्थः। अब्जे चन्द्र, अङ्गगे लग्नस्थे सति, सूर्ये मदेऽस्तस्थे "Aho Shrutgyanam" Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः च 'व्ययार्थस्थयमारयोः' व्ययार्थस्थौ द्वादशधनस्थौ यौ यमारौ शनिकुजौ तयोश्चित्री चित्रकृद् भवति ॥७॥ द्रेष्काण की राशि में रहा हुआ बुध को लग्न में रहा हुअा शनि देखता हो तो चित्र आदि शिल्प कला से अपनी प्राजोविका चलावे एवं चन्द्रमा लग्न में, सूर्य सातवें और शनि और मंगल बारहवें और दूसरे स्थान में हो तो जातक चित्रकार होवे ॥७॥ अथ योगान्तरमाह कुकर्मास्तगयोरर्कचन्द्रयोः शनिदृष्टयोः । मिथो भांशस्थयोः शोषी चैतयोस्तनुदुर्बलः ॥८॥ अर्कचन्द्रयोरस्तगयोः सतोः शनिदृष्टयोः कुकर्मा स्वकुलानुचितधर्मकर्मत्यर्थः । एतयोरर्कचन्द्रयोमिथो भांशस्थयोः परस्परं ये भे राशी तत्रस्थयोः शोषी। अथ परस्परं यौ राश्यंशौ तत्रस्थयोस्तनुदुर्बल: कृशः । यथा रवौ कर्काशे च सति चन्द्र सिंहे सिंहांशे वा यो जातः स शोषी। च शब्दात् समकालं यस्य जन्मनि सिंहे कर्के वा क्रमाच्चन्द्ररवी स्यातां तदा कृशः ।।८।। सातवें स्थान में रहे हुए सूर्य, चन्द्रमा को शनि देखता हो तो अपने कुल से विरुद्ध कुकर्म करने वाला होता है। सूर्य की राशि पर चन्द्रमा और चन्द्रमा की राशि पर सूर्य ऐसे परस्पर राशि पर हो तो जातक का शरीर शोषी होता है। सूर्य, चन्द्रमा ये दोनों परस्पर राशि के नवमांश में हो तो दुर्बल शरीर वाला होता है ॥८॥ अथ दासीजातविकलाङ्गज्ञानमाह - ... शुक्रेन्त्यस्थे यमांशस्थे दासीजातोऽयमित्यपि । चन्द्र खेऽस्ते कुजे सौरे वेशिगे सोऽङ्गवजितः ॥६॥ शुक्रेऽन्त्यस्थे द्वादशस्थे यमांशस्थे च मकरकुम्भयोरेकतमांशस्थे सत्ययं दासीजातोऽथ ग्रन्थान्तरादपि शब्दाच्छुके शन्यंशगते रवीन्द्वोरेकतमस्थे च शनिदृष्टे सति तस्य माता महद्धिककुले दासी आसीत् । चन्द्र खे दशमस्थे कुजेऽस्ते सप्तमस्थे च सौरे शनी वेशिगे वेशियोगस्थे सति यो जातः सोऽङ्गवजितोऽङ्गहीनो भवेत् । अर्काच्चन्द्ररहितैर्ग्रहैद्वितीयस्थैर्वेशिनामा योगः ।।६।। ___ बारह व स्थान में रहा हुआ शुक्र यदि मकर या कुम्भ के नवमांश में हो तो दासी पुत्र कहना । शुक्र, मकर या कुम्भ के नवमांश हो और एक स्थान में रहे हुए सूर्य, चन्द्रमा को शनि देखता हो तो जातक की माता दासी का काम करती है। एवं चन्द्रमा दसवें भवन में मंगल, सातवें भवन में और सूर्य से दूसरे स्थान में शनि हो तो जातक अंगहीन होता है। वेशियोगसूर्य से दूसरे स्थान में चन्द्रमा को छोड़ कर दूसरा कोई ग्रह हो तो वेशियोग होता है ॥ "Aho Shrutgyanam" Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ कल्लोलः श्रथ वाधिरुग् गुरुगुह्यरुग्यथा स्यादितिज्ञानमाह - अस्ते शुक्रारयोः पापदृष्टयोर्वाधिरु शिशुः । कर्काल्यंशगते चन्द्र सपापे गुह्यरुग् भवेत् ||१०|| शुक्रारयोरस्ते सप्तमस्थयो: पापदृष्टयो रविशनिदृष्टयोः शिशुर्बालको वाधिरुक् वाधिरोगी । पापदृष्टयोरित्युक्तं यत्तत्कथं रविशन्योः पापत्वमुक्तम् कुजः क्वगतः यतो योगमध्ये उक्तः । चन्द्र सपापे कर्काल्यंशगते कर्कवृश्चिकयोरेकतमांशस्थे यत्र तत्र राशौ गुह्यरुक् गुदरोगः ।। १० ।। सातवें स्थान में रहे हुए शुक्र और मङ्गल को पाप ग्रह (रवि और शनि) देखते हों तो बालक को वाधि रोग होवे । एवं किसी भी स्थान में रहा हुम्रा पाप ग्रह युक्त चन्द्रमा कर्क या वृश्चिक के नवमांश में हो तो गुदा रोग होवे ॥१०॥ अथ यथाश्वासादिरोगी स्पादिति ज्ञानमाह मृगेऽर्केऽब्जे यमारान्तः श्वासप्लीहक गुल्मरुक् । कर्केणमीनाजांशस्थे चन्द्र े कुष्टयारयुग्हशि ।। ११ ।। अर्के मृगे मकरस्थे सति, प्रब्जे यमारान्तः यत्र तत्र राशौ शनिकुजयोर्मध्यस्थे च श्वासप्लीहगुल्मरुक्, श्वासः प्रसिद्धः, प्लीहको वामकुक्षिगतो मांसखण्डः. गुल्मो वायुगोलकरूपः । क्षयविद्रधियोगी वात्रयोगे । कर्केरणमीनाजांशस्थे चन्द्रे मकरमीनकर्कमेषाणामेकतमनवांशस्थे सति प्रारयुग्दृशि शनिकुजयोर्मध्यादेकतमेन युक्ते दृष्टे वा यो जातः स कुष्ठी, परं शुभदृष्टे चन्द्रे कण्डूविकारी स्यात् ।। ११।। ७६ जिसकी जन्म कुण्डली में सूर्य मकर राशि का हो और किसी भी राशि में रहा हुआ चन्द्रमा, शनि और मंगल के बीच में हो तो बालक श्वास, प्लीहा, गुल्म क्षय या विद्रधि श्रादि रोगवाला होवे । एवं चन्द्रमा, कर्क, मकर, मीन या मेष के नवमांश में हो, उसके साथ शनि या मंगल हो, या उसकी दृष्टि हो तो कोठ रोगवाला होवे । परन्तु शुभ ग्रह देखते हों तो कम्प रोग वाला होवे ॥११॥ श्रथ कुष्ठियोगद्वयमाह - धन्विपञ्चांगे चन्द्र कुष्टचाराकक्षितान्विते । वाङ्ग कर्केणगोऽलीनामेवोप्रेक्ष्ये त्रिकोणगे ।। १२ ।। चन्द्र धन्विपञ्चांगे धनुषः पञ्चमो योंऽशो नवांशस्तत्र गते श्रारार्कीक्षितान्विते, आर: कुजः, आर्किः शनिः अनयोरेकतमेन युक्ते दृष्टे वा कुष्ठी "Aho Shrutgyanam" Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जन्मसमुद्रः भवेत् । वाथवा कणगोऽलीनां कर्कमकरवृषवृश्चिकाणानामेकतमे भे राशी, अङ्गे लग्नगते, च शब्दादमीषां भे राशौ त्रिकोणगे च नवमस्थे पञ्चमस्थे वा उग्रेक्ष्ये पापदृष्टे सति यो जातः स कुष्ठी ॥१२॥ धनु राशि के पांचवें नवमांश में रहा हुया चन्द्रमा को शनि या मंगल देखता हो या उसके साथ हो तो बालक कुष्ठी होवे । एवं लग्न में या नवें या पांचवें भवन में कर्क, मकर वृष या वृश्चिक राशि हो और उनको पाप ग्रह देखते हों तो जातक कोढ़ रोग वाला होवे ॥१२॥ अथान्धबधिरकुदन्तयोगानाह अन्धोऽर्कन्द्वारसौरैः स्वाष्टान्त्यारिस्थैर्यथा तथा । एतै स्त्रिधर्मध्यायस्थ-बधिरोऽस्तेऽथ कुद्विजः ॥१३॥ अर्केन्द्वारसौरैर्यथा तथा येन तेन प्रकारेण स्वाष्टान्त्यारिस्थैर्धनाष्टमव्ययषष्ठस्थैरन्धो नेत्रहीनो भवेत् । केन रोगेण भविष्यतीत्युच्यते। तेषां चतुर्णा मध्याद् यो वलवास्तस्य यो वातपित्तश्लेष्मणां मध्याद् दोष उक्तस्तेन प्रकुपितेनाक्षिविनाशो भविष्यतीत्यर्थः । एतैर्ग्रहैर्यथासम्भवं त्रिधर्मध्यायस्थैस्तृतीयनवमपञ्चमैकादशस्थैः शुभैरदृष्टैर्बधिरः कथमित्याह-एषां ग्रहाणां चतुर्णा मध्याद् यो बलवांस्तदुक्तदोषेण कर्णपीडा । अथैतरस्ते सप्तमस्थैः शुभादृष्टः कुद्विजो दन्तविकारीत्यर्थः ॥१३॥ सूर्य दूसरे, चन्द्रमा पाठवें, मंगल बारहवें और शनि छठे भवन में रहे हो तो जातक अन्धा होता है । इन चार ग्रहों में जो बलवान हो उस ग्रह की वात, पित्त, कफादि प्रकृति के अनुसार रोग की उत्पत्ति कहना । एवं सूर्य तीसरे. चन्द्रमा नवे, मंगल पांचवें और शनि ग्यारहवें स्थान में हो और उन्हें शुभ ग्रह देखते न हों तो जातक बधिर (बहरा) होवे । एवं सूर्य, चन्द्रमा, मंगल और शनि ये सातवें स्थान में हों, उनको शुभ ग्रह देखते न हों तो जातक को दांत की बीमारी होवे ॥१३॥ अथान्धपिशाचकुदन्तयोगानाह-- अन्धोऽर्केऽङ्ग हिभुक्ते च त्रिकोणस्थारसौरयोः । पिशाचोऽब्जे तु वोग्रेक्ष्ये गोऽजारस्त्राङ्ग कुदन्तकः ।।१४॥ .. अर्केऽङ्ग लग्नस्थे, अहिभुक्ते राहुग्रस्ते सति त्रिकोणस्थारसौरयोः त्रिकोणं नवपञ्चमं तत्र तिष्ठत इति यौ आरशनी तयोः सतोरन्धः । पुनरब्जे ग्रस्ते चन्द्र ग्रस्ते त्रिकोणस्थारसौरयोश्च पिशाचो राक्षसः। वाथवा गोऽजास्त्राङ्ग वृषमेषधनुषामेकतमे लग्ने उग्रेक्ष्ये पापदृष्टे सति कुदन्तको विरूपदन्तः ॥१४॥ .. "Aho Shrutgyanam" Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ कल्लोलः लग्न में रहा हुआ सूर्य के साथ राहु हो, तथा शनि और मंगल नवें और पांचवें स्थान में हो तो जातक अन्धा होवे । एवं चन्द्रमा और राहु लग्न में हो, तथा मंगल और शनि नवें और पांचवें स्थान में हो तो जातक पिशाच स्वभाव वाला होवे । यदि लग्न में मेष, वृष या धन राशि हो और उसको पाप ग्रह देखते हो तो जातक खराब दांत वाला होवे ॥ १४॥ अथ दासज्ञानमाह राश्यंशकपतीन्द्वर्क जीवनचक्षपांशगैः । अमित्रांशगतैवैतं जतो दासो भवेदयम् ||१५|| एतै राश्यंशकपतीन्द्वर्क जी वैर्जन्मराशिपतिचन्द्रसूर्यजीवै नचर्क्षपांशगैरात्मीयोच्चराशितः सप्तमो राशिर्नीचराशिस्तस्य ऋक्षं राशि पान्ति ये ग्रहास्तेषामंशा नवांशास्तेषु गतैर्वाथवामीभिरमित्र्यंशगतैः शत्रोरंशस्थैर्यो जातः सोऽयं दासो भवेत् । तद्यथा— यस्य जन्मकाले एको ग्रहो यथोक्तग्रहेभ्यो नीचाधिपांशस्थोऽथामित्रांशगतो भवति स स्वयं जीवितार्थी दासत्वं भजति । यदा द्वावेवंविधौ भवेतां तदा एकेन विक्रीतः सन् येन क्रीतस्तस्य दासः स्यात् । एवंविधा यदा त्रयश्चत्वारो वा भवन्ति तदा सगर्भदासोऽस्ति । दास्या दासस्य वा पुत्रो लोके गृहे जातदास इत्युच्यते ।।१५।। जन्म राशि के या जन्म राशि के नवमांश का स्वामी चन्द्रमा, सूर्य, गुरु ये यदि नीच राशि के स्वामी के नवमांश में हो, या शत्रु राशि के नवमांश में हो तो जातक दास होता है । उपरोक्त चारों ग्रहों में से कोई एक ग्रह नीच राशि के स्वामी के नवमांश में हो या शत्रु राशि के नवमांश में हो तो जातक स्वयं दास का काम करे । एवं दो ग्रह हो तो दूसरे के हाथ से दासपन के लिए बेचा जाये । एवं तीन या चार ग्रह हों तो जन्म से ही दास होवे अर्थात् दास-दासी का पुत्र होवे ॥ १५॥ अथ खल्वाटयोगत्रयं बन्धनं चाह - ८१ पापक्षेऽङ्ग वृषे वास्त्रे खल्वाट: पापवीक्षिते । धीस्वधर्मान्त्यगैः पापैर्लग्नर्क्षाभास्य बन्धता ॥१६॥ पापर्क्षे पापानां राशौ मेषसिंहवृश्चिकमकरकुम्भनामेकतमेऽङ्ग लग्ने पापैर्वीक्षिते सति खल्वाटः शिरस्थखल्लिः । एवं वृषे लग्ने पापदृष्टे सति खल्वाटो भवेत् । वा अस्त्रे धनुषि अङ्गो लग्नस्थे पापदृष्टे स खल्वाटः खलति शिरा भवति । पापैर्धी स्वधर्मान्त्यगैः पुत्रधननवमव्ययानामेकतमस्थैर्यथासम्भवं तैरस्य बन्धता । लग्नर्क्षभा लग्नस्य यादृशो राशिस्तत्सदृशा वाच्याः । लग्नस्य राशि प्रथ "Aho Shrutgyanam" Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जन्मसमुद्रः र्यस्य प्राणिनः सदृशः स प्राणी येन प्रकारेण बध्यते तेन सोऽपीत्यर्थः। तद्यथामेषवृषमिथुनकन्यातुलाकुम्भधनुषामेकतमे लग्ने सति धीस्वधर्मान्त्यगैः पापैः कृत्वा निगडैर्बध्यते । कर्कमकरसिंहानां मध्यादेकतमे लग्ने बन्धनं विना दुर्गे क्षिप्तो रक्ष्यते । वृश्चिकलग्ने भूमिगृहे बद्धो रक्ष्यते । एवं लग्नराशेः समाना बन्धता कल्प्या ।।१६।। पाप ग्रह की राशि का कोई लग्न हो, उसको पाप ग्रह देखते हों तो जातक खल्वाट होवे । एवं वृष राशि का लग्न हो और पाप ग्रह उसको देखते हों तो खल्वाट होवे । एवं धन राशि का लग्न हो उसको पाप ग्रह देखते हों तो खल्वाट होवे अर्थात् माथे पर बाल न होवे । यदि पांचवें, दूसरे, नवें या बारहवें स्थान में पाप ग्रह हो, लग्न राशि के स्वभाव तुल्य बन्धन कहना। अर्थात् लग्न की राशि मेष, वृष, मिथुन, कन्या, तुला, कुम्भ या धन हो और दूसरे, पांचवें, नव या बारहवें स्थान में पाप ग्रह हो तो रस्सी से बन्धन कहना । कर्क, मकर या सिंह राशि का लग्न हो और उपरोक्त स्थानों में पाप ग्रह हो तो किला में बन्धन कहना। एवं वृश्चिक लग्न हो तो भूमि गृह में बन्धन कहना ॥१६॥ अथ दुर्वाक् कुदृक् बहुरोगी एकाङ्गहीनो वा भवतीत्याह साारेक्ष्ये विधौ दुर्वाक् सोग्रेऽर्के कोणगे कुदृक् । एवं शनौ बहुव्याधिरेवं भौमेऽङ्गहीनकः ॥१७॥ विधौ कुचन्द्र साारेक्ष्ये पाकिः शनिः, पारो भौमः प्राभ्यां सह वर्तते युक्ते इत्यर्थः । अथवा ईक्ष्ये दृष्टे सति दुर्वाग् दुष्टा वाग् यस्य सोऽप्रियभाषीत्यर्थः । पुनरयं विशेषः-चन्द्र साकौ शनियुक्तेऽप्रियभाषी। चन्द्र सारे सभौमेऽप्यप्रियवादो । तथा चन्द्र शनिना भौमेन वा दृष्टे कर्कशवागित्यर्थः । अपस्मारेण वा मृत्युः । क्षयी वा । अथार्के कोणे नवमे पञ्चमे वा सोने उग्रौ पापौ कुजशनी आभ्यां युक्ते कुदृक् असारनेत्रः । एवं शनौ कोणगे रविकुजयुक्ते दृष्टे वा बहुव्याधिः । एवं कुजे कोणगे रविशनियुक्ते दृष्टे वा बहुव्याधिः। एवं कुजे कोणगे रविशनियुक्ते दृष्टेऽङ्गहीनो विकलाङ्गः ।।१७।। चन्द्रमा के साथ शनि या मंगल हो, अथवा चन्द्रमा को शनि या मंगल देखते हो तो जातक दुष्ट वचन बोलने वाला होता है। अथवा अपस्मार रोग से मृत्यु होवे। नवें या पांचवें स्थान में सूर्य हो, उसको पाप ग्रह-शनि और मंगल देखता हो या उसके साथ हो तो खराब नेत्र वाला होवे । एवं नवें या पांचवें स्थान में शनि हो, उसके साथ मंगल या सूर्य हो या उसको देखते हों तो अधिक व्याधि वाला होता है। एवं नवें या पांचवें स्थान में मंगल हो उसको सूर्य या शनि देखता हो या उसके साथ हो तो जातक अंगहीन होता है ॥