Book Title: Janmasamudra Jataka
Author(s): Bhagwandas Jain
Publisher: Vishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch

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Page 41
________________ द्वितीय कल्लोलः २६ जन्मलग्न के जितने अंश व्ययतीत हो गये हों उतनी बत्ती जल गई कहना। अर्थात् लग्न की प्रादि में बत्ती का मुख, मध्य भाग में प्राधी और लग्न के अन्तिम भाग हो तो पूर्ण बत्ती जली हुई कहना। लग्न की राशि के वर्ण सदृश बत्ती का रंग कहना । लाल १, सफेद २. हरा ३. तांबे के सदृश ४,धुपा के सदृश ५, पांड्रवर्ण ६. अनेक प्रकार का वर्ण ७, काला, सुवर्ण ६, पीला १०. धुपा ११ और पीत १२ । ये मेष आदि बारह राशियों के वर्ण हैं। पूर्ण चन्द्रमा हो तो दीपक में पूर्ण तेल कहना । मध्य चंद्रमा हो तो प्राधा तैल और क्षीण चंद्रमा हो तो अल्प तेल कहना। यह योग कृष्णपक्ष में अमावास्या आदि में नहीं बन सकता, जिसे चंद्रमा जिस राशि के हो उसके बीते हुए अंशों के अनुसार तेल कहना। चंद्रमा यदि राशि की प्रादि में हो तो पूर्ण तैल, मध्य में हो तो प्राधा और अंत में हो तो थोड़ा तेल कहना ॥१७॥ अथ भुतिकासंख्या स्वरूपादिज्ञानमाह यावन्तः शशिलग्नान्त-ग्रहास्तत्संख्यसूतिका: । मध्येऽद्ध मध्यगा बाह्य बाह्यास्तत्समलक्षणाः॥१८॥ ग्रहा यावन्तो यावत्संख्या शशिलग्नान्तः शशिलग्नयोरन्तर्मध्ये भवन्ति, तत्संख्या सूतिकास्तेषां संख्यया संख्या यासां तावत्संख्या सूतिकाः समीपस्थाः स्त्रियो वाच्याः । द्वित्रिचितुःपञ्चषष्ठसप्तमराशयो लग्नस्यानुदिता भावाः, एतेऽदृश्यं नाम मध्यवामार्द्ध दक्षिणांगं नाम चोत्तरसंज्ञं च द्वितीयं नाम । तत्रस्थैमध्याई स्थितैर्मध्यगा गृहमध्यगा वाच्या: । अष्टमधर्मकर्मलाभव्यया लग्नस्योदिता भागाएते दृश्यादृश्यं नाम वामदक्षिणसंज्ञा च। लग्नस्य वामांगं नामाद्ध बाह्य तत्रस्थैर्वाह्य ऽद्ध स्थितर्बाह्याः गुविण्या वामभागगता कथ्याः। ये लग्नस्यामुदितभावास्ते सप्तमराशेरुदितभावाः। तथा ये लग्नस्योदितभागास्ते सप्तमराशेरनुदित भावा ज्ञेयाः । किं विशिष्टास्तास्तत्सम लक्षणास्तेषां ग्रहाणां समानि लक्षणानि यासां ता जातिरूपवयोवर्णधातु लक्षणाभरणानि, तासां तेभ्यो ग्रहेभ्यो वाच्यानीत्यर्थः । अय लग्नात् षष्ठं यावन्मध्यमद्धम् । सप्तमाद् व्ययं यावद् बाह्यमद्ध ज्ञेयम् । क्रूरैस्तत्रार्द्ध स्थितैविरूपा मलिना निर्लक्षणा रौद्राऽभाग्याः। शुभैः सुरूपा गौराः साभरणा धामिका वाच्याः ।।१८।। चंद्रमा और लग्न के मध्य में जितने ग्रह हो, उतनी संख्या तुल्य सुतिका स्त्रियें कहना। लग्न से सातवां स्थान तक जितनी ग्रह संख्या हो उतनी स्त्रियां भीतर थी। और पाठ से बारहवाँ स्थान तक जितने ग्रह हों उतनी स्त्रियां बाहर थीं एसा कहना । अथवा दाहिनी तथा बांयी ओर थी ऐसा करना। उनका जाति रूप वयः वर्ण आदि ग्रहों के अनुसार कहे । यदि पाप ग्रह हो तो वेडोल (कुरूप) मलिन कुलक्षणी क्रोधी और अभागिनी कहना । यदि शुभ ग्रह हो तो स्वरूपवती गौरी शृगारवाली और धार्मिक स्त्रिये कहना ॥१८॥ "Aho Shrutgyanam"

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