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________________ जन्मसमुद्रः भौमस्य त्रिंशांशे सति या जाता असती व्यभिचारिणी। एवं शनौ नृभित् पतिघातिनीत्यर्थः ॥२॥ लग्न और चन्द्रमा इन दोनों में से जो बलवान हो, वह जिसके त्रिशांश में हो उसके अनुसार फल कहना चाहिए । जैसे-लग्न या चन्द्रमा सूर्य की सिंह राशि पर हो और मंगल के त्रिशाँश में हो तो वाचाल स्त्री होवे । शनि के त्रिशांश में हो तो कलहकारिणी, गुरु के त्रिशांश में हो तो महारानी, बुध के त्रिशांश में हो तो पुरुष के जैसी चेष्टा वाली और शुक्र के त्रिशांश में हो तो व्यभिचारिणी होवे ॥२॥ प्रथ कर्कराशिस्थितत्रिंशांशक्रममाह - सगुणा शिल्पिनो दुष्टाथान्यगा दासगा सती। मायेत्वरी वा कूटाढया क्लीबेष्टा सगुणान्यगा ॥३॥ एवं जीवस्य भागे सगुणा औदार्यादिगुणयुता। एवं बुधस्य शिल्पिनी विज्ञानयुक्ता । एवं शुक्रस्य दुष्टा दुश्चारिणी स्त्री भवेत् । अथ कर्कस्यानन्तरमादिशब्दात् कुजस्य राशी मेषवृश्चिकयोरेकतमे, तत्रस्थे भौमस्य त्रिंशांशे सति जाता सा अन्यगा परगामिनी । एवं शनेर्दासी। जीवस्य सती पतिव्रता। बुधस्य माया शाठ्ययुता। शुक्रस्येत्वरी दुःशीला। वा शब्दो ग्रहाणां क्रमनिर्देशार्थो ज्ञेयः । आदिशब्दादेवं बुधस्य कन्यामिथुनयोरेकतमे राशौ तत्रस्थे भौमस्य भागे जाता कूटाढचा कपटबहुला। एवं शनेः क्लीबा नपुसकतुल्या। जोवस्येष्टा अभीष्टा सतीत्वात् । एवं बुधस्य सगुणा। शुक्रस्यान्यगा परनरगामिनी कामाधिक्यात् ।।३।। यदि लग्न या चन्द्रमा, चन्द्रमा की कर्क राशि पर हो और मंगल के त्रिशांश में हो तो व्यभिचारिणी, शनि के त्रिशांश में हो तो पति का नाश करने वाली, गुरु के त्रिशांश में हो सदगुण वाली, बुध के त्रिशांश में हो तो कलानों को जानने वाली और शुक्र के त्रिशांश में हो तो दुराचारिणी होवे । एवं लग्न या चन्द्रमा यदि मंगल की मेष या वृश्चिक राशि में हो और मंगल के त्रिशांश में हो तो पर पुरुष के साथ गमन करने वाली, शनि के त्रिशांश में हो तो दासी, गुरु के त्रिशांश में हो तो पतिव्रता, बुध के त्रिशांश में हो तो मायाचारिणी और शुक्र के त्रिशांश में हो तो दुराचारिणी होवे । एवं लग्न या चन्द्रमा, बुध की मिथुन या कन्या राशि में हो और मंगल के त्रिशांश में हो तो प्रधिक कपट करने वाली, शनि के त्रिंशांश में हो तो नपुसक जैसा बर्ताव वाली, गुरु के त्रिशांश में हो तो सती, शीलवती, बुध के त्रिशांश में हो तो सद्गुण वाली और शुक्र के त्रिशांश में हो तो परपुरुष गामिनी होवे ॥३॥ "Aho Shrutgyanam"
SR No.009531
Book TitleJanmasamudra Jataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherVishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch
Publication Year1973
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size19 MB
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