१७॥ "Aho Shrutgyanam" Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ कल्लोलः प्रथोत्तममध्यमाधमभृत्यस्ययोगज्ञानमाह खस्थार्काराकिभिः सौम्यादृष्टभृत्यो वरादिकः। जीवेऽङ्गऽस्ते यमे सारे वाती वारेऽस्तकोणगे ॥१८॥ खस्था दशमस्था येऽर्काराकिभिः सूर्यकुजशनयस्तैः सौम्यादृष्टभृत्यः कर्मकरो वरादिः स्यात् । तद्यथा-एषां ग्रहाणां मध्यादेकेन दशमस्थेन सौम्यैरदृष्टेन भृत्यः सेवको वरो भव्यो भवेदजुगुप्सितां भृतिं करोतीत्यर्थः । आदिशब्दाद् दशमस्थयोहूँ योः सतोर्मध्यमो मध्यमां वृत्ति करोतीत्यर्थः । एषु त्रिषु कर्मस्थेषु शुभैर दृष्टेषु अादिशब्दाद् अधमो नीचः सेवकः स्याद् निन्दितां वृत्ति कुर्यादित्यर्थः । अथ जीवेऽङ्ग लग्नस्थे यमे शनौ अस्ते सप्तमस्थे सारे कुजयुते च वातवान् सोन्मादः । वाशब्दो व्यत्ययार्थः । लग्ने शनौ पारे कुजेऽस्ते कोणगे सप्तमनवमपञ्चमानामेकतमस्थे सोन्मादः ।।१८।। - सूर्य, मंगल और शनि इनमें कोई एक दसव स्थान में हो, उसको कोई शुभ ग्रह देखते न हो तो उत्तम नौकरी करे। इन ग्रहों में से दो ग्रह दसव स्थान में हो, उनको शुभ ग्रह देखते न हो तो मध्यम नौकरी और तीनों ग्रह दसवें स्थान में हो कनिष्ठ नौकरी करे । यदि गुरु लग्न में हो तथा शनि और मंगल सातवें स्थान में हो तो जातक उन्माद रोगवाला होवे । एवं लग्न में शनि हो और मंगल सातवें, नवें, या पांचवें स्थान में हो तो उन्माद रोगवाला होवे ॥१८॥ अथ दम्पतीमिथोऽन्यगमयोगमाह-- शुक्रे शन्यारयोर्गेऽस्ते तद्वीक्ष्येऽन्यदारगः। तयो(कस्थयोः सेन्द्वोः शुक्रेऽस्ते स्त्रीसमं तथा ॥१६॥ शुक्रऽस्ते सप्तमस्थे शन्यारयोरेकतमस्य वर्गे च तद्वीक्ष्ये तयोः शनिकुजयोरेकतमेन दृष्टे वान्यदारगः परद्वारगामी नरो भवेत् । वाऽथवा तयोः शनिकुजयोरेकस्थयोरेकराशिस्थयोः सेन्द्वोः सचन्द्रयोः सतोः शुक्रेऽस्ते सप्तमस्थे सति तथेति कोऽर्थः शनिकुजयोरेकतमस्य वर्गे शनिना कुजेन वा दृष्टे च शुक्र स्त्रीसमं स्त्रिया सह पुश्चलः व्यभिचारी स्यात् । तद्भार्या वान्यनरगामिनी च स्यादित्यर्थः।।१६।। सातवें स्थान में रहा हुअा शुक्र यदि शनि या मंगल के षड्वर्ग में हो या देखा जाता हो तो जातक पर स्त्री गमन करने वाला होता है । एवं शनि, मंगल और चन्द्रमा ये तीनों एक राशि में हो, और सातवें स्थान में रहा हुया शुक्र यदि शनि या मंगल के षड्वर्ग में हो अथवा शनि या मंगल के साथ हो तो पुरुष पर स्त्री गामी और उसकी स्त्री भी पर पुरुष गामिनी होवे ॥१६॥ "Aho Shrutgyanam" Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ जन्मसमुद्रः अथ वन्ध्यास्त्रीवृद्धभार्यायोगमाह वन्ध्या भसन्धौ शुक्रेऽस्ते मन्देऽङ्ग नेष्टहासुते । वृद्ध ष्टेक्ष्यास्तगाराोरेकग: स्त्रीनृखेटयोः ॥२०॥ शुक्रे ऽस्ते सप्तमस्थे भसन्धौ कर्कमीनवृश्चिकानामेकतमस्य नवांशस्थे च सति, मन्दे शनौ अङ्ग मकरवृषकन्यानामेकतमे लग्ने, सुते पञ्चमस्थाने यदि नेष्टदृक् इष्टस्य शुभस्य दृक् दृष्टिस्तदुहिते युतिरहिते च सति तदा स्त्री भार्या वन्ध्या स्यात् । अथैकगस्त्रीनृखेटयोः एकराशिगतस्त्रीनरग्रहद्वयोरिष्टेक्ष्यास्तगारार्योः इष्टाः शुभास्तरीक्ष्यौ यो अस्तं सप्तमं तत्र गतौ यौ आरार्की भौमशनी तयोः सतोः वृद्धा स्त्री तस्य वृद्धत्वे वृद्धाभार्या भवतीत्यर्थः ॥२०॥ इति वृत्तिबेडायां जातकसमुद्रविवृतौ षष्ठः कल्लोलः ।।६।। सातवें स्थान में रहा हुअा शुक्र यदि कर्क, वृश्चिक या मीन के नवमांश में हो, शनि वृष, मकर या कन्या का होकर लग्न में रहा हो और पांचवें स्थान में कोई शुभ ग्रह न हो या उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि भी न हो तो स्त्री वंध्या होती है। अथवा सातवें स्थान में शनि और मगल एक साथ हो और उनको शुभ ग्रह देखते हो तो जातक को वृद्धावस्था में वृद्ध स्त्री मिले ॥२०॥ इति श्रीनरचंद्रोपाध्याय विरचित जन्मसमुद्र का छठा कल्लोल समाप्त। "Aho Shrutgyanam" Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ स्त्रीजातकाख्य: कल्लोलो व्याख्यायते । तत्रादौ यथा सुशीलाकुशीला च नराकारा च स्त्री स्यादितिज्ञानमाह स्त्रीस्वभावा समेऽङ्गन्द्वोः सच्छीला शुभदृष्टयोः । ओजस्थयोर्नराकारा निर्गुणोग्रेक्ष्ययुक्तयोः ॥१॥ अङ्गन्द्वोर्लग्नचन्द्रयोः समे समराशिस्थितयोः स्त्री नारी स्वभावा, स्वकीयो यो यो भावोऽभिप्रायः स्त्रीलक्षणो यस्याः सा स्त्रीस्वभावेत्यर्थः । एतयोः शुभदृष्टयोः सतोः सच्छीला सच्छोभनं शीलं यस्याः सा सदाचारा सुविवेकिनी। अथै तयोरोजस्थयोर्विषमराशिस्थयोर्नराकाराः पुरुषाकारा स्यात् । अथोग्रेक्ष्ययुक्तयोः पापयुतदृष्टयोनिर्गुणा औदार्यादिगुणहीना । अर्थादेव लग्ने चन्द्र च पापैदृष्टे युते वा कुशीला । अथैकस्मिन् समराशिगे विषमराशिगे वा लग्ने चन्द्र वा शुभै ष्टे युते वा मध्यमा स्त्री धार्मिका पापिना चेतिकल्पनीया ॥१॥ न लग्न और चन्द्रमा समराशि के हों तो स्त्री अपने स्वभाव वाली होवे। समराशि में रहे हए लग्न और चन्द्रमा को शुभ ग्रह देखते हों तो वह स्त्री सती, सदाचारिणी और विनयवती होवे । विषम राशि में लग्न और चन्द्रमा हों तो पुरुष जैसा आचरण वाली स्त्री होवे । विषम राशि में रहे हुए लग्न और चन्द्रमा को पाप ग्रह देखते हों या पाप ग्रह के साथ हों तो स्त्री निगुणा अर्थात् कुशीला होवे । लग्न और चन्द्रमा इन दोनों में से एक समराशि में और दूसरा विषम राशि में हो, उनको शुभ ग्रह देखते हों या साथ में हो तो मध्यम आचरण वाली होवे ॥१॥ अथ लग्नगतश्चन्द्रगतो वा योऽर्कादीनां राशिस्तस्य त्रिशांशकजाता या स्त्री तत्फलमाह लग्नेन्दुगार्कादिभस्थे त्रिशांशे वक्रतोऽतिवाक् । निन्द्या राज्ञी नराभास्त्र्यगम्यगाथाऽसती नृभित् ॥२॥ त्रिंशांशे कुजशनिजीवबुधशुक्रा एते त्रिशनाथाः। वक्रतः सर्वत्रानुवर्तनीयाः । किंविशिष्टे त्रिंशांशे लग्नेन्दुगार्कादिभस्थे लग्नं च इन्दुश्च तयोर्मध्याद् यो बलवान् तत्रगतं यदर्कस्य भं राशिः सिंहस्तत्र राशौ भौमस्य त्रिंशांशे जाता सातिवाक् वाचालेत्यर्थः । एवं शनित्रिंशांशे जाता निन्द्या कुलटेत्यर्थः । एवं गुरोः राज्ञी राजपत्नी । बुधस्य नराभा नरचेष्टिता। एवं शुक्रस्यागम्यगा अगम्यनरगामिनी । अथ सिंहराशेरनन्तरम् । आदिशब्दादेवं चन्द्रराशौ कर्केलग्नस्थे चन्द्रस्थे वा । "Aho Shrutgyanam" Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः भौमस्य त्रिंशांशे सति या जाता असती व्यभिचारिणी। एवं शनौ नृभित् पतिघातिनीत्यर्थः ॥२॥ लग्न और चन्द्रमा इन दोनों में से जो बलवान हो, वह जिसके त्रिशांश में हो उसके अनुसार फल कहना चाहिए । जैसे-लग्न या चन्द्रमा सूर्य की सिंह राशि पर हो और मंगल के त्रिशाँश में हो तो वाचाल स्त्री होवे । शनि के त्रिशांश में हो तो कलहकारिणी, गुरु के त्रिशांश में हो तो महारानी, बुध के त्रिशांश में हो तो पुरुष के जैसी चेष्टा वाली और शुक्र के त्रिशांश में हो तो व्यभिचारिणी होवे ॥२॥ प्रथ कर्कराशिस्थितत्रिंशांशक्रममाह - सगुणा शिल्पिनो दुष्टाथान्यगा दासगा सती। मायेत्वरी वा कूटाढया क्लीबेष्टा सगुणान्यगा ॥३॥ एवं जीवस्य भागे सगुणा औदार्यादिगुणयुता। एवं बुधस्य शिल्पिनी विज्ञानयुक्ता । एवं शुक्रस्य दुष्टा दुश्चारिणी स्त्री भवेत् । अथ कर्कस्यानन्तरमादिशब्दात् कुजस्य राशी मेषवृश्चिकयोरेकतमे, तत्रस्थे भौमस्य त्रिंशांशे सति जाता सा अन्यगा परगामिनी । एवं शनेर्दासी। जीवस्य सती पतिव्रता। बुधस्य माया शाठ्ययुता। शुक्रस्येत्वरी दुःशीला। वा शब्दो ग्रहाणां क्रमनिर्देशार्थो ज्ञेयः । आदिशब्दादेवं बुधस्य कन्यामिथुनयोरेकतमे राशौ तत्रस्थे भौमस्य भागे जाता कूटाढचा कपटबहुला। एवं शनेः क्लीबा नपुसकतुल्या। जोवस्येष्टा अभीष्टा सतीत्वात् । एवं बुधस्य सगुणा। शुक्रस्यान्यगा परनरगामिनी कामाधिक्यात् ।।३।। यदि लग्न या चन्द्रमा, चन्द्रमा की कर्क राशि पर हो और मंगल के त्रिशांश में हो तो व्यभिचारिणी, शनि के त्रिशांश में हो तो पति का नाश करने वाली, गुरु के त्रिशांश में हो सदगुण वाली, बुध के त्रिशांश में हो तो कलानों को जानने वाली और शुक्र के त्रिशांश में हो तो दुराचारिणी होवे । एवं लग्न या चन्द्रमा यदि मंगल की मेष या वृश्चिक राशि में हो और मंगल के त्रिशांश में हो तो पर पुरुष के साथ गमन करने वाली, शनि के त्रिशांश में हो तो दासी, गुरु के त्रिशांश में हो तो पतिव्रता, बुध के त्रिशांश में हो तो मायाचारिणी और शुक्र के त्रिशांश में हो तो दुराचारिणी होवे । एवं लग्न या चन्द्रमा, बुध की मिथुन या कन्या राशि में हो और मंगल के त्रिशांश में हो तो प्रधिक कपट करने वाली, शनि के त्रिंशांश में हो तो नपुसक जैसा बर्ताव वाली, गुरु के त्रिशांश में हो तो सती, शीलवती, बुध के त्रिशांश में हो तो सद्गुण वाली और शुक्र के त्रिशांश में हो तो परपुरुष गामिनी होवे ॥३॥ "Aho Shrutgyanam" Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम कल्लोल: ८७ प्रथ गुरुशुक्रशनिराशित्रिशांशफलमाह वाऽऽगुणाल्येः प्रियाशिल्पधीर्दुष्टा त्वन्यगान्यधृत् । दक्षेष्टाढ्याथवा दासी नीचेष्टा पांसुलाऽपसूः ॥४॥ वा शब्दो ग्रहक्रमवाची । प्रादिशब्दाद् गुरोर्मीनधनुषोरेकतमे राशौ तत्रस्थे भौमस्य त्रिंशांशे या जाता आगुणा, आसमस्त्येन गुणो यस्याः सा प्रागुणा बहुगुणेत्यर्थः । शनेर्भागे अल्पेः अल्पः स्तोकः 'इः' कामो यस्या सा अल्पेः अल्पकामा । जीवस्य प्रियागुणवत्त्वात् । एवं बुधस्य शिल्पधीविज्ञानबुद्धिः। शुक्रस्य दुष्टा असती । तुशब्दो ग्रहक्रमवाची । शुक्रस्य वृषतुलयोरेकतमे राशौ तत्रस्थे भौमस्य त्रिंशांशे जाता सा अन्य गा परनररता। शनेरन्यधृत् अन्यं नरं धारयतीत्यन्यधृत् पाणिग्रहणकर्तुरन्यस्य भार्या । जीवस्य दक्षा कलाकुशला। बुधस्येष्टा अभीष्टगीतवाद्यचित्रकर्मादिकौशल्यात् । शुक्रस्याढया बहुद्रव्ययुता। अथवा शब्दः क्रमनिर्देशार्थः । शनेर्मकरकुम्भयोरेकतमे राशौ तत्रस्थे भौमस्य त्रिंशांशे जाता दासी । शनेर्नीचा अधमपुरुषासक्ता। जीवस्येष्टा भर्तृ भक्तिनिरतत्वात् । बुधस्य पांशुला असती । शुक्रस्यापसूः अवगता सूः प्रसूतिर्यस्या वन्ध्येत्यर्थः। एवमन्यस्मिन् राशौ अन्यत्रिंशांशे लग्नं चन्द्रो वा भवेत् तयोर्द्व योर्यो बलवान् स यत्र राशौ यत्र त्रिंशांशे भवति, तस्य लग्नस्य चन्द्रस्य वा फलं वाच्यं बलहीनस्य न वाच्यम् ॥४॥ लग्न या चन्द्रमा, गुरु की मीन राशि या धन राशि में हो और मंगल के त्रिशांश में हो तो बहुत गुण वाली, शनि के त्रिशांश में हो तो कम काम-वासना वाली, गुरु के त्रिशांश में हो तो प्रेम वाली, बुध के त्रिशांश में हो तो अनेक कलाओं में विचक्षण और शुक्र के त्रिशांश में हो तो व्यभिचारिणी होवे । एवं लग्न या चन्द्रमा शुक्र की तुला या वृष राशि में हो और मंगल के त्रिशांश में हो तो पर पुरुष से गमन करने वाली, शनि के त्रिशांश में हो तो दूसरे पुरुष को रखने वाली, गुरु के त्रिशांश में हो तो कलाओं में चतुर, बुध के त्रिशांश में हो तो गीत, वाद्य या चित्र प्रादि कलानों में कुशल और शुक्र के त्रिशांश में हो तो अधिक धन वाली स्त्री होवे । एवं लग्न या चन्द्रमा शनि की मकर या कुम्भ राशि में हो और मंगल के त्रिशांश में हो तो दासी, शनि के त्रिशांश में हो तो नीच पुरुष के साथ गमन करने वाली, गुरु के त्रिशांश में हो तो पति की सेवा करने वाली, बुध के त्रिशांश में हो तो व्यभिचारिणी और शुक्र के त्रिशांश में हो तो वंध्या होवे । त्रिशांश में रहे हए लग्न और चन्द्रमा, इन दोनों में जो बलवान हो उसी से फलादेश कहना, निर्बल का नहीं कहना ॥४॥ अथ स्त्री स्त्रिया सह रति कुर्यादिति ज्ञानमाह मिथोंऽरास्थौ सितार्को चेदन्योऽन्येक्ष्यौ नवद्रतम् । कुर्यात् सा स्त्रीभिरन्याभिः कुम्भांशे वा सिताङ्गगे ॥५॥ "Aho Shrutgyanam" Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जन्मसमुद्रः चेद्यदि सितार्की शुक्रशनी मिथोंशस्थौ परस्परांशस्थौ अन्योऽन्येक्ष्यौ परस्परदृष्टौ तदा स्त्रीरतं कुर्यात् । अन्याभिः स्त्रीभिः कृत्वा । यथा एका स्त्री स्वजघने चर्ममयं लिङ्ग बध्वा परामुपभुङ्क्ते । अतोऽतिकामाधिक्यात् तां शान्तिं नेतु नरो न शक्नोति । वाथवा सिताङ्ग वृषतुलयोरेकतमे लग्नस्थे कुम्भांशे पूर्ववद् भोगं विधत्त । इति द्वितीयो योगः ॥