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जन्मसमुद्रः
सर्वैर्गदा इति तृतीयः प्रकारः । वाथवाङ्गाम्बुगैर्लग्नचतृर्थस्थैः सप्तभिर्ग्रहैः कृत्वा गदानामयोगश्चतुर्थप्रकारः । अथ केन्द्रत्रयेषु त्रिषु केन्द्र षु गतैः सौम्यैः बुधगुरुशुक्रैः केन्द्रहीनैः पापैर्मालानामयोगः । केन्द्रत्रयं कथं व्याख्यातम् ? यतश्चन्द्रस्य शुक्लपक्षे सौम्यत्वं कृष्णपक्षे पापत्वं च सम्भवतीत्येवं स्थेिते यदा केन्द्रत्रयगताः सोम्याश्चतुर्थश्चन्द्रः केन्द्र स्यात्, अथवा पापाः केन्द्रत्रयताः क्षीणचन्द्रश्चतुर्थः केन्द्र तदा मालासपौ भवतः । अत्र शुभस्त्रयो बुधगुरुशुक्राः पापास्त्रयः सूर्यकुजशनयः, यथा तयोर्मध्ये चन्द्रतृतीयो न स्याद् दलयो यमिदं व्याख्यातम् ।।२।।
___ यदि सब ग्रह लग्न और दसवें स्थान में हों, या सातवें और दसवें अथवा चौथे और सातवें स्थान में, या लग्न और चौथे स्थान में हों तो ये चार प्रकार का गदा नाम का योग होता है । सब शुभ ग्रह तीन केन्द्र में हों तो माला योग और सब पाप ग्रह तीन केन्द्र में हों तो सर्प योग होता है। तीन केन्द्र कहने का मतलब यह है कि-चन्द्रमा शुक्ल पक्ष में शुभ और कृष्ण पक्ष में पापी होता है । जिसे चन्द्रमा शुभ हो या अशुभ, चौथे केन्द्र में रहा हो तो भी माला और सर्प योग होता है । यदि चौथे केन्द्र में चन्द्रमा न रहा हो और तीन केन्द्र में शुभ या अशुभ ग्रह हों तो उक्त दल नाम के दो योग (माला-सर्प) हो जाते हैं ॥२॥
अथ शकटविहङ्गहलयोगानाह
सर्वैलग्नास्तगैर्यानं खाम्बुगैविहगो ग्रहैः।
लग्नः स्वारिखस्थैर्वा ब्यस्तायस्थैस्त्रिधा हलः॥३॥ सर्वैः सप्तभिर्ग्रहैर्लग्नास्तगैर्यानं शकटनामा योगः। अथ खाम्बुगैः सर्वैर्ग हैविहगो नाम योगः। अथ लग्नत जन्मलग्नं विना स्वारिखस्थैर्धनरिपुदसमस्थैः सहलमिति एको योगः । अथवा यस्तायस्थै स्त्रिसप्तलाभस्थैद्वितीयो योगः । वाशब्दाच्चतुर्थाष्टमद्वादशस्थैः सर्वैस्तृतीयो योगः । लग्नं विना परस्परं त्रिकोणस्थैः सर्वैर्ग्रहैहलयोगः स्यादिति भावः ।।३।।
सब ग्रह लग्न और सातवें स्थान में हों तो शकट नाम का योग होता है। सब ग्रह दसवें और चौथे स्थान में हो तो विहग नाम का योग होता है। दूसरे छठे और दसवें स्थान में सब ग्रह हों तो हल योग ।१। तोसरे, सातवे और ग्यारहवें स्थान में सब ग्रह हों तो हल योग ।। चौथे, पाठवें और बारहवें स्थान में सब ग्रह हों तो हल योग ।३। इसी प्रकार लग्न को छोड़ कर परस्पर त्रिकोण में सब ग्रह रहे हों तो उक्त तीन प्रकार का हल नाम का योग होता है ॥३॥
अथ वजयवशृटङ्गाकयोगानाह
वज्र लग्नास्तगैः सौम्यैः पापैः खाम्बुगतैश्च वा । यवोऽस्ति विपरीतस्थैः शृङ्गाटो ध्यङ्गधमगैः ॥४॥
"Aho Shrutgyanam"