Book Title: Janmasamudra Jataka
Author(s): Bhagwandas Jain
Publisher: Vishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch

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Page 124
________________ ११२ जन्मसमुद्रः से शुभाशुभ फल कहे। जैसे-दसवां, पहला, दूसरा, चौथा और नवां स्थान का पति बलवान होकर लग्न में रहा हो तो जन्म से नौ वर्ष तक, दूसरे स्थान में हो तो दसवां वर्ष की शुरूपात से अठारह वर्ष तक, तीसरे स्थान में हो तो उन्नीसवां वर्ष की शुरूआत से सत्ताईस वर्ष तक शुभाशुभ फलदायक होता है। इसी प्रकार नौ २ वर्ष प्रत्येक स्थान का समझ कर फल कहना । नवें, पांचवे और लग्न के साढे चार २ वर्ष कलाना, क्योंकि ये तीनों स्थान तीन अवस्था के द्योतक हैं। जैसे- लग्न के उत्तराद्ध से पंचम स्थान के पूर्वाद्धक तक बाल्यानाम्नी प्रथमावस्था । पंचम के उत्तराद्ध से नवे के पूर्वाद्ध तक यौवनानाम्नी द्वितीयावस्था और नवे का उत्तराद्ध से लग्न का पूर्वाद्ध तक वृद्धानाम्नी तीसरी अवस्था मानना । जिस २ अवस्था में बलवान शुभ ग्रह हो, उसो २ अवस्था में शुभ फलदायक है, कर ग्रह बलवान होकर जिस अवस्था में हो उसी अवस्था में अशुभ फलदायक है। यदि मिश्र ग्रह हो तो मिथ फल कभी अच्छा कभी अशुभ होता है ॥१८॥ अथ वर्षादिमासादिदिनादिज्ञानमाह-- यो जातोऽन्दाहमासादौ वा मध्ये युनिशोजयी । मासान्तयतमे योऽह्नि तत्तमेऽब्दे भवेत् सुखी ॥१६॥ यो बालोऽब्दाहमासादौ अब्देन चैत्रादि वर्षेण सह वर्तते यदहो दिनं तदब्दाहाम्यां सह यो मासस्तेषां वर्षदिनमासानामादौ धुरि यो जातः स सुखी जयी च स्यात् । वाथवा धुनिशो द्यौश्च निशा च धुनिशो तयोर्यु निशोदिवाराव्यो मध्ये दिवा प्रहरद्वये रात्रिप्रहरद्वये वा जातः सोऽपि जयी सुखी वाच्यः। आदि शब्दान्नक्षत्रस्य षड्वर्गस्य नरराशि नरलग्नयोर्लग्नादिगतार्कादेः फलान्यवलोक्यानि जन्मप्रकाशाद् ग्रन्थविस्तरभयान्नोक्तानि । अथ मासान्तर्मासस्यान्तर्मध्ये यतमे यत्संख्येऽह्नि दिने यो जातः तत्तमे तावत्संख्येऽब्दे वर्षे सति सुखी धनी च भवेत् जायते ॥१६॥ वर्ष, मास, दिन और रात्रि के तीन २ भाग कल्पना करके फल कहना। जैसे वर्ष, दिन और मास के प्रथम भाग में जन्म हो तो वह जातक सुखी और धनी होवे । इसी प्रकार दिन और रात्रि के मध्य भाग में जन्मा हृया सुखी और विजयी होवे। नक्षत्र के षड्वर्ग का और लग्नादि भवन में रहे हुए सूर्यादि ग्रहों का फल जन्म-प्रकाश नाम के ग्रन्थ में लिखे हुए हैं वहां से देख लेना चाहिए। महिने के जितने दिन व्यतीत होने के बाद जन्म हुमा हो, उतनी संख्या तुल्य वर्ष में शुभ फल होवे ॥१६॥ प्रथायुर्योगानाह-- लग्ने लाभे च तत्पे वा पुष्टे पूर्णायुरुच्यते । एकस्मिन् मध्यमं हीन द्वयो: संख्या तदङ्कतः ॥२०॥ "Aho Shrutgyanam

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