५।। शुक्र और शनि ये परस्पर नवमांश में हो अर्थात शुक्र के नवमांश में शनि और शनि के नवमांश में शुक्र हो और परस्पर दोनों देखते हों तो स्त्री, स्त्री के साथ पुरुष सदृश मैथुन करे ।। अथवा शुक्र और शनि दोनों वृष या तुला राशि के लग्न में हो और लग्न का नवमांश कुम्भ हो तो स्त्री दूसरी के स्त्री के साथ पुरुष जैसे मैथुन करे ॥५॥ अथान्यद्योगान्तरमाह अङ्गाद्वन्द्वोः स्मरे शून्येऽबलेऽस्याः कानरः पतिः। वाज्ञे वाकौ नृकारो ना चरे पान्यः स्थिरे न च ॥६॥ अङ्गाद् लग्नाद्वा इन्दोश्चन्द्रात् स्मरे सप्तमे शून्ये ग्रहवजितेऽबले बलहीने शुभेनादृष्टे अस्याः पतिः भर्ता कानरः कुत्सितो नरः । अथवा ज्ञे बुधे आकौं शनौ वात्र सप्तमस्थे सति नृकारो ना पुरुषकारहीनो भर्ती क्लीब इत्यर्थः । सप्तमे चरराशौ सति पान्थो देशान्तरकारी भर्ता। स्थिरे सप्तमे सति न पान्थः किन्तु गृहस्थायी स्याद् । च शब्दाद् द्विस्वभावे सप्तमे सति किञ्चिन् पान्थः किञ्चिद् गृहस्थायी ॥६॥ लग्न या चन्द्रमा से सातवें स्थान में कोई भी ग्रह न हो, एवं निर्बल हो शुभ ग्रह उसको देखते न हो तो उस स्त्री को निदित पति मिले । अथवा बुध या शनि सातवे स्थान में हो तो स्त्री का पति नपुसक होवे । सातवें स्थान में चर राशि हो तो उस स्त्री का पति देशान्तर जाने वाला, स्थिर राशि हो तो स्थायी अपने घर रहने वाला और द्विस्वभाव राशि हो तो उस स्त्री का पति कभी परदेश और कभी स्थायी रहने वाला मिले ॥६॥ अथ योगान्तरमाह त्यक्ताकें विधवारेऽत्र पापेक्ष्याकौं चिराप्रिया। सौम्यैर्धन्या प्रियाऽस्तस्थैः क्रूरौः रण्डा च मिश्रितैः॥७॥ अर्केऽत्र सामीप्यात् सप्तमे सति हीनबले शुभदृष्टे च सति या जाता सा पतित्याज्या। तथा आरे कुजेऽत्र सप्तमे विधवा विवाहाद् बाल्या एव रण्डा । अथात्र पापेक्ष्याकौ पापेन ईक्ष्यो दृश्यो य आकिः शनिस्तत्र सप्तमस्थे चिराप्रिया, कुमारी सत्येव वृद्धा भवति न ऊह्यते, अथवा कालेन परणीयत इत्यर्थः । अत्र "Aho Shrutgyanam" Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम कल्लोल: ८९ लग्नाच्चन्द्राद्वा लग्नेन्द्वोर्बलादेतत्फलं वाच्यम् । एतद् ग्रहोक्तफलाभावे सति सौम्यैरस्तस्थितैः शुभैः सप्तमस्थैः कृत्वा धन्या सुशीला विवेकिनी च । क्रूरैः सप्तमस्थैरप्रिया कुशीला रण्डा च । मिश्रः पापैः शुभैश्च सप्तमस्थैमिश्रिता कुरण्डा धार्मिको पापिनी । च शब्दाद् रण्डा विवाहात् पश्चादन्यभार्या भवेत् ।। युग्मम् ॥७॥ लग्न या चन्द्रमा से सातवें स्थान में सूर्य हो और शुभ ग्रह कोई देखते न हों तो वह स्त्री पति से त्याग दी जाय ।। यदि सातवें भवन में मंगल हो तो विधवा होवे ।। यदि सातवें भवन में शनि हो, उसको पाप ग्रह देखते हों तो वह बहुत काल तक कुमारी रहे या विलम्ब से विवाह हो ।३। यदि सातवें स्थान में शुभ ग्रह हो तो वह स्त्री सुशीलवती और विनयवती होवे ।४। यदि सातवें भवन में पाप ग्रह हो तो व्यभिचारिणी या रण्डा होवे ।। यदि सातवें भवन में मिश्र ग्रह हो तो मिश्र फल होवे ॥७॥ अथ योगान्तरमाह रन्ध्रऽन्त्ये च तनौ वोने वाङ्ग रण्डाष्टषष्ठगे। पापमध्ये तनौ चेन्दौ श्वशुरात्मककुलक्षया ॥८॥ उग्रे पापे रन्ध्रऽष्टमस्थे, अन्त्ये द्वादशस्थे च रण्डा । वा शब्दात् तनी लग्नस्थे पापैकस्मिन् अष्टमगे व्ययगे च रण्डा। वाथवाङ्ग लग्ने सर्वस्मिन् पापे लग्नगे, अथवा षष्ठाष्टगे पापे रण्डा विधवा । अर्थान्तराद् पूर्वोक्तयोगस्थैः सौम्यः सधवा । अथ तनौ लग्ने पापमध्यस्थे श्वशुरकुलक्षया निजकुलक्षयकी। अर्थात् सौम्यद्वयमध्यस्थे लग्ने श्वशुरकुलवद्धिनी । एवं चन्द्रऽपि स्वकुलवद्धिनी ॥८॥ ___जन्म-कुण्डली में आठवें और बारहवें भवन में पाप ग्रह हो तो विधवा होवे । एवं लग्न में पाठवें और बारहवें पाप ग्रह हो तो विधवा ।२। एवं लग्न में सब पाप ग्रह हो तो विधवा ।। अथवा छठे और आठवें भवन में पाप ग्रह हो तो विधवा ।४। उपरोक्त भवनों में यदि शुभ ग्रह हो तो सधवा । यदि लग्न या चन्द्रमा ये दो पाप ग्रह के बीच में हो तो कुल क्षय करने वाली और शुभ ग्रहों के बीच में हो तो कुल वद्धिनी होवे ॥८॥ अथ जारयोगत्रयमाह यद्यस्तं तत्पतिर्वा स्याद् ग्रहान्तरसुमित्रभाक् । अथास्ते द्वौ ग्रहौ स्यातां स्त्रिया उपपतिस्तदा ॥६। यदि स्त्रीजन्मकालेऽस्तं सप्तमं तत्पतिः सप्तमपतिः, ग्रहान्तरसुमित्रभाक् एकस्माद् ग्रहादन्यो ग्रहो ग्रहान्तरं तस्य सुमित्रं तद्भजतीति ग्रहैर्युक्त इत्यर्थः इत्येको योगः । अथ मित्रभाग मित्रयुत इति द्वितीयो योगः। अत्र योगद्वये जाता "Aho Shrutgyanam" Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः यास्तस्या स्त्रिया उपपतिर्जारको भवतीत्यर्थः। अथास्ते सप्तमे यदि द्वौ ग्रहौ स्यातां तदा उपपतिरेष तृतीयो योगः ।।६।। स्त्री जन्म कुण्डली में सातवां स्थान या सातवें स्थान का पति यह दो ग्रह के बीच में हो, अथवा मित्र ग्रह के साथ हो तो उस स्त्री को उपपति होवे। अथवा सातवें भवन में दो ग्रह हों तो भी स्त्री को उपपति होवे ॥६॥ अथासतीयोगत्रयमाह क्रूरेऽबलेऽत्र सौम्येक्ष्येऽपस्वकान्तानु सान्यगा। शुक्रवक्रौ मिथोंऽशस्थौ वाम सेन्दू प्रियाज्ञया ॥१०॥ अत्र सप्तमस्थे क्रूरेऽबले बलहीने सौम्येक्ष्ये सौम्याः शुभास्तेषां मध्यादेकेनेक्ष्ये दृश्ये सति 'अपस्वकान्ता' अपगतः स्वकीयः कान्तो भर्ता यस्याः सा पतिना त्यक्ता सती अनु पश्चादन्यगा अन्यं भर्तारं गच्छतीति परभार्या स्यात् । वाथवा शुक्रवक्रौ शुक्रकुजौ च शब्दात् सप्तमस्थौ मिथोंऽशस्थौ यत्र तत्र राशौ परस्परांशस्थौ यदि तदा सान्यगा एवं द्वितीयो योगः। च शब्दादमू शुक्रकुजौ सेन्दू स चन्द्रौ यदि तदा सामान्यगा परं प्रियाज्ञया प्रियस्य भर्तु राज्ञया न तु स्वातंत्र्येण ।।१०।। सातवें स्थान में निर्बल क्र र ग्रह हो, उसको शुभ ग्रह देखते हो तो वह स्त्री अपने पति से छोड़ दी जाय बाद में दूसरा पति करे ।१। यदि शुक्र और मगल सातवें स्थान में हों और परस्पर एक दूसरे के नवमांश में हों तो स्त्री दूसरा पति करे ।२। यदि शुक्र और मंगल के साथ चन्द्रमा भी हो तो स्त्री अपने पति की प्राज्ञा से दूसरा पति करे ॥१०॥ अथान्ययोगद्वयमाह मन्दारभेङ्गगे सेन्दु-शुक्र पापेक्षितेऽन्यगा । वास्ते कुजांशे मन्देक्ष्ये रुग्गुह्यष्टांशगेऽन्यथा ॥११॥ मन्दारभे शनिकुजयोरेकतमस्य मकरकुम्भमेषवृश्चिकानामेकतमे भे राशौ अङ्गगे लग्नगे लग्नस्थे सेन्दुशुक्र इन्दुशुक्राभ्यां सह वर्तते यो राशिस्तस्मिन् पापेक्षिते पापदृष्टेऽन्यगा पररता मात्रा सह पुश्चली। वाथवाऽस्ते सप्तमस्थे यो राशिस्तत्रगते कुजांशे मन्देक्ष्ये शनिदृष्टे सति रुग्गुह्या रुजा रोगेण सह गुह्य यस्या सा रोगभगेत्यर्थः । इष्टांशके शुभनवांशे लग्नात् सप्तमस्थे शुभदृष्टे सत्यन्यथा विपरीतमिति, कोऽर्थः ? सुभगा पतिव्रता च ।।११।। यदि मकर, कुम्भ, मेष और वृश्चिक इनमें से कोई एक लग्न हो, उसमें चन्द्रमा और शुक्र दोनों साथ रहे हों, उनको पाप ग्रह देखते भी हों तो वह स्त्री अपनी माता के साथ व्यभिचारिणी होवे । लग्न से सातवां भवन मंगल के नवांश का हो. उसको शनि "Aho Shrutgyanam" Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम कल्लोलः ४१ देखता हो तो वह स्त्री गुह्य रोग वाली होवे। सातवां भवन यदि शुभ ग्रह के नवांश का हो, उसको शुभ ग्रह देखते हों तो वह स्त्री निरोगी और पतिव्रता होवे ॥११॥ अथ सप्तमे ग्रहजिते सत्यर्कादीनां राशौ नवांशे वा सप्तमस्थे सति यादृशो भवतीति ज्ञानमाह- . भेंऽशेऽर्कादेमदुः कर्मी कामी दुर्वाक् चल: कुधीः । सद्विद्वांसौ गुणी कान्ताऽभीष्टो वृद्धो जडोऽस्तगे ॥१२॥ अर्कादेर्भे राशौ अंशे नवांशे वास्तगे सप्तमस्थे क्रमेण फलं वाच्यम् । यथासप्तमेऽर्कभे राशौ सिंहेऽथवा सिंहाशे वास्तगे सप्तमगे सति या जाता तस्या भर्ता मृदुरकठिनः कर्मी व्यापारकरणशोलश्च । प्रादिशब्दादेवं चन्द्र राशौ कर्के कर्काशे वा सप्तमस्थे कामी कामातुरः । दुर्वागप्रियवादी भर्ता एवं भौमे मेषवृश्चिके राशौ वा तदंशे वा सप्तमे सति या जाता स्त्री तस्या भर्ता चलः स्त्रीलीलः क्रुधीः कोपनशीलश्च । एवं बुधस्य राशौ कन्या मिथुने वा तदशे वा सप्तमे सति सन् साधु : वित्वेत्ति सर्वशास्त्राणीति वित् । एवं गुरुराशौ धनुर्मीनयोरेकतमे तदंशे वा सप्तमे दान्तो जितेन्द्रियः गुणी गुरणा गांभीर्यादयो विद्यन्ते यस्य गुणवानित्यर्थः । एवं शुक्रस्य राशौ वृषतुलयोरेकतमे तदंशे वा सप्तमस्थे कान्तोऽतीव सौभाग्ययुक्तः अभीष्टः सर्वजनवल्लभो विनीतत्वात् । एवं शनेमकरकुम्भयोरेकतमे राशौ तदंशे वा सप्तमे वृद्धोऽतिवया जडो मूर्खश्च भर्ता स्यात् । यदि सप्तमेऽन्य सम्बन्धो राशिरन्यस्य नवांशो भवेत् तदा तयोर्यो बलवांस्तदीयं फलं वाच्यम् ।।१२।।। सूर्यादि ग्रहों की राशि या उनका नवमांश सातवें भवन में हो उसका क्रम से फल बतलाते हैं-जन्म लग्न से सातवें स्थान में सूर्य की मेष राशि या मेष का नवांश हो तो उस स्त्री का पति मृदु कार्य अर्थात् व्यापार करने में चतुर होवे । चन्द्रमा की राशि कर्क या कर्क का नवमांश हो तो उसका पति कामातुर और अप्रियवादी होवे । मंगल की मेष या वृश्चिक राशि या उसका नवांश हो तो उसका पति स्त्री लोलुप और क्रोधी होवे । बुध की राशि कन्या या मिथुन या उसका नवांश हो तो पति विद्वान होवे। गुरु की धन या मीन राशि या उसका नवांश हो तो गुणवान पति होवे । शुक्र की राशि वृष या तुला या उसका नवांश हो तो अधिक मनोहर और सौभाग्यवान सर्वजनवल्लभ पति होवे। एवं शनि की. मकर या कुम्भ राशि हो या उसका नवांश हो तो वृद्ध और मूर्ख पति मिले ॥१२॥ प्रथ स्त्रीयोगान्तरमाह अङ्ग सितेन्द्वोः स्त्री सेा सुखा जेंद्वो कलागुणाः। शुक्रज्ञयोः प्रियाभीष्टा सार्थसौख्या शुभेषु सा ॥१३॥ "Aho Shrutgyanam" Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जन्मसमुद्रः सितेन्द्वोः शुक्रचन्द्रयोरङ्ग लग्नस्थयोः स्त्री नारी सेा सुखा ईर्षया कोपेन सुखेन च सह वर्तते सा समात्सर्या सुखिनी चेत्यर्थः । अथ लग्ने ज्ञेन्द्वोर्बुधचन्द्रयोः कलागुणा कलाभिः सह गुणा यस्याः सा दक्षा गुणवती चेत्यर्थः । एवं लग्ने शुक्रज्ञयोः प्रियाभीष्टा भर्तु वल्लभा । एवं लग्नस्थेषु शुभेषु त्रिषु चतुर्दा वा सार्थसौख्या अर्थेन धनेन सह सुखं यस्याः सा बहुधनिनी सुखिनी गुणवती सुशीला विनीतेत्यर्थः । अर्थादेवाशुभेषु लग्नस्थेषु त्रिषु पूर्वोक्त गुणहीना ।।१३।। ___ जन्म लग्न में चन्द्रमा और शुक्र हो तो वह स्त्री ईर्ष्या करने वाली और सुखी होती है। लग्न में चन्द्रमा और बुध हों तो अनेक कलानों को जानने वाली सदगुणी होती है। लग्न में शुक्र और बुध हों तो वह पति को वल्लभ होवे । लग्न में तीन या चारों शुभ ग्रह हों तो वह बहुत धन वाली सुखी सद्गुणी और सुशीलवती होवे । तथा अशुभ ग्रह लग्न में हों तो पूर्वोक्त गुणों से रहित होवे ॥१३॥ अथ वैधव्यकालापत्यमाह रेऽष्टगे तदा रण्डा यथाष्टेशो यदंशगः। तद्वयस्यथ गोऽलिस्त्रीसिंहभेऽब्जे सुतेऽल्पसः ॥१४॥ क्रूरे पापग्रहेऽष्टमगे रण्डा वाच्या। तत्र कालो यथा-यस्या जन्मन्यष्टमेशोऽष्टमाधिपो यदंशगः यस्य ग्रहस्य नवांशगो भवेत् तद्वयसि तस्य दशायां विवाहात्परतो वैधव्यं तस्याः सम्भाव्यम् । अथवाब्जे चन्द्र गोऽलिस्त्रीसिंहभे वृषवश्चिककन्यासिंहराशीनामेकतमस्थे सति या जाता साल्पसूः अल्पा स प्रसूतिर्यस्याः सा। अथवामीषां राशीनां मध्याद् यो राशि: सृते पञ्चमस्थाने स्याद् अत्रस्थे चन्द्र सति अल्पसूः, परं पञ्चमं यदि शुभदृष्टं युतं वा तदा बहु प्रसूतिः ।।१४।। जिस स्त्री की जन्म कुण्डली में पाठवें भवन में पाप ग्रह हो तो वह स्त्री विधवा होवे । पाठवें भवन का स्वामी जिस ग्रह के नवांश में हो, उस नवांश के स्वामी तुल्य वर्ष में अथवा उसकी दशा में विवाह होने के बाद विधवा होवे । यदि वृष, वृश्चिक, कन्या या सिंह राशि का चन्द्रमा किसी भी स्थान में रहा हो तो वह स्त्री कम सन्तान वाली होवे। अथवा इन चार राशियों में से कोई राशि पांचवें भवन में हो और चन्द्रमा भी साथ हो तो कम सन्तान वाली है। परन्तु शुभ ग्रह से युक्त हो या दृष्ट हो तो बहुत सन्त होवे ॥१४॥ अथ रण्डत्ववर्षज्ञानमाह तद्दशायां विवाहोर्व वर्षे रण्डार्यमादिक । विशेकद्विनवद्विघ्न-विशपञ्चाशतिक्रमम् ॥१५॥ "Aho Shrutgyanam" Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम कल्लोलः यस्या जन्मन्यष्टेशो यस्य ग्रहस्यांशस्थो भवति, तद्दशायां विवाहोर्ध्व अर्यमादिके सूर्यादिके क्रमेण वर्षे संवत्सरे इयत्संख्ये क्रमेण रण्डास्ति । यथा-रवेनवाँशगेऽष्टमेशो यदि तदा रवेर्दशायां विवाहाद् विंशत्या वर्षेषु गतेषु रण्डा । एवं चन्द्रस्यैकस्मिन् वर्षे रण्डा । भौमस्यैवं वर्ष द्वयगते, बुधस्य दशायाँ नवसु वर्षेषु, एवं गुरौ नवद्विघ्नेषु अष्टादशवर्षेषु एवं शुक्रस्य विंशत्या वर्षेषु । एवं शनि शनिर्दशायां पञ्चाशति वर्षेषु वैधव्यं भवतीति वाच्यम् ॥१५॥ जिस स्त्री की जन्म कुण्डली में आठवें स्थान का पति जिस ग्रह के नवांश में हो, उसकी दशा में विवाह होने के बाद कितने वर्ष में विधवा होवे, वह बतलाते हैं-पाठवें स्थान का स्वामी सूर्य के नवांश में हो तो सूर्य की दशा में विवाह होने के बाद बीस वर्ष पीछे विधवा होवे । चन्द्रमा के नवांश में हो तो एक वर्ष पीछे, मंगल के नवांश में हो तो दो वर्ष पीछे, बुध के नवांश में हो तो नौ वर्ष पीछे, गुरु के नवांश में हो तो अठारह वर्ष पीछे, शुक्र के नवांश में हो तो बीस वर्ष पीछे और शनि के नवांश में हो तो पचास वर्ष पीछे विधवा होवे ॥१५॥ अथ भतु: प्रथमं स्त्रीमृत्युः स्याद् दक्षा च यथास्यात्तद्ज्ञानमाह शुभे स्वगेऽष्टगे क्रूरे म्रियते प्रथमं प्रभोः । समेङ्ग बलिभिर्यद्ग-दक्षा शुक्रेज्यवित्कुजैः ॥१६॥ शुभे ग्रहे स्वगे धनस्थे सति क्रूरेऽष्टगे सति प्रभोः भर्तुः प्रथम पुरस्ताद म्रियते सा स्त्री । अथाङ्ग लग्ने समे समराशौ सति शुक्रेज्यवित्कुजैः शुक्रगुरुबुध भौमैर्बलिभिर्यद्गैर्यत्र तत्र गतैर्दक्षा सर्वशास्त्रकुशला विज्ञानिनी च भवति ।।१६।। ___ यदि शुभ ग्रह दूसरे भवन में और पाप ग्रह पाठवें भवन में हों तो उस स्त्री की पति के पहले मृत्यु होवे । लग्न में सम राशि हो तथा बुध-गुरु, बुध, शुक्र और मंगल ये बलवान होकर किसी भी स्थान में रहे हों तो वह स्त्री चतुर तथा शास्त्र को जानने वाली होवे ॥१६॥ योगान्तरमाह ओजाङ्ग यत्रगैः शुक्र-ज्ञेन्दुभिविबलैः परैः। बलैमध्यबले चाकौ वक्तृत्वाचरण वत् ॥१७॥ प्रोजाङ्ग विषमलग्ने सति यत्रगैः शुक्रज्ञेन्दुभिर्यत्र तत्र गतविबलैर्बलहीनैश्च परैः रविकुजगुरुभिर्बलैः सवंबलोपेतैराको शनौ मध्यबलेऽपि नातिबलवति नातिबलहीने च सति कृत्वाचरणैर्वचनपटुताचारैर्नृवत् पुरुष इव वाचाला स्त्री ।।१७।। जिस स्त्री को जन्म कुण्डली में लग्न विषम राशि का हो तथा किसी भी स्थान में रहे हए शुक्र, बुध और चन्द्रमा ये निबंल हों, सूर्य, मंगल और गुरु ये बलवान हों और शनि "Aho Shrutgyanam' Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जन्मसमुद्रः मध्यम बली हो तो वह स्त्री, पुरुष की तरह प्रसिद्ध वक्ता होवे ॥१७॥ अथ यथास्त्रोदीक्षिता तं योगमाह पापेऽस्ते धर्मगस्थाभां दीक्षा गृह्णाति साप्यमी । विवाहे वरणे प्रश्ने जन्मन्यूहास्तु योगकाः ॥१८॥ पापेऽस्ते सप्तमस्थे सति धर्मगस्थो नवमस्थो ग्रहास्थाभा सदृशी दीक्षा व्रतं सा स्त्री गृह्णाति, यतो यदि सप्तमे क्रूरो नवमे च भवति तदा सप्तमस्थग्रहफलं न प्राप्नोति । अपि शब्दोऽथवा वाची । अमी योगा विवाहे परिणयने वरणे कन्यादाने प्रश्ने कन्या लाभालाभप्रश्ने जन्मनि जन्मकाले ऊह्या वितर्कगीया विलोकनीया अमी योगाः । प्रस्तावागत स्त्रीनक्षत्रलग्नादिफलं स्वकीयजन्मप्रकाशं मध्ये उक्तमस्ति तदत्र ज्ञेयम् । ग्रन्थविस्तारभयान्नोक्तम् ।।१८।। इतिश्रीकाशह्रदगच्छीयनरचन्द्रकृतायां जन्मसमुद्रविवृतौ स्त्रीजातककल्लोल: सप्तमः ।।७।। सातवें स्थान में पाप ग्रह हो और नवें स्थान में जो कोई भी शुभाशुभ ग्रह हो तो वह स्त्री नवें स्थान में रहे हुए ग्रह के अनुसार दीक्षा ग्रहण करे । यदि सप्तमे और नवें स्थान में पाप ग्रह हों तो सातवें स्थान में रहा हुआ ग्रह का फल नहीं मिलता । इस योग का विचार विवाह, कन्यादान, कन्या के लाभालाभ का प्रश्न और जन्म समय में करना चाहिए। विशेष स्त्री के नक्षत्र और लग्न आदि का फलादेश स्वकृत 'जन्म प्रकाश' नामक ग्रन्थ में देखो ॥१८॥ इति श्री नरचंद्रोपाध्याय विरचित जन्मसमुद्र के स्त्रीजातक लक्षण नाम का सप्तम कल्लोल समाप्त। "Aho Shrutgyanam" Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधुना नाभसादियोग दीक्षायोगनरनक्षत्र राशिलग्नादिवर्गफलो नामाष्टमः । कल्लोलो व्याख्यायते। तस्यादौ रज्जुमुसलनलयोगानाह एकद्वित्रिचतुःस्थान-स्थित रज्जुश्चरे च भे। स्थिरे तु मुसलोऽप्येवं द्वयङ्ग योगो नलस्तथा ॥१॥ सर्वैर्ग्रहैश्चरभे चरराशिषु गतैरेकद्वित्रिचतुःस्थानस्थितै रज्जुनामा स्यात् । स तु चतुर्द्धा यथा-यदि सर्वे ग्रहा एकस्थानस्थाश्चरराशौ तदा एको योगः। एवं स्थानद्वये चरगतास्तदा द्वितीयो भेदः । एवं स्थानत्रयस्थाश्चरराशौ सर्वे तदा तृतीयः । एवं स्थानचतुष्टयस्थाश्चरराशौ सर्वे यदि तदा चतुर्थो भेदः । परं स्थिरद्विस्वभावराशयश्च ग्रहजिता यदि भवन्ति तदा रज्जुनामायोगः स्यात् । एवं त्वथवा स्थिरे स्थिरराशौ च शब्दादेकादिस्थानगतैर्मुसलो नाम योगः । परं पूर्ववच्चतुर्द्धा चरेषु द्विस्वभावेषु शून्येषु सत्सु । अपि शब्दोऽन्ययोगवाची । एवममुना प्रकारेण एकादिस्थानस्थैः द्वयङ्ग द्विस्वभावराशौ गतैः सर्वैर्नलो नाम स्यात् । तथेति कोऽर्थः ? परं स चतुर्दा पूर्ववत् चराः स्थिराश्च यदि शून्या भवन्ति । एवमाश्रययोगत्रयमिदमुक्तम् ॥१॥ सब ग्रह चर राशि ( मेष, कर्क, तुला और मकर ) के हों, चाहे वे एक चर राशि पर हो या दो, तीन या चारों चर राशि पर हों, परन्तु स्थिर और द्विस्वभाव राशि के एक भी ग्रह न हों तो रज्जु नाम का योग होता है। इसी प्रकार स्थिर राशि ( वृष, सिंह, वृश्चिक और कुम्भ ) के सब ग्रह हों, परन्तु चर और द्विस्वभाव राशि का एक भी ग्रह न हो तो मूसल योग होता है। सब ग्रह द्विस्वभाव (मिथुन, कन्या, धन और मीन ) राशि के हों, परन्तु चर और स्थिर राशि का कोई ग्रह न हो तो नल योग होता है ॥१॥ अथ चतुर्धा गदायोगं मालायोगसर्पयोगी चाह खाङ्गगः खास्तगैर्वास्ताम्बुगैर्वाङ्गाम्बुगैर्गदा। केन्द्रत्रयगतैः सौम्यैर्माला पापेस्तु पन्नगः ॥२।। खाङ्गगैः कर्मलग्नस्थैर्यथासम्भवं सर्वैः ग्रहैः कृत्वा गदा इत्येकः प्रकारः। वाथवा खास्तगैः कर्मसप्तमस्थैरिति द्वितीयः । वाथवाऽस्ताम्बुस्थैः सप्तमचतुर्थस्थैः "Aho Shrutgyanam" Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जन्मसमुद्रः सर्वैर्गदा इति तृतीयः प्रकारः । वाथवाङ्गाम्बुगैर्लग्नचतृर्थस्थैः सप्तभिर्ग्रहैः कृत्वा गदानामयोगश्चतुर्थप्रकारः । अथ केन्द्रत्रयेषु त्रिषु केन्द्र षु गतैः सौम्यैः बुधगुरुशुक्रैः केन्द्रहीनैः पापैर्मालानामयोगः । केन्द्रत्रयं कथं व्याख्यातम् ? यतश्चन्द्रस्य शुक्लपक्षे सौम्यत्वं कृष्णपक्षे पापत्वं च सम्भवतीत्येवं स्थेिते यदा केन्द्रत्रयगताः सोम्याश्चतुर्थश्चन्द्रः केन्द्र स्यात्, अथवा पापाः केन्द्रत्रयताः क्षीणचन्द्रश्चतुर्थः केन्द्र तदा मालासपौ भवतः । अत्र शुभस्त्रयो बुधगुरुशुक्राः पापास्त्रयः सूर्यकुजशनयः, यथा तयोर्मध्ये चन्द्रतृतीयो न स्याद् दलयो यमिदं व्याख्यातम् ।।२।। ___ यदि सब ग्रह लग्न और दसवें स्थान में हों, या सातवें और दसवें अथवा चौथे और सातवें स्थान में, या लग्न और चौथे स्थान में हों तो ये चार प्रकार का गदा नाम का योग होता है । सब शुभ ग्रह तीन केन्द्र में हों तो माला योग और सब पाप ग्रह तीन केन्द्र में हों तो सर्प योग होता है। तीन केन्द्र कहने का मतलब यह है कि-चन्द्रमा शुक्ल पक्ष में शुभ और कृष्ण पक्ष में पापी होता है । जिसे चन्द्रमा शुभ हो या अशुभ, चौथे केन्द्र में रहा हो तो भी माला और सर्प योग होता है । यदि चौथे केन्द्र में चन्द्रमा न रहा हो और तीन केन्द्र में शुभ या अशुभ ग्रह हों तो उक्त दल नाम के दो योग (माला-सर्प) हो जाते हैं ॥२॥ अथ शकटविहङ्गहलयोगानाह सर्वैलग्नास्तगैर्यानं खाम्बुगैविहगो ग्रहैः। लग्नः स्वारिखस्थैर्वा ब्यस्तायस्थैस्त्रिधा हलः॥३॥ सर्वैः सप्तभिर्ग्रहैर्लग्नास्तगैर्यानं शकटनामा योगः। अथ खाम्बुगैः सर्वैर्ग हैविहगो नाम योगः। अथ लग्नत जन्मलग्नं विना स्वारिखस्थैर्धनरिपुदसमस्थैः सहलमिति एको योगः । अथवा यस्तायस्थै स्त्रिसप्तलाभस्थैद्वितीयो योगः । वाशब्दाच्चतुर्थाष्टमद्वादशस्थैः सर्वैस्तृतीयो योगः । लग्नं विना परस्परं त्रिकोणस्थैः सर्वैर्ग्रहैहलयोगः स्यादिति भावः ।।३।। सब ग्रह लग्न और सातवें स्थान में हों तो शकट नाम का योग होता है। सब ग्रह दसवें और चौथे स्थान में हो तो विहग नाम का योग होता है। दूसरे छठे और दसवें स्थान में सब ग्रह हों तो हल योग ।१। तोसरे, सातवे और ग्यारहवें स्थान में सब ग्रह हों तो हल योग ।। चौथे, पाठवें और बारहवें स्थान में सब ग्रह हों तो हल योग ।३। इसी प्रकार लग्न को छोड़ कर परस्पर त्रिकोण में सब ग्रह रहे हों तो उक्त तीन प्रकार का हल नाम का योग होता है ॥३॥ अथ वजयवशृटङ्गाकयोगानाह वज्र लग्नास्तगैः सौम्यैः पापैः खाम्बुगतैश्च वा । यवोऽस्ति विपरीतस्थैः शृङ्गाटो ध्यङ्गधमगैः ॥४॥ "Aho Shrutgyanam" Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम कल्लोलः ६७ सौम्यैः शुभैर्लग्नास्तगैः, पापैः खाम्बुगतैश्च वज्रनामा योगः। वाथवा विपरीतस्थैः सर्वैर्यवः स्यात् । तद्यथा-लग्नसप्तमस्थैः पापैः, कर्मचतुर्थस्थैश्च शुभैर्यवो नामास्ति भवति । अथ ध्यङ्गधर्मगैः पञ्चमलग्ननवमगैः शृङ्गाटको नाम योगः ।।४।। सब शुभ ग्रह लग्न और सातवें स्थान में हो, तथा पाप ग्रह दसवें और चौथे स्थान में हो तो वजू नाम का योग होता है। इससे विपरीत यानि सब पाप ग्रह लग्न और सातवें स्थान में हो, तथा सब शुभ ग्रह दसवें और चौथे स्थान में हो तो यव नाम का योग होता है। सब शुभाशुभ सातों ग्रह पांचवें लग्न में और नवें स्थान में रहे हों तो शृङ्गाटक नाम का योग होता है ॥४॥ अधुना कमलं वापीचाष्टधाद्धचन्द्रयोगानाह कमलं केन्द्रगैमिश्र-र्वापी केन्द्राद् द्विगैस्त्रिगैः । केन्द्र स्वादिगैः सप्तमस्थैरद्धन्दुरष्टधा ॥५॥ मिश्रः शुभाशुभैः केन्द्रगैः केन्द्रगतः कमलं कमलनामा योगः स्यात् । केन्द्रात् केन्दाणि विना सर्वैद्विगैश्चतुः पणफरस्थैः कृत्वा विच्छिन्नविभक्तिदानाद्, अथवा त्रिगश्चतुरापोक्लिमस्थैर्वापी नाम योगो द्विधा । केन्द्रः केन्द्राणि विना स्वादिगैर्धनादिस्थानगतैः सप्तमस्थैः सप्तराशिस्थैरन्दुयोगोऽष्टधाष्टप्रकारः स्यात् । तद्यथा-द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमषष्ठास्ताष्टगतैः प्रत्येकस्थैरेकः प्रकारः, तृतीयादिनवमान्तद्वितीयः, पञ्चमादिलाभान्तस्यैस्तृतीयः, षष्ठादिव्ययान्तस्थैश्चतुर्थः, अष्टमादिद्वितीयान्तस्थैः पञ्चमः, नवमादितृतीयान्तैः षष्ठः, लाभादिपञ्चमान्तैः सप्तमः, व्ययादिषष्ठान्तगैः सर्वैरष्टमः ।।५।। शुभाशुभ सबग्रह केन्द्र में हो तो कमल नाम का योग होता है। केन्द्र को छोड़ कर सब ग्रह पणफर स्थान में अर्थात् दूसरे, पांचवें, पाठवें और ग्यारहवें स्थान में रहे हों, अथवा पापोक्लिम स्थान में अर्थात तीसरे, छठे, नवें और बारहवें स्थान में सब ग्रह रहे हों तो यह दो प्रकार का वापी नाम का योग होता है। एवं दूसरे भवन से सात भवन यानि पाठवें भवन तक, तीसरे से नवम भवन तक, पांचवें से ग्यारहवें स्थान तक, छठे से बारहवें स्थान तक, पाठवें से दूसरे स्थान तक, नवें से तीसरे स्थान तक, ग्यारहवें से पांचवें भवन तक और बारहवें से छठे भवन तक, इस प्रकार केन्द्र स्थानों को छोड़ कर सात-सात भवन में सब ग्रह रहे हों तो यह आठ प्रकार का अद्धेन्दु (अद्धचन्द्र ) नाम का योग होता है ॥५॥ अधुना यूपादिनावादियोगचतुष्टयमाह यूपेषुशक्तिदण्डा वाङ्गादिकेन्द्राच्चतुर्भगैः। नौकूटच्छत्रचापाख्याः क्रमात् सप्तसंगैरिति ।।६।। "Aho Shrutgyanam" Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसमुद्रः अङ्गादिकेन्द्राल्लग्नादिकेन्द्राच्चतुर्थगैश्चतुःस्थानस्थैः कृत्वा यूपेषुशक्तिदण्डनामानो योगा भवन्ति । वाशब्दो विभिन्नयोगवाची। यथा-लग्नधनसहजचतुर्थस्थैः कृत्वा यूपनामा योगः स्यात् । चतुर्थादिसप्तमान्तः सर्वैर्ग्रहैर्यथा स्वैरं इषुर्नाम योगः स्यात् । सप्तमादिदशमान्तगैः शक्तिनामा योगः। दशमादिलग्नान्तस्थैर्दण्डनामा योगः । अथ नौकूटच्छत्रचापाख्या बेडाकूटछत्रधनुर्नामानो योगान् क्रमात् क्रमेण सप्तःगैरिति शब्दाल्लग्नादिकेन्द्रात् प्रत्येकस्थानगतैः सर्वैर्ग्र हैर्भवन्त्येव । तद्यथा-तनुधनसहजसुहृत्सुतरिपुजायास्थितैः प्रत्येकं सप्तभिर्ग्रहैबेंडानामयोगः । चतुर्थादिदशमान्तेः कूटनामा सप्तमादिलग्नान्तश्छत्रनामा योगः। दशमादिचतुर्थान्तस्थैः सर्वैश्चापो धनुरिति नामयोगः ।।