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भूमिका
ज्योतिष शास्त्र प्रत्यक्ष शास्त्र है, उसको जानने वाले पंडित को ज्योतिषी अथवा दैवज्ञ कहते हैं । यह सिद्धान्त, संहिता और होरा, इस प्रकार तीन विभाग में बटा है । सिद्धान्त ग्रन्थों से ग्रहों का उदय, अस्त और गति आदि का ज्ञान होता है, जिससे पंचांग बनता है । संहिता ग्रन्थ अनेक विषयों का संग्रह है और होरा ग्रन्थ से सब विषय के मुहूर्त देखे जाते हैं और जन्म लग्न कुण्डली पर से शुभाशुभ फलादेश किया जाता है । यह जन्मसमुद्र ग्रंथ होरा शास्त्र है । इसमें गर्भोत्पत्ति से लेकर आयुष्य तक का शुभाशुभ फलादेश किया गया है ।
यह ग्रन्थ विक्रम सम्वत् १३२३ के वर्ष में जैनाचार्य श्री नरचंद्रोपाध्याय ने रचा है । ग्रंथकार ने शास्त्र के अन्त में शास्त्रस्तुति करते हुए लिखा है कि :
“ दैवज्ञानां चलद्दीपो द्रष्टुं कर्म शुभाशुभम् ।
जन्माब्धिं तरितु पोतो वेदर्षीन्दुमिति प्रियः ॥ "
जैसे हाथ में रहा हुआ दीपक से घटपटादि वस्तुओं को अच्छी तरह देख सकते हैं और प्रथाह समुद्र को जहाज द्वारा पार हो सकते हैं, वैसे जन्म के फलादेश रूपी समुद्र को १७४ श्लोक के प्रमाणवाला यह जन्मसमुद्र ग्रंथ को कंठस्थ करने से जातक क शुभाशुभ फलादेश अच्छी तरह कर सकते हैं ।
ग्रंथकार ने अपना परिचय ग्रन्थ के अन्त में लिखा है कि –प्रबुर्द पुराण में लिखा है कि- प्राचीन समय में सृष्टि की आदि में महा तपस्वी काश्यप नाम के ऋषि थे, उन्होंने अपने नाम से काश्यप नाम का नगर अनेक धर्मावलंबियों के तीर्थ स्थान और अनेक प्रकार के फल फूल वाले वृक्षों से सुशोभित श्राबू नाम के पर्वत की तलहटी में स्थापित किया । बाद में परमार वंशीय राजपूतों की राजधानी रहा। उस नगर में काशलद नाम का गच्छ निकला उस गच्छ में अनेक सुगुरगुरण विभूषित जैनाचार्य श्री देवचन्द्रसूरि हुए । उनके चरण कमल सेवित शिष्यरत्न जैनाचार्य श्री उद्योतनसूरि हुए । उनके पट्टप्रभावक छत्तीसगुरुगुणधारक जैनाचार्य श्री सिंहसूरि हुए । उनके विनयादि गुण युक्त अनेकविध शास्त्रों के अध्यापक श्री नरचन्द्र नाम के उपाध्याय हुए । यह ज्योतिशास्त्र के प्रकाण्ड पंडित थे। इनके रचे हुए ज्योतिष के ग्रन्थ नीचे लिखे अनुसार प्राप्त होते
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१. जन्मसमुद्र : बेड़ा (जहाज) नाम की स्वोपज्ञ वृत्ति सहित, इससे जातक की जन्मकुण्डली का शुभाशुभ फलादेश कर सकते हैं ।
"Aho Shrutgyanam"