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अष्टम कल्लोलः
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सौम्यैः शुभैर्लग्नास्तगैः, पापैः खाम्बुगतैश्च वज्रनामा योगः। वाथवा विपरीतस्थैः सर्वैर्यवः स्यात् । तद्यथा-लग्नसप्तमस्थैः पापैः, कर्मचतुर्थस्थैश्च शुभैर्यवो नामास्ति भवति । अथ ध्यङ्गधर्मगैः पञ्चमलग्ननवमगैः शृङ्गाटको नाम योगः ।।४।।
सब शुभ ग्रह लग्न और सातवें स्थान में हो, तथा पाप ग्रह दसवें और चौथे स्थान में हो तो वजू नाम का योग होता है। इससे विपरीत यानि सब पाप ग्रह लग्न और सातवें स्थान में हो, तथा सब शुभ ग्रह दसवें और चौथे स्थान में हो तो यव नाम का योग होता है। सब शुभाशुभ सातों ग्रह पांचवें लग्न में और नवें स्थान में रहे हों तो शृङ्गाटक नाम का योग होता है ॥४॥ अधुना कमलं वापीचाष्टधाद्धचन्द्रयोगानाह
कमलं केन्द्रगैमिश्र-र्वापी केन्द्राद् द्विगैस्त्रिगैः ।
केन्द्र स्वादिगैः सप्तमस्थैरद्धन्दुरष्टधा ॥५॥ मिश्रः शुभाशुभैः केन्द्रगैः केन्द्रगतः कमलं कमलनामा योगः स्यात् । केन्द्रात् केन्दाणि विना सर्वैद्विगैश्चतुः पणफरस्थैः कृत्वा विच्छिन्नविभक्तिदानाद्, अथवा त्रिगश्चतुरापोक्लिमस्थैर्वापी नाम योगो द्विधा । केन्द्रः केन्द्राणि विना स्वादिगैर्धनादिस्थानगतैः सप्तमस्थैः सप्तराशिस्थैरन्दुयोगोऽष्टधाष्टप्रकारः स्यात् । तद्यथा-द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमषष्ठास्ताष्टगतैः प्रत्येकस्थैरेकः प्रकारः, तृतीयादिनवमान्तद्वितीयः, पञ्चमादिलाभान्तस्यैस्तृतीयः, षष्ठादिव्ययान्तस्थैश्चतुर्थः, अष्टमादिद्वितीयान्तस्थैः पञ्चमः, नवमादितृतीयान्तैः षष्ठः, लाभादिपञ्चमान्तैः सप्तमः, व्ययादिषष्ठान्तगैः सर्वैरष्टमः ।।५।।
शुभाशुभ सबग्रह केन्द्र में हो तो कमल नाम का योग होता है। केन्द्र को छोड़ कर सब ग्रह पणफर स्थान में अर्थात् दूसरे, पांचवें, पाठवें और ग्यारहवें स्थान में रहे हों, अथवा पापोक्लिम स्थान में अर्थात तीसरे, छठे, नवें और बारहवें स्थान में सब ग्रह रहे हों तो यह दो प्रकार का वापी नाम का योग होता है। एवं दूसरे भवन से सात भवन यानि पाठवें भवन तक, तीसरे से नवम भवन तक, पांचवें से ग्यारहवें स्थान तक, छठे से बारहवें स्थान तक, पाठवें से दूसरे स्थान तक, नवें से तीसरे स्थान तक, ग्यारहवें से पांचवें भवन तक और बारहवें से छठे भवन तक, इस प्रकार केन्द्र स्थानों को छोड़ कर सात-सात भवन में सब ग्रह रहे हों तो यह आठ प्रकार का अद्धेन्दु (अद्धचन्द्र ) नाम का योग होता है ॥५॥ अधुना यूपादिनावादियोगचतुष्टयमाह
यूपेषुशक्तिदण्डा वाङ्गादिकेन्द्राच्चतुर्भगैः। नौकूटच्छत्रचापाख्याः क्रमात् सप्तसंगैरिति ।।६।।
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