SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ जन्मसमुद्रः सुखी, ऐश्वर्य सम्पन्न, शत्रु को जीतने वाला, दीर्घायु, निरोगी और निर्भय होता है। लग्न से या चन्द्रमा से तीनों शुभ ग्रह उपचय (३-६-१०-११) स्थान में हों तो अधिक धनवान, दो शुभ ग्रह उपचय स्थान में हों तो मध्यम धनवाला और एक शुभ ग्रह उपचय स्थान में हो तो थोड़े धनवाला होता है । और कोई भी शुभ ग्रह उपचय स्थान में न हो तो दरिद्र योग होता है। किसी भी राशि में रहा हुअा चन्द्रमा अपने नवमांश का या मित्रग्रह के नवमांश का हो या दृश्याद्ध में रहा हो, उसको गुरु देखता हो और दिन का जन्म हो तो बालक धनवान और सुखी होता है। अदृश्याद्ध में चन्द्रमा हो और रात्रि में जन्म हो तो निर्धन और दु.खी होता है । अदृश्याद्ध में रहा हुअा चन्द्रमा को शुक्र देखता हो और रात्रि का जन्म हो तो महा धनवान और दिन का जन्म हो तो दरिद्र होता है। सूर्य से चन्द्रमा केन्द्र (१-४-७-१०) में हो तो जातक विनय, न्याय, बुद्धि, धन और शील प्रादि गुरगों से रहित होता है। सूर्य से चन्द्रमा पणफर (२-५-८-११) स्थान में हो तो विनयादि मध्यम गुणवाला होता है और पापोक्लिम (३-६-६-१२) स्थान में चन्द्रमा रहा हो तो विनयी, धनवान, बुद्धिमान आदि गुणयुक्त होता है । (बृहज्जातके अध्यायः १३) अथ रिष्टभंगान्तरमाह - शुभवर्गे खला इष्ट-दृष्टा इष्टांशवर्गगैः । षव्यायेऽहिः शुभेक्ष्यो वा सर्वशीर्षादये स्थितः ॥१०॥ खलाः पापाः शुभवर्गे शुभामां ग्रहहोरा द्रेष्काण नवांश द्वादशांशत्रिशांशानामेकतमे वर्गे स्थिता इष्टः शुभैरिष्टांशवर्गगैः इष्टा शुभास्तेषामंशवर्गो षड्वर्गस्तत्रस्थैदृष्टाः पापा यदि तदा न रिष्टं जातस्य । अथाहिः राहुः षट्त्र्याये षष्ठत्रिलाभानामेकतमस्थः शुभेक्ष्यो रिष्टहा। वा सर्वो ग्रहः शीर्षोदये शीर्षोदयराशौ स्थितः शुभदृष्टः प्रकृतिगत्या ततोऽरिष्टहा पूर्वोक्तरिष्टानां नाशकर्ता ॥१०॥ इति जन्मसमुद्रविवृतौ रिष्टभङ्गलक्षणकल्लोलस्तृतीयः ।।३।। शुभ ग्रहों के षड्वर्ग में रहे हुए पाप ग्रहों को शुभ ग्रह देखते हों तो अरिष्ट का नाश होता है। अथवा तीसरे, छठे या ग्यारहवें स्थान में रहा हा राह को शुभ ग्रह देखता हो तो अरिष्ट योग का नाश होता है। एवं सब ग्रह शीर्षोदय राशि में हों, उनको शुभ ग्रह देखते हों तो भी अरिष्ट योग का भंग होता है ॥१०॥ इति श्रीनरचंद्रोपाध्याय विरचित जन्मसमुद्र के रिष्टभङ्ग लक्षणनामका तीसरा कल्लोल समाप्त। "Aho Shrutgyanam"
SR No.009531
Book TitleJanmasamudra Jataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherVishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch
Publication Year1973
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy