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जन्मसमुद्रः
सुस्वरः, विशेषेणेरयति प्रेरयति अष्टकर्मीणीति वीरः क्षिप्तकर्मत्यर्थः स एवंविधः श्रीमहावीरजिनः शिवश्रिये भवत्वित्यर्थः ।।१।।
चौबीसवें तीर्थङ्कर महावीर जिन हैं, वे कल्याण और लक्ष्मी के लिए हों। जो समस्त कल्याणों का प्राश्रय है, अनन्त वीर्यवान् होने से सबसे उत्कृष्ट बलवान् है, गांभीर्यादिक समस्त गुणों का स्थान होने से सबसे श्रेष्ठ है, जैसे हाथ में रक्खे हए प्रांवले के फल के स्वरूप को सब प्रकार से जान सकते हैं। वैसे तीनों जगत् के स्वरूप को एक समय में जानने वाले होने से स्वर्ग, मृत्यु और पाताल ये तीनों लोक के स्वामी हैं, क्रोधादिक छः आभ्यंतर शत्रुओं को जीतने वाले होने से जितेन्द्रिय हैं, समस्त देवों के ईश्वर हैं, निरन्तर पर्षदाओं में मधुर ध्वनि वाली वाणी से देशना देने वाले होने से सुस्वर कहलाते हैं, विशेष प्रकार से अष्टकर्म रूप शत्रुओं का सामना करने वाले होने से वीर हैं, ऐसे श्री महावीर प्रभु कल्याण रूप लक्ष्मी के लिए हों ॥१॥
अधुना शास्त्रनामाह
अनन्तयोगरत्नानां निधिर्गम्भीरतावधिः ।
सुधीवराभिगम्योऽयं जन्माम्भोधिः समुल्लसेत् ॥२॥ अयं जन्माम्भोधिर्जन्मसमुद्रो नामा ग्रन्थः समुल्लसेत् । कै: अष्टभिः कल्लोलेः समुल्लसति । योऽनन्तयोगरत्नानां निधिः, अनन्ता असंख्या ये योगा गर्भसम्भवाद्यास्तान्येव रत्नानि तेषां निधिनिधानं । गम्भीरताया अवधिः सीमा या स्तोकाक्षर बहुलार्थत्वात् । सुधियां सूक्ष्मदर्शिनां मध्ये ये वराः श्रेष्ठाः सर्वज्योतिषशास्त्रज्ञास्तैरभिगम्यः सेव्यः, समुद्रोऽपि अनन्तयोगानि असंख्ययोगानि पृथक् २ फलानि यानि रत्नानि तेषां निधिः गम्भीरताया अवधि: अलक्ष्यमध्यत्वात्, सोऽपि सुधीवराभिगम्यः शोभनर्धीवरैः कैवत्तरभिगम्यस्तरितु शक्यते, अतश्च कल्लोलैरुल्लसति ।।२।।
अब इस शास्त्र का नाम कहते हैं-इस शास्त्र का नाम जन्मांभोधि अर्थात् जन्मसमुद्र है। शास्त्र को समुद्र की उपमा इसलिए दी जाती है कि जैसे समुद्र में कल्लोले होती हैं, वैसे इस शास्त्र में भी पाठ कल्लोलें हैं। जैसे समृद्र में रत हैं, वैसे इसमें गर्भ संभवादि अनन्त ग्रहयोग रूप रत्न हैं । जैसे समुद्र की गहराई की सीमा को जहाज चलाने वाले चतुर धीवर ही जान सकते हैं, वैसे ही इस शास्त्र की गंभीरता (गहराई ) की सीमा को समस्त ज्योतिष शास्त्र के जानने वाले अच्छे विद्वान् लोग ही जान सकते हैं ॥२॥
अधुना शास्त्रादौ लग्नादिद्वादशभावानां सर्वव्यापकं लाभालाभज्ञानमाह
लग्नाद् वेन्दोश्च यो भावः स्वामिना वा शुभैयुतः। दृष्टोऽथ तस्य तस्याप्ति प्राहुर्जन्मनि नाक्रमे ॥३॥
"Aho Shrutgyanam" |