६।। चारों केन्द्र स्थान से चार-चार स्थान तक सब ग्रह हों तो यूपादि योग होता है। जैसे-लग्न से चौथे भवन तक सब ग्रह हों तो यूप नाम का योग चौथे भवन से सातवें भवन तक सब ग्रह हों तो इशु नाम का योग, सातवें भवन से दसवें भवन तक सब ग्रह हों तो शक्ति योग और दसवें भवन से लग्न तक सब ग्रह हों तो दण्ड नाम का योग होता है। एवं चारों केन्द्र स्थान से सात-सात स्थान तक सब ग्रह रहे हों तो नौका आदि योग होते हैं। जैसे-लग्न से सात भवन तक सब ग्रह हों तो नौका ( जहाज ) योग, चौथे भवन से दसवां भवन तक सब ग्रह हों तो कूट नाम का योग, सातवे भवन से लग्न तक सब ग्रह रहे हों तो छत्र योग और दसवें भवन से चौथे भवन तक सब ग्रह रहे हों तो धनुष योग होता है ॥६॥ अथ समुद्रचक्रमृगसरभयोगानाह स्वादेकान्तरषड्भस्थै-रब्धिश्चक्रच वाङ्गतः । पापैर्धने शुभैरङ्ग मृगोऽस्ति सरभोऽन्यथा ।।७।। स्वाद् धनाद् एकान्तरषड्भस्थैरेकान्तरितषट्स्थानस्थैः सर्वैरब्धिः समुद्रो नाम योगः । वाथवाङ्गतो लग्नादेकान्तरितषट्स्थानस्थैः सर्वेऽहैश्चक्रं नाम योगः। पापैः सर्वैः पापग्रहैर्धने द्वितीयस्थैः, शुभैः सर्वैः शुभग्रहैरङ्गे लग्नस्थितैमूंगो नाम योगोऽस्ति भवति । अन्यथा सरभयोगः । यथा शुभैर्धनस्थैः, पापैर्लग्नस्थैश्च सरभयोगो भवति ॥७॥ यदि दूसरे, चौथे, छठे, आठवें, दसवें और बारहवें भवन में सब ग्रह हों तो समुद्र नाम का योग होता है। लग्न में तीसरे, पांचवें, सातवें, नवें और ग्यारहवें भवन में सब ग्रह हों तो चक्र नाम का योग होता है । सब पाप ग्रह दूसरे स्थान में और सब शुभ ग्रह लग्न में रहे हों तो मृग नाम का योग होता है। एवं सब शुभ ग्रह धन स्थान में और सब पाप ग्रह लग्न में हो तो सरभ नाम का योग होता है ॥७॥ "Aho Shrutgyanam" Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम कल्लोलः अथ गर्तापिपीलिकानदीनदयोगानाह गन्त्यिारिगपापस्यङ्कगेष्टः कीटिकान्यथा । ध्यायगेष्टनदी स्वाष्टगोग्रैश्च त्वन्यथा नदः ॥८॥ अन्त्यारिगपापैरन्त्यो द्वादशं, अरिः षष्ठं तत्र गच्छन्ति ते अन्त्यारिगास्ते च ते पापाश्च तैः कृत्वा व्यङ्कगेष्टैश्च त्रिशब्देन तृतीयं, अङ्कशब्देन नव तत्संख्यभावान्नवमं स्थानं तत्र गच्छन्तिस्म ये इष्टाः शुभास्तैः कृत्वा गर्तनामा योगः। यथा-व्ययषष्ठगतैः पापैस्त्रिधर्मगैः सौम्यैश्च गर्ता योगः । अन्यथा व्यस्तगतैः कीटिका नाम योगः। यथा-व्ययषष्ठस्थैः शुभैस्त्रिनवमस्थैश्च पापैः कीटिका नाम योगः। अथ ध्यायगैष्टैः धीः पञ्चमं आय एकादशं तत्र गच्छन्तिस्म ये इष्टास्तैः कृत्वा स्वाष्टगोग्रैश्च स्वं द्वितीयं, अष्टाष्टमस्थानं, तत्र गच्छन्तिस्म ये उग्रास्तैर्नदीयोगः । यथा शुभैः पञ्चमलाभस्थैः, पापैर्धनाष्टमगतैर्नदीनामा योगः। अन्यथा विपरीतस्थैर्नदो नाम योगः। यथा पञ्चमलाभस्थैः पापैर्धनाष्टमगतैः सौम्यैर्नदो नाम योगः ॥८॥ सब पाप ग्रह बारहवें और छठे स्थान में हो और सब शुभ ग्रह तीसरे और नवें भवन में हो तो गर्ता नाम का योग होता है । तथा इससे विपरीत सब शुभ ग्रह छठे और बारहवें स्थान में हो और सब पाप ग्रह तीसरे और नवें स्थान में हो तो कीटिका नाम का योग होता है। सब शुभ ग्रह पांचवें और ग्यारहवें भवन में हो और सब पाप ग्रह दूसरे और पाठवें स्थान में हो तो नदी नाम का योग होता है । एवं सब पाप ग्रह पांचवें और ग्यारहवें भवन में हो और सब शुभ ग्रह दूसरे और पाठवें भवन में हो तो नद नाम का योग होता है ।।८।। अथ संख्यायोगसप्तकमाह एकादिस्थानगैरुक्त-योगाभावे क्रमादमी । गोलो युगः शूलक्षेत्र-पाशदामाख्यवीणिकाः ॥६॥ उक्त योगाभावे उक्ता प्रोक्ता ये योगा रज्जुमुसलाक्ष्यस्तेषामभावे सत्यमी योगाः क्रमादेकादिस्थानगतैर्भवन्ति । तद्यथा-यदैकस्मिन् स्थाने सप्तग्रहा भवन्ति तदा गोलो नाम योगः स्यात् । आदि शब्दात् स्थानद्वयस्थैः सप्तभिः कृत्वा युगनामा योगः । त्रिस्थानस्थैः सर्वैर्ग्रहैः शूलनामा योगः । एवं चतुःस्थानस्थैः केदारनामा योगः । एवं पञ्चमस्थैः पाशनामा । एवं स्थानषड्गतैर्दामाख्यो योगः । एवं स्थानसप्तकस्थैः प्रत्येक सप्तभिर्ग्रहैर्वीरिणका नाम योगः। पूर्वोक्तयोगानां "Aho Shrutgyanam" Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जन्मसमुद्रः मध्याद् यदि संख्यायोग्यस्य सादृश्यत्वं जायेत, तदा संख्यायोगो न ग्राह्यः स एवाङ्गीकार्यः ।।६।। उपरोक्त योगों के अभावे गोल आदि योग बनते हैं। जैसे सब ग्रह यदि कोई एक स्थान पर हो गोल नाम का योग, दो स्थानों में हो तो युग योग, तीन स्थानों पर हो तो शूल योग, चार स्थानों पर हो तो केदार-क्षेत्र योग, पांच स्थानों पर हो तो पाश योग, छः स्थानों पर हो तो दाम योग और सात स्थानों पर सब ग्रह हो तो वीणिका नाम का योग होता है | अथ सुनफानफादियोगसप्तकमाह स्वान्त्योभयस्थैः सुनफाऽनफादुरुधरेन्दुतः । व्यय॑ब्जस्त्विनाद् वेशिर्वोशिश्चोभयचरी ग्रहैः ॥१०॥ इन्दुतश्चन्द्रात् स्वान्त्योभयस्थैर्धनव्ययोभयस्थैर्ग्रहैः षड्भिर्व्यकः सूर्यरहितैः सुनफानफादुरुधरानामानो योगा भवन्ति । तद्यथा-चन्द्राच्चन्द्रयुक्तराशितो द्वितीयस्थैरेकादिभिर्ग्रहैः सुनफा नाम योगः स्यात् । चन्द्राद् द्वादशस्थैरेतैरेकादिभिरनफा नाम योगः स्यात् । चन्द्राद् द्वितीयद्वादशगर्यथास्वैरं सर्वैर्दुरुधरा नाम योगः । यदि चन्द्राद् द्वितीयो द्वादशो वा रविस्तदा योगानामेषां न भङ्गः । तथा चोक्तम् केन्द्रादिस्थैर्ग्रहैर्योगाः कोत्तिता येऽनफादयः । ते प्रधाना समाङ्गत्वाच्चन्द्ररूपाच्च चिन्तयेत् ।। इति फलम् । तु पुनरिनात् सूर्ययुक्तराशितः स्वान्त्योभयस्थैर्व्यब्जैश्चन्द्ररहितैर्ग्रहै: कृत्वा वेशिनामा बोशिनामा उभयचरीनामा योगाः क्रमेण जायन्ते । तद्यथाइनात् सूर्ययुक्तराशितो द्वितीयगैरेकादिभिर्ग्रहैशिनामयोगः । सूर्याद् व्ययस्थैरेकाद्यैर्वोशिनामा । सूर्याद् द्वितीयद्वादशस्थैरेकादिभिर्घहैरुभयचरी नाम योगः । ___ अथ सुनफानफायोग्यस्यकत्रिंशभेदानाह—तद्यथा-भौमो बुधो गुरुः शुक्रः शनिर्वा यदि धनस्थ: स्यात् तदा एकैकेन पञ्चयोगाः । अथ द्वाभ्यां धनगताभ्यां दशयोगा: । यदि कुजबुधौ कुजगुरू वा कुजशुक्रौ वा कुजशनी वा भवतः । अथ बुधगुरू बुधशुक्रौ बुधशनी वा स्याताम् । अथ गुरुशुक्रौ गुरुशनी च शुक्रशनी च एवं दशभेदाः एवं त्रिभिस्त्रिभिर्धनगतैः षड्योगाः। यथा-कुजबुधगुरुभिः, कुजबुधशुक्रैर्वा कुजबुधशनिभिः, अथ बुधगुरुशुक्रैर्वा बुधगुरुशनिभिर्वा बुधशुक्रशनिभिरेवं षट । अथ चतुभिर्धनगतैः पञ्चयोगाः । यथा-कुजबुधगुरुशुकैः कुजगुरुशुक्र "Aho Shrutgyanam" Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम कल्लोलः शनिभिः कुजबुधगुरुशनिभिः कुजगुरुशुक्रशनिभिर्बुधगुख्शुक्रशनिभिरेवं पञ्चयोगाः। कुजबुधगुरुशुक्रशनिभिस्तत्रगतैरेको भेदः । एवं कारके एकत्रिंशभेदाः । इत्थं सुन फायोगे द्वादशस्थैरेकादिभिम्र हैरेकत्रिशभेदाः । इत्थं दुरुधरायोगभेदाः कल्पनीयाः । चन्द्राद् द्वितीयद्वादशस्थैरेकादिभिन हैं रेवमशीत्यधिकशतं बुद्धया योज्यम् ॥१०॥ चन्द्रमा से दूसरे स्थान में सूर्य को छोड़ कर कोई ग्रह हो तो सुनफा वामका योग, चन्द्रमा से बारहवें स्थान में सूर्य को छोड़ कर दूसरा कोई ग्रह हो तो अनफा नाम का योग, चन्द्रमा से दूसरे और बारहवें, इन दोनों स्थानों में सूर्य को छोड़ कर कोई ग्रह हो दुरुधरा नाम का योग होता है । चन्द्रमा से दूसरे या बारहवें स्थान में सूर्य हो तो सुनफा आदि योग नहीं बनते, परन्तु सुनफा आदि का योग हो उनको सूर्य भंग भी नहीं करता। इसी प्रकार सूर्य से दूसरे स्थान में चन्द्रमा को छोड़ कर कोई ग्रह हो तो वेशि नाम का योग, सूर्य से बारहवें स्थान में चन्द्रमा को छोड़ कर कोई ग्रह हो तो वोशि नाम का योग, एवं सूर्य से दूसरे और बारहवें स्थान में चन्द्रमा को छोड़ कर कोई ग्रह हो तो उभयचारी नाम का योग होता है ॥१०॥ अथ केमद्रमयोगमाह - चन्द्रात् केन्द्र पखेटे वाऽब्जेऽङ्गात् केमद्र मोऽस्तगे। राजा धनी शुभैरेषु वोश्यां केमद्र मेऽधमः ॥११॥ चन्द्रात् केन्द्र केन्द्र चतुष्टयेऽपखेटे ग्रहरहिते सति, वाङ्गाल्लग्नाद् अब्जे चन्द्रऽस्तगे सप्तमस्थे केमद्र मो नाम योगः स्यादिति । अस्य द्विभेदो परं सुनफादियोगद्वयाभावे केवले चन्द्र केमद्रुमः स्यात् । अथवा शास्त्रान्तराच्चन्द्र सर्वग्रहादृष्टे केमद्रुम एष चतुर्थो भेदः । अर्थाच्चन्द्र सर्वग्रहदृष्टे सति केमद्र मो न स्यादिति । चन्द्रात् केन्द्रस्थे ग्रहे केमद्र मभेद: स्यात् । अथैषु सुनफानफादुरुधरावेश्युभयचरीयोगेषु गतैः शुभैर्ग्रहै राजा भूमिपालः स्वामी ठाकुरो वा धनी द्रव्यपतिर्भवेत् । अथ वोशौ केमद्रुमे चाधमः । स्वकुलानुचितकर्मकर्ता नीच इत्यर्थः ॥११॥ चन्द्रमा से चारों केन्द्र में कोई ग्रह न हो।। अथवा लग्न से चन्द्रमा सातवां हो।२। अथवा सुनफा आदि न हो ।३। या चन्द्रमा को कोई ग्रह देखता न हो तो ।४। यह चार प्रकार का केमद्र म योग होता है । सुनफा, अनफा, दुरुधरा, वेशि और उभयचरि इनमें से कोई योग हो तो जातक राजा, भूमिपति, ठाकुर और धनी होता है। परन्तु वोशियोग या केमद्र म योग हो तो जातक दरिद्र अपने कुल के अनुचित नीच काम करने वाला होता है ॥११॥ "Aho Shrutgyanam" Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जन्मसमुद्रः अथ पूर्वोक्त रज्जुमुसलादियोगफलानाह [१] रज्जुयोगे – जातः परगुरणासहः, प्रियमार्गः विदेशगामी समत्सरः । [२] मुसल योगे - मानी धनी बहुकर्मारम्भशीलः । [३] नलयोगे — सुरूपः स्थिरो धनी दक्षः । [४] गदायोगे - सदा धनी उद्यमी साहसी धनोपार्जनादरः । [५] मालायोगे - भोगी गौरवर्णः प्रशस्यः । [६] सर्पयोगे - जातो बहुदुःखभाक् क्रूरचित्त पापात्मा । [७] शकटयोगे - शकटजीवो सरोगः कुभार्यः । [5] विहगयोगे - पर सन्देशप्रापणत्वाद् दुतः परिभ्रमणशीलः कलहप्रियः । [2] हलयोगे — कृषिकरो दुःखी पापकरः 1 [१०] वज्रयोगे - यौवनदुःखी बाल्ये वृद्ध े च सुखी, सर्वजनप्रियः, अतीव युद्धधीरः । [११] यवयोगे - पराक्रमी योवने सुखी । [१२] शृङ्गाटकयोगे- क्रुद्धवाक्, वृद्धत्वेऽसुखी दरिद्रो बह्वाशी कृषिबलो दुःखितः । [१३] कमलयोगे – सुयशा गुणाढ्यो दीर्घायुः कान्तदेहो विपुलकीत्तिः । [१४] वापीयोगे - निधिकररणबुद्धिः स्थिरार्थः सुखी सुखतृप्तोऽ दाता कदर्यः । [१५] अर्धेन्दुयोगे – सुभगः सेनापतिः कान्त देहः स्वामिप्रियो बलवान् मणिकनकभूषणयुतः प्रधानः । [ १६ ] यूपयोगे - त्यागी विशिष्टः सत्वसत्यसुखव्रतनियमरतः, आत्मविद् धनुर्धरः । [१७] शरयोगे - वधरुचिः शरक्षताङ्गो मृगयार्थवनसेवी, प्रतिमांसादो हिंस्रः कुशिल्पकरः । [१८] शक्तियोगे - निर्धनो दुःखी नीचोऽलसः संग्रामदक्षः स्थिरः सुभगः । [१६] दण्डयोगे-हतपुत्रदारो निःस्वः सर्वजनन्यक्कृतो दुःखी स्वजनबाह्यो नोचः प्र ेष्यः । [२०] बेडायोगे - सलिलोपजीवविभवो बह्वायुः ख्यातकीर्तिर्हृष्टः कृपणो बलिष्ठो लुब्धश्चञ्चलः। [२१] कूटयोगे - प्रनृतिकः कृपणः कितवः शठः क्रूरो गिरिदुर्गचारी । [२२] छत्रयोगे — सुखकरो दयावान् दाता नृपवल्लभः प्रकृष्टबुद्धि: प्रथमान्त्यवयसि सुखभाक् ह्रस्वायुः । [२३] बारणयोगे - तारुण्यो निर्भाग्य नृतिको गुप्तिपालश्चौरः कितवो वनोत्कण्ठो बालवृद्धत्वे सुखी, युद्धप्रियः । [ २४ ] समुद्रयोगे - जातो राजसमो भोगी द्रव्याढ्यः सुजनप्रियः सुतवान् स्थिरचित्तः सत्त्ववान् । [२५] चक्रयोगे – महाराजा सर्वनमस्कृतस्तपोज्ञानादियोगाद्वा राजपूज्यो रूपवान् जनमान्यः । [२६] मृगयोगे - कोपनो यशस्वी चञ्चलः । [२७] शरभयोगे - तृषाकान्तो धनी च । [ २८ ] गर्त्तायोगे - सर्वजननर्त्तकः पापी निर्धनः । [२६] कीटिकायोगे - पापी । [३०] नदीयोगे - राजा रूपवान् । [३१] नदयोगे - सुखी सुपुत्रः । [३२] गोलयोगे - दारिद्र्यालस्ययुक्ते विद्याज्ञानरहितो मलिनो दीनो दुःखी मूर्खः शिल्पिकर्त्ता परिभ्रमी क्रियालस्यः । "Aho Shrutgyanam" Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम कल्लोलः १०३ [३३] युगयोगे--पाखण्डी निर्धनो लोकबा ह्यः सुतमानधर्मरहितः । [३४] शूलयोगे-तीक्ष्णोऽलसो निःस्वः शूरो हिंस्रो बहुरोगी रौद्रः। [३५] केदारयोगेकृषीबलः सर्वार्थकारी सुखी सत्यवादी धनी। [३६] पाशयोगे-बन्धनभाक् कार्योद्युक्तः