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द्वितीय कल्लोलः
अथ भविष्यवरणादिज्ञानमाह
काष्ठशृङ्गन्यस्त्रभूनावाजोऽर्केन्द्वारबुधादिभिः ।
षष्ठे तत्र युते सद्भिर्वेक्ष्ये वा कृष्णबिन्दुकः ॥२८॥ अर्केन्द्वारबुधाकिभिः षष्ठे षष्ठगतैः अमात् तत्रांगे व्रणो भविष्यो भाष्यः । यथा-षष्ठे रवौ स्वदशांशगते काष्ठाच्चतुष्पदाद्वा वणः । तथा क्षीणेन्दौ शृगि प्राणितो जलयन्त्राद्वा । षष्ठे भौमे स्वदशांशगतेऽस्त्रतः शस्त्रादग्नितो वा विषाद्वा । एवं षष्ठे बुधे भूवो गर्तापाताल्लोष्ठकाद्वा। एवं षष्ठे शनौ ग्रावत: पाषाणाद्वा व्याधे: निगडाद्वा व्रणो भविष्यति । अथ तत्र व्रणकरे ग्रहे सद्भिः शुभैयु तेऽथवा
ष्टे कृष्णबिन्दक. कृष्णमशको घनलोमस्थानं वा कालपुरुषस्यावयवस्य षष्ठे यो राशिर्भवति तत्रांगेऽभिज्ञानम् ।।२।।
इति जन्मसमुद्रविवृतौ जन्मप्रत्ययलक्षणो द्वितीयकल्लोलः ।।२।।
यदि छठे स्थान में रवि हो तो रवि की दशा में काष्ठ या पशु आदि से, क्षीणचंद्रमा हो तो चंद्रमा की दशा में सींगवाले प्राणियों से या जलयंत्र से. मंगल हो तो मंगल की दशा में शस्त्र से या अग्नि से या विष से, बुध हो तो बुध की दशा में भूमि के खड्ड में गिरजाने से या ढेले से, शनि होवे तो शनि की दशा में पाषाण से या व्याधि से या बेड़ी आदि से घाव आदि होवे। इन घाव आदि करने वाले ग्रह शुभ ग्रह के साथ हो या उन पर शुभ ग्रह की दृष्टि पड़ती हो तो काले मश, तिल प्रादि चिह्न कहना ॥२८॥
इति श्रीनर चंद्रोपाध्याय विरचित जन्मसमुद्रके
जन्मज्ञान लक्षणनामका दूसरा कल्लोल
समाप्त।
"Aho Shrutgyanam"