प्रपञ्चकरो बहुभाषी बहुभृत्यो मार्गवनी। [३७] दामनीयोगेदाता परोपकारी पशुपालको मूढो धनी धीरः । [३८] वीणायोगे-मित्राश्रितो सुवचनः शास्त्रपरो गीतनृत्यवाद्यादिप्रियः सुखी बहुभृत्यो विख्यातः । सुनफायोगे-धीमान् धनी कोतिप्रिय ऐश्वर्ययुक्तो धर्मी शास्त्रार्थविद् गुणी कान्तः सुखी राजमंत्रो । [३६] अनफायोगे-जातः सुशीलो विषयसुखी स्वामी विख्यातो वाग्मी धनी नीरोगो विषयभोक्ता सुवेषः। [४०] दुरुवरायोगेजातोबहुभृत्यः कुटुम्बारम्भचिन्तो बुद्धिविक्रमगुणः प्रथितः सुखी धनी वाहनभोगभोगी दाता सुचारित्रः । [४१] वेशियोगे-उत्कृष्टवचा मतिमान् उद्योगयुक्तःतिर्यगदृष्टिः पूर्वशरीरपृथुलः सात्त्विको भवति । वेशियोगगते भोमे-संग्रामे विख्यातो नान्यवाक्यरतः । बुधे-प्रियभाषी कान्तदेहः पराज्ञाकरः । गुरौ-धृतिः सत्कीत्तियुक्तो वचनसारः । शुक्र-ख्यातो धनी गुणी शूरः सुसंस्कारयुतः । एवं शनौ-वणिक् चलस्वभावः परद्रव्यापहारी पुत्रद्वेषी निस्त्रपः । [४२] वोशियोगे जातो-मन्द दृष्टिरस्थिरवाक्यः परिभूतः परिश्रमी अर्द्ध तनुः । वोशियोगस्थे भौमेजातोमार्गहन्ता परोक्तकारी। बुधे-परतर्कको दरिद्रो मृदुविनीतः सलज्जः । गुरौ-वसु सञ्चयकारी गतमित्रः । शुक्रे-भीरुः कार्योद्विग्नो लघुचेष्टः पराधीनः । एवं शनी-परदारप्रियः स्वार्थी शठो वृणी वृद्धाकारः । "संनिरीक्ष्य रवेवीर्य ग्रहाणां चापि तत्त्वतः ।। राश्यंशसंगमात् सर्वं फलं ब्रूयाद् विचक्षणः ।।" परशास्त्रीयश्लोकः [४३] उभयचरीयोगे जातो-बालः सर्वसहः सुभगो बहुभृत्यो बान्धवाश्रयो राजतुल्यो नित्योत्साही भोगी हृष्टो भवति ।। [४४] केमद्रुमे जातो-भृत्यो दुःखी मलिनो दरिद्रो निन्द्याचारो राजकुलवंशजातोऽप्येवंविधो भवेदन्यस्य किं भण्यते । तथा चोक्तम् "कान्तानबन्धुगृहवस्त्रसुहृद्विहीनो, दारिद्रयदुःखगददैन्यमलैरुपेतः। प्रेष्यः खलः सकललोकविरुद्धवृत्तिः, केमद्रुमे भवति पार्थिववंशजोऽपि ।।" "Aho Shrutgyanam" Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जन्मसमुद्रः अब पहले जो रज्जुमुसल प्रादि योग बतलाये हैं, उनका फल कहते हैं: (१) रज्जु योग में जन्मने वाला जातक दूसरे के गुणों को नहीं सहने वाला, विदेश गमन करने वाला और ईर्ष्यालु होता है। (२) मुसल योग में जन्मने वाला अभिमानी धनी और अनेक कार्य करने में चतुर होता है। (३) जिसकी लग्न कुण्डली में नल योग हो तो स्वरूपवान, गंभीर, धनवान और चतुर होता है। (४) गदा योग हो तो हमेशा धनी, उद्यम करने वाला, साहसी और धन उपार्जन करने में चतुर होता है। (५) माला योग हो तो भोगी, गौरवर्ण वाला और प्रशंसनीय होता है। (६) सर्प योग हो तो बहुत दुःखी, दुष्ट मन वाला और पापी होता है। (७) शकट योग में गाडी आदि वाहन से प्राजीविका चलाने वाला, रोगी और दुष्ट स्त्री का पति होवे । (८) विहग योग में दूत का काम करने वाला, परिभ्रमण करने में होशियार और क्लेश करने वाला होता है । (६) हल योग में खेती करने वाला, दुःखी और पाप करने वाला होता है। (१०) वज़ योग में युवावस्था में दुःखी, बाल्य और वृद्धावस्था में सुखी, सब को प्रिय और युद्ध में बड़ा शूरवीर होता है। (११) यव योग में पराक्रमी और यौवनावस्था में सुखी होता है। (१२) शृङ्गाटक योग में क्रोधी, वृद्धावस्था में दुःखी, दरिद्री, अधिक आशिक, खेती करने वाला और दुःखी होता है। (१३) कमल योग में यशस्वी, गुणवान, दीर्घायु, सुन्दर शरीर वाला और अधिक कीत्तिवाला होता है । (१४) वापी योग में धन प्राप्त करने की बुद्धि वाला, स्थिर लक्ष्मी वाला, सुखी और कृपण होता है। (१५) प्रद्धेन्दु योग में भाग्यवान, सेनापति, सुन्दर शरीर वाला अपने स्वामी को प्रिय, बलवान, मणियुक्त सुवणं के आभूषण वाला और राज मंत्री होता है। (१६) यूप योग में नियमधारी, प्रात्मा को जानने वाला और धनुर्धर होता है। (१७) शर योग में हिंसा करने वाला, शरीर में बाण की चोट वाला, शिकार के लिए जंगल में रहने वाला, अधिक मांस खाने वाला और निंदनीय काम करने वाला होता है । (१८) शक्ति योग हो तो निर्धन, दुःखी, नीच, आलसी, युद्ध में चतुर, स्थिर मन वाला और अच्छा भाग्य वाला होता है। (१६) दण्ड योग हो तो जातक स्त्री पुत्र से रहित, दरिद्र, सब जनों से तिरस्कृत, दुःखी, कुटुम्बीजनों से निकाला हुमा, नीच और दास होता है। (२०) बेड़ा योग में पानी द्वारा आजीविका करने वाला, लम्बा आयुष वाला, प्रसिद्ध ख्याति वाला, हृष्ट-पुष्ट, लोभी, बलवान और चंचल होता है। (२१) कूट योग में झूठ बोलने वाला, कृपण, धूत, बदमाश, क्र र और पर्वतों में घूमने वाला होता है। (२२) छत्र योग में सुखी, दयावान, दातार, राजा को प्रिय, उत्कृष्ट बुद्धिवाला, प्रथम और अन्त अवस्था में सूखी और कम प्राय वाला होता है । (२३) बाण योग में युवा, मन्द भाग्यवाला, झूठ बोलने वाला, गुप्ति को रखने वाला, चोर, धूत, वनचारी, बाल्य और वृद्धावस्था में सुखी और युद्ध को चाहने वाला होता है। (२४) समुद्र योग में जन्मने वाला, राजा के जैसा भोगी, धनवान, सज्जनों को प्रिय, पुत्र वाला स्थिर मन वाला और पराक्रमी होता है। (२५) चक्र योग में महाराजा, सर्वजन वन्दनीय, तप, ज्ञान प्रादि योग वाला राजपूज्य, रूपवान और सर्वजनमाननीय होता है। (२६) मृग योग में क्रोधी, यशवाला और चंचल होता है। (२७) शरभ योग में तृषा रोग से पीड़ित और धनवान होता है। (२८) गर्ता योग में नाचने वाला, पापी और निर्धन "Aho Shrutgyanam" Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ठम कल्लोलः १०५ होता है (२९) कीटिका योग में पापी होता है। (३०) नदी योग में राजा और रूपवान होता है। (३१) नद योग में सुखी और अच्छा पुत्र वाला होता है । (३२) गोल योग में दरिद्री, पालसी, मूर्ख, मलिन, दीन-दुःखी, शिल्प काम करने वाला, भ्रमण करने वाला और कार्य में प्रालसी होता है । (३३) युग योग में पाखन्डी. निर्धन, लोगों से बहिष्कृत, पुत्र, मान और धर्म से रहित होता है। (३४) कूल योग में अन्धा, पालसी, निधन, पराक्रमी, हिंसक, बह रोग वाला और क्रोधी होता है। (३५) केदार योग में खेती करने वाला, सब काम करने वाला, सुखी, सत्यवादी और धनवान होता है। (३६) पाश योग में बन्धन, योग्य काम करने वाला, कार्य करने में उत्साह वाला, प्रपंची, बहुत बोलने वाला, अनेक दास वाला और धनी होता है । (३७) दामनी योग में दातार, परोपकारी, पशुओं को पालने वाला, मूर्ख, धनवान और धैर्यवान होता है। (३८) वीणा योग में मित्र के प्राधीन, धनवान, कीति को चाहने वाला, ऐश्वर्य वाला, धर्मात्मा, शास्त्र को जानने वाला, गुणवान, सुन्दर, सुखी और राज मंत्री होता है। (३६) सुनफानफा योग में सुशीलवान, विषय में सुखी, स्वामी प्रसिद्ध वक्ता, धनवान, निरोगी, विषयभोगी और अच्छा वेश धारण करने वाला होता है। (४०) दुरुधरा योग में अनेक नौकर वाला, स्वजनों की उन्नति करने वाला, बुद्धिमान पराक्रमी, गुगगवान, प्रख्यात, सुखी, धनवान, अनेक प्रकार के वाहन वाला, दातार और अच्छे चरित्र वाला होता है । (४१) वेशि योग में प्रसिद्ध वक्ता, पण्डित, उद्यमी, तिर्थी दृष्टि वाला, पागे से मोटा शरीर वाला और सात्विक होता है। वेशि योग करने वाला यदि मङ्गल हो तो युद्ध में प्रसिद्ध और दूसरे के वचनों पर विश्वास रखने वाला होता है। बुध हो तो प्रिय वचन बोलने वाला, सुन्दर शरीर वाला और दूसरों को आज्ञा करने वाला होता है। गुरु हो तो धर्यवान, कीति वाला और वक्ता होता है। शुक्र होतो धनवान, गुणवान, शूरवीर और अच्छा संस्कार वाला होता है। शनि हो तो वणिक वृत्ति वाला, चंचल स्वभाव वाला, दूसरों के धन का अपहरण करने वाला, पुत्र का द्वेषी और निर्लज्ज होता है। (४२ योग में मंद दृष्टि वाला, अव्यवस्थित बोलने वाला, पराभव पाने वाला, परिश्रम करने वाला और अद्ध शरीरी होता है । वोशी योग करने वाला मंगल हो तो मार्ग को नाश करने वाला और पराधीन होता है। बुध हो तो दूसरे के पर तर्क करने वाला, दरिद्र, मृदु, विनयवान और लज्जावान होता है। गुरु हो तो धन संचय करने वाला और मित्र रहित होता है। शुक्र हो तो डरपोक कार्य में उद्विग्न मन वाला, लघु चेष्टा वाला और पराधीन होता है। शनि हो तो परदारा गमन करने वाला, स्वार्थी, धूत और निदित होता है। अन्य शास्त्र में कहा है कि- राशि और अंश रहे हुए ग्रहों के तत्त्वों से सूर्य के बल का विचार करके सब फल कहना चाहिए । (४३) उभयचारी योग में जन्मने वाला बालक सब सहन करने वाला, भाग्यवान, अनेक नौकर वाला, बन्धुओं के प्राधीन, राजा के समान, हमेशा उत्साही, भोगी और पुष्ट होता है । (४४) केमद्रम में जन्मने वाला दास, दुःखी, मलिन, दरिद्री और राजकुल में जन्मने वाला भी निदित पाचरण करने वाला होता है। अन्य ग्रन्थ में कहा है कि-राजकुल में जन्म लेने पर भी केमद्रम योग हो तो स्त्री, अन्न, बन्धु, घर, वस्त्र, मित्र से रहित, दरिद्री, दुःखी, रोगी, हीन, सेवक, धूत और सब लोक में विरुद्ध आचरण करने वाला होता है। "Aho Shrutgyanam" Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अथ दीक्षायोगानाह : -- जन्मसमुद्रः जटाकपालभृद्रक्त-वस्त्राजीवी त्रिदण्डिकाः । चरको मुनिरर्कात् स्यादेकस्थैश्चतुरादिभिः ॥ १२ ॥ यत्र तत्र स्थाने एकस्थचतुरादिभिः, एकस्था एकराशिस्था ये सूर्योदयश्चत्वारस्तैः कृत्वार्कात् सूर्यादिक्रमादेवंविधो भवेद् व्रती । श्रादिशब्दात् पञ्चभिः षड्भिः सप्तभिर्वा यतिः स्यात् । तद्यथा — यद्येकराशौ चत्वारो भवंति तेषां यद्यर्को बलवान् तदा जटाभृत्तपस्वी कन्दमूलफलाशनो वानप्रस्थोऽग्निपरिचारकः सूर्याराधको वनवासी रुद्रगौरीभक्त: कुमारव्रतः । यदि चन्द्रो बलवान् भवेत् तदा कपालभृन्माहेश्वरी शैववृती निःसङ्गः सोमसिद्धान्तपरः तापसो भवेज्जातः । एवं यदि तेषां मध्ये भौमो बलिष्ठस्तदा रक्तवस्त्रो रक्तपट : शिखाहीनो जितेन्द्रियो भिक्षाकर: । एवं बुधे बलिष्ठे आजीविक : एकदण्डी वैष्णवी समयाधिकारदीक्षितः । एवं गुरौ त्रिदण्डी कषायाम्बरो वानप्रस्थगतः फलोपभोक्ता सद्भीक्षानियमशीलपालको यतितीर्थकारकः । एवं शुक्रे चरकी वैष्णवी पाशुपतव्रतस्थ: । एवं शनौ मुनिर्निर्ग्रन्थ : सर्वसङ्गरहितः श्वेताम्बरो दिगम्बरो वा गाढक्रिय: संतापसः । अथ तेषां चतुर्णा पञ्चानां षण्णां सप्तानां वा मध्ये यो बलवान् तदुक्ता प्रथमा दीक्षा । एवं शेषाणां क्रमेण दीक्षाजातस्य वाच्या । यो दीक्षादाता स ग्रहो ग्रहयुद्ध ऽन्यग्रहजितो यदि तदुक्तां दीक्षां मुञ्चन्ति । एवं द्वौ त्रयो वा चत्वारो वा बलिष्ठास्तेषां षण्णां पञ्चानां वा मध्यात् पराजिता यदि भवन्ति तदा ताभ्यो दीक्षाभ्यो भ्रष्टा भवन्ति । अथान्यदीक्षापतिर्यदि ग्रहयुतो न स्यात् तदा तदुक्तदीक्षाश्रितो म्रियते । तेषामेकस्थानां यावन्तो रविलुप्तकरा प्रस्तमितास्तावन्तः स्वां स्वां दीक्षां न यच्छन्ति स्वदशायाम् 1 अथ किञ्चिद् बलिष्ठा भवन्ति तदुक्तदीक्षितानां भक्ति कुर्वन्ति ।। १२ ।। जिसकी जन्म कुण्डली में किसी भी स्थान में एक साथ चार, पांच, छः या सातों ग्रह रहे हों तो दीक्षा योग होता है । इन ग्रहों में जो ग्रह बलवान हो उसके अनुसार दीक्षा कहना । जैसे - सूर्यं बलवान हो तो जटा को धारण करने वाला, तपस्वी, कन्द-मूल का भक्षण करने वाला, वानप्रस्थ, धूनी तपने वाला, सूर्य का उपासक, वन में रहने वाला, शिवपार्वती का भक्त या कुमार व्रत को करने वाला होता है । यदि चन्द्रमा बलवान हो तो कपालभृन्महादेव के उपासक, एकाकी चन्द्रमा का उपासक, तापस होवे । यदि मङ्गल बलवान हो तो लाल वस्त्र को धारण करने वाला, शिखा रहित, जितेन्द्रिय भिक्षुक होवे । बुध बलवान तो एकदंडी, वैष्णवी दीक्षा होवे । गुरु बलवान हो तो त्रिदण्डी, कशाय रंग के वस्त्र धारण करने वाला, वानप्रस्थी फलाहारी, भिक्षा, नियम व्रत और शीलव्रत का पालन "Aho Shrutgyanam" Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम कल्लोलः १०७ करने वाला, ऐसा यति धर्म प्रचारक होवे । शुक्र बलवान हो तो चरक मत की, वैष्णव मत की या शिव मत की दीक्षा लेवे । शनि बलवान हो तो निग्रन्थ, स्त्री का संग रहित, श्वेताम्बर या दिगम्बर मुनि या अच्छा तापस होवे । यदि दीक्षा कारक ग्रह ग्रहयुद्ध में परास्त हुआ हो तो दीक्षा से भ्रष्ट होवे | यदि दीक्षा कारक ग्रह किसी ग्रह के साथ न हो तो दीक्षित का मरण होवे । एवं दीक्षा कारक ग्रह अस्त हो तो दीक्षा लेवे नहीं, परन्तु कुछ बलवान हो तो दीक्षितों की भक्ति करने वाला होवे' ॥ १२ ॥ अथ योगान्तर चतुष्टयमाह धर्मेशे सबलेऽर्कस्थे वान्येक्ष्येऽस्तमितेऽत्र सः । नीचे वोग्र क्षिते नश्येद् वात्रापुष्टे व्रतापहः ॥१३॥ धर्मेशे नवमपतौ सबलिष्ठोऽर्कस्थेऽर्कयुक्ते व्रती स्यात् । वाथवात्र नवमेशेऽ न्येक्ष्येऽपरग्रहैरीक्षिते दृष्टेऽस्तमिते सति स याचितः सन् व्रती स्यात् । वाथवात्र नवमेशे नीचराशिस्थे परमनीचस्थे वा उग्रेक्षिते पापदृष्टे व्रती नश्येद् नश्यति । वाथवात्र नवमेशेऽपुष्टेऽबले पापदृष्टे व्रतापहो व्रतभ्रष्ट इत्यर्थः ।। १३ ।। बलवान नवम स्थान का स्वामी सूर्य के साथ हो तो दीक्षित होवे अथवा नवम स्थान का स्वामी अस्त हो, उसको दूसरे ग्रह देखते हों तो भिक्षुक होवे । श्रथवा नवम स्थान का पति नीच राशि का या परम नीच राशि का हो, उसको पाप ग्रह देखते हों तो दीक्षा लेकर छोड़ दे । प्रथवा नवमेश निर्बल हो उसको पाप ग्रह देखते हों तो दीक्षा लेकर छोड़ देवे ॥१३॥ 1 बृहज्जातक की टीका में कालकाचार्य कृत कालकासंहिता का प्रमाण देते हैं कि "तावसिनो दिरणरणाहे चंदे कावालियो तहा भरियो । रतवडो भुमिसुए सोमसुवे एग्रदंडी श्रा ॥ देवगुरुसुक्ककोणक्कमेण जई चरखवणाई ॥" दीक्षा कारक सूर्य हो तो तापसी, चन्द्रमा हो तो कपाली, मंगल हो तो लाल वस्त्र वाली, बुध हो तो एक दंडी, गुरु हो तो यति, शुक्र हो तो चरक और शनि हो तो क्षपणक दीक्षा होवे । फिर भी उपरोक्त ग्रन्थ में कहा है कि “जलरण-हर-सुगग्र-केसव - सूई बम्हण्ण- नग्ग मग्गेसु । दिक्खाणं गायव्वा सूराइग्गहक्क्रमेण गाहगश्रा ॥" धूनीवाला, माहेश्वरी, बौद्ध, विष्णु, श्रुतिमार्गोपासक, ब्रह्म भक्त और दिगम्बर ये सूर्यादि ग्रहों के योग से क्रम से दीक्षा समझना । "Aho Shrutgyanam" Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अथ योगान्तरमाह एकगेक्ष्ये भपे वार्त्ताssकक्ष्ये नान्येक्षितेऽबले । केन्द्र त्राकि दृशि स्यात् सव्रती वा योगसप्तके || १४ || जन्मसमुद्रः भपे यत्र राशौ चन्द्रस्तं पाति स भपो राशिपतिस्तत्र भपे, प्रथवा लग्नेशे एकगेक्ष्ये एकराशिं गच्छन्तिस्म एकगास्तैर्ग्रहैरीक्ष्ये दृष्टे युते वा व्रती । वाथवात्र जन्मराशिपतावबले बलहीने ग्रार्कीक्ष्ये शनिदृष्टे नान्येक्षिते न परैर्दृष्टे सति रोगी सन् व्रतो स्यात् । अत्र राशिनाथे जन्मलग्नेशे वा केन्द्रस्थे प्राकिंदृशि आर्के: शने ग् दृष्टिर्यस्य स तस्मिन् शनिः पश्यतीत्यर्थः स निर्भाग्यो भोज्यार्थी सन् व्रती दीक्षितः स्याद् भवति । शनिराशिपत्योर्मध्याद् यो बलवांस्तस्य दीक्षाग्राही तद्दशायां सत्यां स व्रती स्यात् । अथ लग्नेशः पुष्टः केन्द्रस्थशनि पुष्टं पश्येत् तदा निर्भाग्यो व्रती ।। १४ ।। चार आदि ग्रह एक राशि के होकर लग्न के स्वामी को अथवा चन्द्रमा जिस राशि पर हो, उस राशि के स्वामी को देखता हो तो व्रती दीक्षित होता है । एवं लग्न के स्वामी या चन्द्र राशि के स्वामी निर्बल हो, उसको शनि देखता हो और कोई ग्रह न देखता हो तो रोगयुक्त दीक्षित होवे । एवं लग्न का स्वामी या चन्द्र राशि का स्वामी केन्द्र में रहे हों, उसको शनि देखता हो तो भाग्यहीन होकर दीक्षित होवे । एवं शनि और चन्द्रराशिपति इनमें जो कोई बलवान होकर केन्द्र में रहा हो तो उसकी दशा में दीक्षित होवे । एवं बलवान लग्नेश केन्द्र में रहा हुआ बलवान शनि को देखता हो तो भाग्यहीन होकर दीक्षित होवे ॥ १४ ॥ प्रस्तावागत शास्त्रान्तरादन्ययोगानाह यत्र तत्र राशौ शनेद्रेष्कारणगते नवांशगते वा चन्द्रे कुजदृष्टे निर्ग्रन्थः । अथ कुजस्य नवांशेस्थे कुजशनिदृष्टे निर्ग्रन्थः । अथ लग्ने चन्द्रगुरुबुधशनिदृष्टे व्रती । शनिः शुभराशिलग्नस्थश्चन्द्र उच्चांशस्थः शेषग्रहान् पश्येद्धनीव्रती । अथ धर्मे गुरौ लग्नचन्द्रयोः शकिदृष्टयो राजा व्रती तीर्थकर्त्ता शास्त्रकर्त्ता । धर्मस्थे शनौ केनाप्यदृष्टे सति राजयोगो यदि स्यात्तदा राजा, पश्चात्कालं सबलो यदि शनिस्तद्दशायां निर्ग्रन्थः । वाथवा प्रयोगसप्तके पूर्वोक्ते व्रती । वाथवान्यशास्त्रोक्ते योगसप्तके च सति व्रती स्यात् । एवं योगसप्तकमाह यथा लग्नपतिर्लग्नं पश्यति, धर्मपतिर्धर्मं पश्यति, स्थानपतिः स्थानं पश्यती त्येको योगः । लग्नपतिर्धर्मं पश्यति, धर्मपतिर्लग्नं पश्येदिति द्वितीयः । श्रथ लग्नेशो धर्मेश, धर्मेशो लग्नेशं च पश्येदिति तृतीयः । अथ लग्नेशधर्मेशौ धर्मे भवत "Aho Shrutgyanam" Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम कल्लोल १०६ इति चतुर्थः । अथैतौ द्वौ लग्ने भवतस्तदा पञ्चमः । अथैतौ परस्परं परक्षेत्रे भवतस्तदा षष्ठ; । अथैतौ निजगेहे भवतस्तदा सप्तमः । अन्य शास्त्र में कहा है कि किसी भी राशि पर रहा हुआ चन्द्रमा यदि शनि के द्रष्कारण में या नवांश में हो, उसको मंगल देखता हो तो निर्ग्रन्थ व्रती होता है । श्रथवा चन्द्रमा मंगल के नवमांश में हो, उसको मंगल और शनि देखते हों तो निर्ग्रन्थ दीक्षित होवे । श्रथवा लग्न को चन्द्रमा गुरु, बुध और शनि देखते हों तो दीक्षित होवे । शनि शुभ राशि का होकर लग्न में रहा हो और चन्द्रमा, वृष राशि में या वृष के नवमांश में होकर दूसरे ग्रहों को देखता हो तो धनवान व्रती होता है । यदि धर्म स्थान में गुरु हो तथा लग्न श्रौर चन्द्रमा को शनि देखता हो तो राजा दीक्षित, शास्त्र रचने वाला और शासन कारक होवे । यदि धर्म स्थान में शनि रहा हो, उसको कोई ग्रह देखता न हो और राजयोग भी हो तो राजा होवे. बाद में बलवान शनि की दशा में निर्ग्रन्य दीक्षा होवे । अब दूसरे शास्त्र में कहे हुए सात प्रकार से व्रतीयोग बतलाते हैं- लग्नपति लग्न को और धर्म स्थान का पति धर्म स्थान को देखता हो । १। लग्नपति धर्मस्थान को और धर्मस्थान का पति लग्न को देखता हो |२| लग्नपति धर्म स्थान के पति को या धर्मं स्थान को श्रौर धर्म स्थान का पति लग्न के स्वामी को देखता हो |३| लग्नपति और धर्मपति दोनों धर्मं भवन में हों |४| अथवा ये दोनों लग्न में हों |५| अथवा ये दोनों श्रापस में परस्पर ( एक दूसरे के ) स्थान में हों |६| प्रथवा ये दोनों अपने-अपने स्थान में हों ।७। तो जातक दीक्षित होवे । अथ योगान्तरमाह बलार्कौक्ष्येऽबलार्केन्द्रीज्ये खस्थे चाङ्गगेऽसुखी । पश्यत्यङ्गपति रिक्तं पूर्णेन्दौ कृच्छ्रभुग् विराः ॥ १५ ॥ अबलार्केन्द्वीज्येऽबला निर्बला येऽर्केन्द्रोज्याः सूर्यचन्द्रगुरवस्तेषां मध्येऽन्यतमे खस्ते दशमस्थे बलार्कीक्ष्ये सति, वाथवाङ्गगे लग्नस्थे बल्यार्कीक्ष्ये च बलिष्ठो य नकिः शनिस्तेनेक्ष्ये दृष्टे च व्रती परमसुखी दुःखी । अथ पूर्णेन्दौ रिक्तं निर्बलं, अङ्गपति लग्नपति पश्यति कृच्छ्रेण भुक्, कृच्छ्रेण महता कष्टेन भुङ्क्ते स दुःखभोजी व्रती, किं विशिष्टो विरा विगता रा द्रव्यं यस्य स विराः ।। १५ ।। दृति दीक्षायोगा: । सूर्य, चन्द्रमा और गुरु इनमें से कोई एक निर्बल होकर दशवें स्थान में अथवा लग्न में रहा हो, और उसको बलवान शनि देखता हो तो दुःखयुक्त दीक्षित होवे । एवं पूर्ण चन्द्रमा निर्बल लग्नपति को देखता हो तो बड़े कष्ट के साथ भिक्षा मिले ऐसा दरिद्री व्रती होवे ||१५|| "Aho Shrutgyanam" Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जन्मसमुद्रः अथ यत्र वर्षे धनं स्यादिति ज्ञानमाह यद्ध शोऽभ्युदितो यद्भ तद्धाङ्काब्दे धनं तदा। बलिष्ठोऽङ्ग शरद्याद्ये श्रीरत्यन्तं पुनस्ततः ॥१६॥ यद्भशो यस्य नरस्य भं राशिस्तस्य राशेरीशः स्वामी जन्मकाले यद्भ यत्र राशौ अभ्युदित ः स्यात्, तद्भाङ्काब्दे तस्य राशेर्योऽङ्कस्तत्संख्येऽब्दे वर्षे धन द्रव्यं स्यात् । तत्र काले जातस्य स धनी स्यादित्यर्थः ।। "एकभांशे व्यय: सूते पितुः केशाय वर्षतः। स्वीष्टाकुलद्वये त्वाप्तौ वैरायान्या मुदे भवेत् ॥" अथ इष्टः शुभो बली सर्वबलयुक्तो जन्मपत्र्यां यदि अङ्गे लग्ने भवेद् यदि, तदाद्ये प्रथमे शरदि वर्षे श्रीलक्ष्मीर्भवति । एवं धनस्थे शुभे सबले द्वितीय वर्षे धनं विशेषेण शुभाभ्यां वा शुभेषु लग्नस्थेषु सत्सु प्रथमे वर्षे शुभतरं स्यादेवं सर्वत्र इत्यमुना प्रकारेणान्त्यं व्ययं यावत् पुनरिं वारं वाच्यम् । वर्षे ज्ञाते सति मीनाच्चैत्रमासं परिकल्प्य मासस्य शुभाशुभं शुभाशुभैर॑हैस्तस्य वर्षस्य तस्य बालकस्य कल्प्यम् । अमुमेवार्थ प्रश्नशतश्लोकनाह "मासेऽजादत्र वैशाखात् ग्रहः स्वस्वसमं फलम् । दद्यात्तत्राथ चाङ्ग शो बली भैशोऽथ नात्यये ॥" इति मासज्ञानम् । जातक की जन्म कुन्डली में जन्मराशि का स्वामी (चन्द्रमा के राशि का स्वामी) जिस राशि पर हो उस राशि की संख्या तुल्य वर्ष में जातक को द्रव्य प्राप्त होवे। जैसेचन्द्रमा जिस राशि पर हो उस राशि का स्वामी यदि मेष राशि में हो तो प्रथम वर्ष में, वृष राशि में हो तो दूसरे वर्ष में, इस प्रकार मीन राशि पर हो तो बारहवें वर्ष में धन प्राप्ति होवे। इस प्रकार बार-बार गिनती करना चाहिए । इसी प्रकार बलवान शुभ ग्रह का भी फल जानना । जैसे-बलवान शुभ ग्रह लग्न में हो तो प्रथम वर्ष में, दूसरे स्थान में हो तो दूसरे वर्ष में, एवं तीसरे स्थान में हो तो तीसरे वर्ष में, इस प्रकार बारहवें स्थान में हो तो बारहवे वर्ष में धन प्राप्ति होवे । इस प्रकार बारबार गिनती करे, एक बार बारह साल में धन प्राप्ति न हुई हो तो फिर तेरहवें वर्ष से गिनती करना चाहिए। वर्ष का ज्ञान होने के बाद उस वर्ष में किस मास में धन प्राप्ति होवे। तो मास की गिनती मेष राशि का सूर्य हो तो वैशाख, वृष का सूर्य हो तो जेष्ठ, इस प्रकार मीन का सूर्य हो तो चैत्र मास "Aho Shrutgyanam" Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम कल्लोल जानना, जिस मास में जन्म राशि का स्वामी और शुभ ग्रह बलवान हो, उस मास में धन प्राप्ति होवे । इसी तरह अशुभ ग्रह का फल अशुभ जानना ॥१६॥ अर्थान्तरमाह खाङ्गार्थाम्बुनवर्क्षेशे लग्नादाद्यन्तबाह्यभे । तुङ्गाद्यस्थे धनी मुख्यो बाल्ययौवनवार्धके ॥ १७॥ 'खाङ्गार्थाम्बुनवर्क्षेशे' कर्मलग्नधनचतुर्थभाग्यराशीनामीशे स्वामिनि, तुङ्ग उच्चे, प्रादिशब्दात् परमोच्चे मित्रात्मराश्यंशकस्थे वा बलिष्ठेषु स्थानेषु सबलेष्वेव सत्सु बाल्ये बालत्वे धनी धनाढ्यो नगरमुख्यो भवति । श्रादिशब्दादेवं विधेष्वेषु स्वामिषु लग्नस्यान्तभे पञ्चमषष्ठसप्तमाष्टमानाने कतमे यौवने धनी । एवमेषां एषु बाह्यभे धर्मादिव्ययान्तानामेकतमस्थेषु यथा सम्भवे वार्द्धक्ये सति धनी । विपरीतस्थेषु विपरीतं फलं समग्रं स्वधिया योज्यम् ।।१७।। १११ दसवां, पहला, दूसरा, चौथा और नवां स्थान का स्वामी उच्च का, परमोच्च का, अपनी या मित्र राशि का, अपनी या मित्र राशि के नवांश का होकर लग्न से चार भवन में से कोई भवन में हो तो बाल्यावस्था में, पांचवें भवन से आठवें भवन तक तो युवावस्था में और नवें से बारहवें भवन तक कोई भवन में हो तो वृद्धावस्था में धनवान या राजा होवे । उपरोक्त स्थानों के स्वामी यदि नीच राशि के निर्बल हों तो उक्त अवस्था में अशुभ फल कहना ॥१७॥ अथावस्थात्रयमाह राशौ नवनवाब्दांश्चा-स्थाप्यावस्थात्रयं वदेत् । कोणाङ्गान्दाद्धतः पुष्टा यत्रेष्टास्तत्र वित्तदाः ॥ १८ ॥ राशौ राशी स्थाने स्थाने लग्नान्नव नवाब्दा वर्षारण प्रस्थाप्य संकल्प्य कोणाङ्गाब्दार्द्धतः पञ्चमनवमलग्नेषूक्तवर्षार्द्ध तो यतः एषु सार्द्धं चत्वारि वर्षाणि भवन्ति । तेभ्यः स्थानकेभ्योऽवस्थात्रयं वदेद् भाषेत । तद्यथा - - लग्नधनत्रिचतुः पञ्चमराशीन् प्रथमावस्था बाल्या नाम्नी । पञ्चमादिनवमान्तं यावद् द्वितीयावस्था यौवनीनाम । नवमादिलग्नान्तं यावतृतीयावस्था वाद्धिकी नाम ज्ञेया । यत्र यत्रावस्थायामिष्टाः शुभाः पुष्टा बलिष्ठा भवन्ति, तत्र तत्र वयसि वित्तदा द्रव्यदा मुद्राप्रदराजसुतसुखस्त्रीनिर्वृति प्रदाः । अर्थान्तराद् यत्र यत्रावस्थायां क्रूराः पुष्टास्तत्र तत्र वयसि हानिः सन्तापरोगप्रदाः । एवं यत्र ववसि मिश्रा ग्रहास्तत्र तत्र मिश्र फलदा मध्ये मध्ये सुखदा, मध्ये मध्ये दुःखदा इत्यर्थः ।। १८ ।। प्रत्येक राशि का यानि प्रत्येक स्थान का नौ नौ वर्ष कल्पना करना । पीछे पूर्वोक्त श्लोक में कहे हुए शुभाशुभ फल देने वाला ग्रह जिस स्थान में उसी स्थान के नौ २ के क्रम "Aho Shrutgyanam" Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जन्मसमुद्रः से शुभाशुभ फल कहे। जैसे-दसवां, पहला, दूसरा, चौथा और नवां स्थान का पति बलवान होकर लग्न में रहा हो तो जन्म से नौ वर्ष तक, दूसरे स्थान में हो तो दसवां वर्ष की शुरूपात से अठारह वर्ष तक, तीसरे स्थान में हो तो उन्नीसवां वर्ष की शुरूआत से सत्ताईस वर्ष तक शुभाशुभ फलदायक होता है। इसी प्रकार नौ २ वर्ष प्रत्येक स्थान का समझ कर फल कहना । नवें, पांचवे और लग्न के साढे चार २ वर्ष कलाना, क्योंकि ये तीनों स्थान तीन अवस्था के द्योतक हैं। जैसे- लग्न के उत्तराद्ध से पंचम स्थान के पूर्वाद्धक तक बाल्यानाम्नी प्रथमावस्था । पंचम के उत्तराद्ध से नवे के पूर्वाद्ध तक यौवनानाम्नी द्वितीयावस्था और नवे का उत्तराद्ध से लग्न का पूर्वाद्ध तक वृद्धानाम्नी तीसरी अवस्था मानना । जिस २ अवस्था में बलवान शुभ ग्रह हो, उसो २ अवस्था में शुभ फलदायक है, कर ग्रह बलवान होकर जिस अवस्था में हो उसी अवस्था में अशुभ फलदायक है। यदि मिश्र ग्रह हो तो मिथ फल कभी अच्छा कभी अशुभ होता है ॥१८॥ अथ वर्षादिमासादिदिनादिज्ञानमाह-- यो जातोऽन्दाहमासादौ वा मध्ये युनिशोजयी । मासान्तयतमे योऽह्नि तत्तमेऽब्दे भवेत् सुखी ॥१६॥ यो बालोऽब्दाहमासादौ अब्देन चैत्रादि वर्षेण सह वर्तते यदहो दिनं तदब्दाहाम्यां सह यो मासस्तेषां वर्षदिनमासानामादौ धुरि यो जातः स सुखी जयी च स्यात् । वाथवा धुनिशो द्यौश्च निशा च धुनिशो तयोर्यु निशोदिवाराव्यो मध्ये दिवा प्रहरद्वये रात्रिप्रहरद्वये वा जातः सोऽपि जयी सुखी वाच्यः। आदि शब्दान्नक्षत्रस्य षड्वर्गस्य नरराशि नरलग्नयोर्लग्नादिगतार्कादेः फलान्यवलोक्यानि जन्मप्रकाशाद् ग्रन्थविस्तरभयान्नोक्तानि । अथ मासान्तर्मासस्यान्तर्मध्ये यतमे यत्संख्येऽह्नि दिने यो जातः तत्तमे तावत्संख्येऽब्दे वर्षे सति सुखी धनी च भवेत् जायते ॥१६॥ वर्ष, मास, दिन और रात्रि के तीन २ भाग कल्पना करके फल कहना। जैसे वर्ष, दिन और मास के प्रथम भाग में जन्म हो तो वह जातक सुखी और धनी होवे । इसी प्रकार दिन और रात्रि के मध्य भाग में जन्मा हृया सुखी और विजयी होवे। नक्षत्र के षड्वर्ग का और लग्नादि भवन में रहे हुए सूर्यादि ग्रहों का फल जन्म-प्रकाश नाम के ग्रन्थ में लिखे हुए हैं वहां से देख लेना चाहिए। महिने के जितने दिन व्यतीत होने के बाद जन्म हुमा हो, उतनी संख्या तुल्य वर्ष में शुभ फल होवे ॥१६॥ प्रथायुर्योगानाह-- लग्ने लाभे च तत्पे वा पुष्टे पूर्णायुरुच्यते । एकस्मिन् मध्यमं हीन द्वयो: संख्या तदङ्कतः ॥२०॥ "Aho Shrutgyanam Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम कल्लोल लग्ने जन्मलग्ने तस्माल्लाभे एकादशे पुष्टे पूर्णबलोपेते सति पूर्णायुर्वर्षशतजीवो स वाच्यः । वाथवा तत्पौ तौ लग्नलाभौ पतिः इति तत्पौ लग्नेशे लाभेशे च पुष्टे सति यो जातः स दीर्घायुरुच्यते । अथवा लग्ने लाभे वा पुष्टबलोपेते सति, अथवा तत्पे लग्नेशलाभेशयोरेवास्मिन्मध्यबलेऽपरे पुष्टे सर्वबलोपेते सति मध्यमायुः । पंचाशद्वर्षमितायुः । अथ द्वयोरुभयोर्लग्नलाभयो रेकस्मिन् अल्पवले सति । अथवा लग्नेशलाभेशयोरेकतमेऽल्पबले द्वितीये निर्बले सति हीनमायुः पंचविशति वर्षारिण जीवतीत्यर्थः । अथ द्वयोरपुष्टयोः सर्वबलहीनयोस्तस्मादायुषो हीनं सार्द्ध - द्वादशवर्षारिण यावज्जीवति परं शुभयोगे सबले सति एवं लग्नेशकार्येशयोगे योजनीयम् । एवं लग्नलाभयो रथैतयोर्नाथयोरङ्कतः संख्या वर्षोद्देशप्रमाणमायुषस्तस्य कथनीयम् ॥ २० ॥ लग्न और लाभ स्थान अथवा लग्नपति और लाभ स्थान का पति दोनों बलवान हों तो पूर्ण प्रायुष जानना । इन दोनों में एक बलवान हो तो मध्यम आयुष जानना । एवं लग्नेश और लाभेश इन दोनों में एक अल्प बलवान हो और दूसरा निर्बल हो तो हीन आयुष पच्चीस वर्ष की जानना । अथवा ये दोनों निर्बल हों तो साढ़े बारह वर्ष की आयुष जानना यदि शुभ ग्रह का योग बलवान हो तो। इसी प्रकार लग्नेश श्रौर कार्येश ( दसम स्थान का पति ) के योग से भी प्रायुष का निर्णय करना । लग्नेश और लाभेश के * वर्ष बराबर श्रायुष्य का निर्णय करना । अथ योगान्तर चतुष्टयमाह ११३ केन्द्र ज्येऽपोग्रशुक्रेक्ष्ये वेज्ये लाभे विधौ ज्ञभे । खेऽब्जे सद्दृग्युते वा स दीर्घायुर्वाम्बुगैः शुभैः ॥२१॥ केन्द्र ज्ये केन्द्रगते य इज्यो गुरुस्तत्र केन्द्र गुरौ, अपोग्रशुक्रेक्ष्ये चापगत उग्रः पापो यस्य सोऽपोग्रो निष्पापो यः शुक्रस्तेनेक्ष्ये दृष्टे सति यो जातः स पूर्णायुः । वाथवा इज्ये गुरौ लाभे एकादशस्थे पूर्णे विधौ ज्ञभे च बुधस्य राशौ च सति स दीर्घायुः । वाथवा अब्जे चन्द्रे खे. दशमस्थे' सद्दृग्युतौ च सतां शुभानां दृग् दृष्टि * बृहज्जातक में सूर्यादि ग्रहों का परम श्रायु बतलाया है कि "मय यवन मरिणत्थशक्तिपूर्वेदिवसकरादिषु वत्सराः प्रदिष्टाः । नवतिथिविषयाश्विभूतरुद्रदशसहिता दशभिः स्वतुङ्गमेषु ॥” मय यवन मरिणत्थ और पराशर आदि पूर्वाचार्यों ने सूर्यादि ग्रहों की वर्ष संख्या नीचे लिखे 'अनुसार कहा है -सूर्य का उन्नीस, चन्द्रमा का पच्चीस, मंगल का पन्द्रह, बुध का बारह, गुरु का पन्द्रह, शुक्र का इक्कीस और शनि का बीस वर्ष है । ये वर्ष संख्या ग्रह उच्च राशि के बलवान हो तो समझना । C "Aho Shrutgyanam" Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ 'जन्मसमुद्रः युतिर्योगो वा यस्य स सदृग्युतिस्तत्र चन्द्र क्रूरैरदृष्टे युते वा स दीर्घायु: । वाथवा अब्जे चन्द्र खे दशमस्थे सदृग्युतौ च सतां शुभानां दृग्दृष्टियु तिर्योगो वा यस्य स सदृग्युतिस्तत्र चन्द्र क्रूरैरदृष्टेऽयुतेवा स दीर्घायुः । वाथवा शुभैर्ग्रहैरम्बुगैश्चतुर्थस्थैः पुष्टै भे च सति दीर्घायुर्वर्षशतायुर्भवति ।।२१।। ___ गुरु केन्द्र में रहा हो, उसको निष्पाप शुक्र देखता हो, अर्थात् केन्द्र में रहा हुआ गुरु को शुभ ग्रह शुक्र देखता हो, पाप ग्रह कोई न देखता हो तो पूर्ण प्रायुष जानना ।। अथवा बृहस्पति ग्यारहवें स्थान में हो और पूर्ण चन्द्रमा कन्या या मिथुन राशि में हो तो दीर्घ प्रायुष्य जानना ।२। अथवा चन्द्रमा दसवें स्थान में हो, उसके साथ शुभ ग्रह हो या शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो पाप ग्रह कोई देखते न हों तो दीर्घ आयुष जानना ।। अथवा बलवान शुभ ग्रह चोथे या ग्यारहवें स्थान में हों तो दीर्घ आयुष्य जानना ॥२१॥ अथ शास्त्रस्तुतिमाह दैवज्ञानां चलद्दीपो द्रष्टुकर्म शुभाशुभम् । जन्माब्धि रितु पोतो वेदर्षीन्दुमिति प्रियः ॥२२॥ एषो जन्मसमुद्रो नाम ग्रन्थो दीप: प्रदीप इव वर्तते । केषां दैवज्ञानां नैमित्तकानां किं विशिष्टश्चलन हस्तगतः। किं कत्तुं जातस्य बालस्य शुभाशुभं सम्पदापदू पं कर्म द्रष्टु विलोकयितु। यथा हस्तस्थिते दीपे घटपटादिद्रव्याणि दृश्यन्ते, तथा तस्मिन् शास्त्रे कण्ठस्थिते जन्मतः सुखदुःखादिकं यादृशं भवेत्, तादृशं सर्वं दरीदृश्यते ज्ञायत इत्यर्थः । किं विशिष्टो जन्मसमुद्रः जन्माब्धिः । जन्मफलानां समुद्रस्तं तरितु पोतः प्रवहणवदित्यर्थः । यथा-प्रवहणेन कृत्वा समुद्रः समुत्तीर्यते, तथानेन जन्मसमुद्रण जातबालककर्म कथयितु पारं गम्यते । कियत्संख्योऽयं वेदर्षीन्दुमिति चतुःसप्तत्यधिकशतप्रमाणश्लोक इत्यर्थः । पुनः किंविशिष्टः प्रियः सर्वजातकलवव्यापकत्वात् सर्वहौरिकारणां वल्लभः । तथा च सारं सलक्षणममुष्य गुरूपदेशं, जानाति ताजिकलवानुभवानुवादि । बुद्धिः प्रपञ्चवशतोऽलभतो विचित्रात्. पत्रान्निधानमिव संलभते स लक्ष्मीम् ।। ...... (जन्मप्रकाशकीये) ज्योतिषीयों के लिए यह जन्मसमुद्र नाम का ग्रन्थ जातक के शुभाशुभ कर्म का फल देखने के लिए दीपक समान है। जैसे भयंकर अन्धकार में रहे हुए घटपटादि पदार्थों को हाथ में रहा हुआ दीपक से जाना जाता है, वैसे यह जन्मसमुद्र ग्रन्थ कण्ठस्थ होने से जातक का शुभाशुभ कर्म का फल जाना जाता है। जैसे अगाध समुद्र को पार होने के लिए "Aho Shrutgyanam" Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम कल्लोलः ११५ जहाज का आधार है, वैसे अगाध जातक शास्त्र रूप समुद्र में जहाज के समान एकसौ चोहत्तर (१७४) श्लोक वाला यह जन्म समुद्र नाम का ग्रन्थ सब दैवज्ञ जनों को प्रिय होवे ॥२२॥ अथ स्तुत्यनन्तरं स्वस्थानस्वकीयपूर्वजनितगुरुनाम स्वकीयनामकथनं च शार्दूलविक्रीडित च्छन्दसाह श्रीकाशहदगच्छगुच्छतरलश्रीदेवचन्द्राङ्घियुक्, श्रीउद्योतनसूरिपट्टमुकुटश्रीसिंहमूरिप्रभोः । शिष्यश्रीनरचन्द्रनामविदितो योऽध्यापको ज्ञापक श्चक्रे जन्मसमुद्र एष सुधिया तेनार्थगेहं जयी ॥२३।। एष जन्मसमुद्रो मल्लक्षणेन सुधिया विदुषा चक्रेऽकारि । केनानेनेति यः श्रीनरचन्द्रनाम विदितः श्रिया लक्ष्म्या सह नरचन्द्र इति यन्नाम तेन विदितो विख्यातो यः, कीदृशः शिष्यः क्षुल्लक: "श्रीकाशहदगच्छगुच्छसदृशश्रीदेवचन्द्राङ्घियुक् श्रीउद्योतनसूरिपट्टमुकुटश्रीसिंहसूरिप्रभोः।" अथादौ नगरप्रवरश्रीकाशहदनगरस्योत्पत्तिमाह- अर्बुदपुराणे इत्युच्यते-सृष्टेरादौ बहुविध तपोधनसहितो नष्टकुलगोत्राकरः सर्वषिप्रथमः काश्यपी कर्ता, कश्यपनामा ऋषिरासीत् तेन स्वनाम्नः सदृशं पूर्वं काश्यपपुरमिति नगरं स्थापितम् । पश्चाद् घनेषु कालेषु सत्सु यत्परमारकुलकरराजनाम राजकुलराजधानीस्थानं नानाविधतीर्थस्थानं बहुधा वनस्पतिफलवृक्षमण्डिताबुदाचलं प्रथम यन्नगरं तदाश्रयात् श्रीकाशहदनामा गच्छः स्वच्छोऽतुच्छो जयी वर्तते भुवि स एव श्रीकाशहदगच्छ एव गुच्छो हारस्तस्य मध्यस्थितो यस्तरलो हारस्तन्मध्यस्थितं रत्नं सुवृत्तनैर्बल्यनिर्दोषत्वात् तद्वत् श्रीदेवचन्द्रसूरयो गुरवस्तेषामङ्घि युजोऽ की पादौ युज्जन्ति उपयुज्यते तच्चरणकमलाराधकाः स्वगुरुत्वविद्याग्रहणत्वात् । ये श्रीउद्योतनसूरय प्राचार्यास्तेषां यः पट्टस्तस्य मुकुटाः शेखरप्रायाः षट्त्रिंशद्गुरुगुणरत्नशोभाकरणत्वाद् ये श्रीसिंहसूरयो नाम प्रभवः स्वामिनो गुरवस्तेषां शिष्यो विनेयः, पुनः किं विशिष्टः ? अध्यापकोऽध्यापयतीति सूत्रतः पाठयतीत्युपाध्याय इति यावत् । पुनः किंविशिष्टो ज्ञापको ज्ञापयतीत्यर्थतो मातृकापाठादिलक्षणविंध्याग्रन्थान् बोधयतीति । पुनः किंविशिष्टो जयी जयनशोलः पुनः किं विशिष्टोऽयं ग्रन्थोऽर्थगेहं नानाविधज्योतिष्कयोगार्थं मन्दिरं अल्पाक्षरबहुलार्थत्वाच्चक्रे य एवं विध उपाध्याय स देवगुरुपादप्रसादात् पाठकश्चास्याधीति, य: स चिरं नन्दतु ।।२३।। युग्मम् ।। "Aho Shrutgyanam" Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 जन्मसमुद्रः सृष्टि की आदि में महा तपस्वी श्री काश्यप नाम का ऋषि था, उसने अपने नाम का काश्यपपुर स्थापित किया। यहाँ बहुत समय से परमारवंशीय राजाओं की राजधानी का स्थान है, जो अनेक तीर्थों का स्थान और अनेक प्रकार के फल वृक्षों से शोभायमान प्राबू गिरिराज का यह प्रथम नगर है। वहाँ श्रीकाशहदनामक गच्छ के नायक श्री देवचन्द्रसूरि हुए, उनके पट्टधर शिष्य श्री उद्योतनसूरि हुए, इनके पट्टधर श्री सिंहसूरि हुए, इनका शिष्य रत्न श्री नरचन्द्र नाम का उपाध्याय है, इसने यह ज्योतिष के योगों का एक मन्दिर स्वरूप जिसमें अक्षर कम और विस्तृत अर्थ वाला जन्म समुद्र नाम का ग्रन्थ रचा। जो इस ग्रन्थ का अध्ययन करेगा वह चिरकाल तक सुखी रहेगा // 23 // श्रीमद्विक्रमवत्सरात् त्रिनयनाघोषेऽत्र वर्षे तपो, मासे शुद्धचतुर्दशी शनिदिने चम्पावतीपट्टने / चैत्येऽकारि कुमारपालनृपतेर्वृत्ति च काशहूदो, पाध्यायो नरचन्द्र इन्दुनृपसपर्यायरूपामिमाम् // 24 // इति श्रीकाशहदगच्छीयश्रीसिंहसूरिशिष्यश्वेताम्बरश्रीन रचन्द्रोपाध्यायकृतायां वृत्तिबेडासज्ञायां जन्मसमुद्र-प्रश्नशतसहोदरायां जन्मसमुद्रवृत्तावष्टमकल्लोलो नाम रज्वादियोग दीक्षा वस्वायुर्योग लक्षणो नामाष्टमः कल्लोलः : / विक्रम संवत् 1323 के वर्ष में माघ मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी शनिवार के दिन चम्पावती (चन्द्रावती 1) पट्टन में कुमारपाल राजा ने बनवाया हुप्रा चैत्य (मंदिर) में निवास करके काशहद गच्छोय श्री नरचन्द्र नाम के उपाध्याय ने अनेक पर्यायवाली इस ग्रंथ की वृत्ति (टीका) की रचना किया // 24 // इति श्रीकाशह्नदगच्छीय श्री सिंहसूरि शिष्य श्वेताम्बर श्रीनरचन्द्रोपाध्याय विरचित जन्मसमुद्र और प्रश्नशतक दोनों ग्रन्थ की बेडा नाम को वृत्ति में यह जन्मसमुद्र ग्रन्थ की बेडा नाम की वृत्ति का रज्वादि योग दीक्षा आयुष लक्षण वाला पाठवाँ कल्लोल समाप्त / "Aho Shrutgyanam"