Book Title: Janmasamudra Jataka
Author(s): Bhagwandas Jain
Publisher: Vishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch

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Page 73
________________ पंचम कल्लोलः अङ्गपे लग्ननाथे, अङ्गगे लग्नस्थे क्रमेण भादिमध्यान्तगे सति भं राशिस्तस्यादिमध्यान्तगे भूदेशग्रामपो भवति । तद्यथा - लग्नपे बलिष्ठे राश्यादौ गते लग्नस्थे भूपो राजा स्याज्जाति कुलदेशानुमानतः । एवं लग्नपतौ लग्ने राशिमध्यस्थे सति देशपतिः । एवं लग्नपे लग्नं राशिप्रान्तगते ग्रामपो ग्रामपतिः । प्रथाथवा इन्दोश्चन्द्रात् सौम्येषु शुभेषु स्वर्क्षगेषु स्वं स्वकोयं यद्ऋक्षं राशिस्तत्र गच्छन्तिस्म तेषु स्वकीय राशिगतेषु षट्ट्ट्याये रिपुसहजलाभानामेकतमस्थेषु ईशो राजा वा धनीश्वरः स्यात् ||८|| लग्न का स्वामी बलवान् होकर लग्न में रहा हो, वह यदि राशि की आदि में प्रथम दस अंश तक हो तो जातक जाति कुल और देश के अनुसार राजा होवे । राशि को मध्य में बीस प्रश तक हो तो देश का स्वामी और राशि के अन्त में २१ से ३० अंश तक हो तो ग्रामपति होवे । यदि चन्द्रमा से शुभ ग्रह अपनी राशि के होकर छठे, तीसरे या ग्यारहवें स्थान में रहे हों तो जातक राजा या धनपति होवे ||5|| - अथ योगद्वयमाह - उच्चेऽङ्गगे गुरौ ज्ञेन्दुशुकराये पदे रवौ । सूर्येऽजाङ्ग गुरौ धर्मे कुजे खे भवगे शनौ ॥६॥ ६१ गुरावङ्गगे उच्चे कर्कस्थे सति, ज्ञेन्दुशुः, आये लाभस्थैः कृत्वा पदे कर्मस्थे च रवौ राजा । प्रथाजाङ्ग मेषलग्नस्थे सति सूर्ये सूर्यप्रत्यासन्नत्वादर्थान्तराच्चन्द्रे च सति, गुरौ धर्मस्थे च सति नवमे च, कुजे खे दशमस्थे च शनौ भवगे लाभस्थे यो जातः स राजा भवति ॥६॥ कर्क राशि पर गुरु उच्च का होकर लग्न में रहा हो, तथा बुध, चन्द्रमा और शुक्र ये ग्यारहवें स्थान में हो और सूर्य दसवें स्थान में हों तो जातक राजा होता है । अथवा सूर्य मेष राशि का होकर लग्न में रहा हो तो, तथा गुरु नवें स्थान में, मंगल दसवें स्थान में और शनि ग्यारहवें स्थान में रहा हो तो राजा होता है ॥६॥ अथ द्वात्रिंशद् राजयोगानाह तुङ्गङ्गऽर्के गुरौ वाकौं चारे च स्वर्क्षगे विधौ । स्वांशेऽङ्ग वा विधौ दृष्टे निश्चन्द्र इचतुरादिभिः ॥ १० ॥ अर्कोऽङ्ग े लग्नस्थे उच्चस्थे, च शब्दाद् गुरौ वार्को शनौ च प्रारे कुजे वान्यत्र राशौ गते सति, एषां मध्यादेकैकस्मिन् लग्नगे उच्चे चत्वारो राजयोगा भवन्ति । वा शब्दादेषां मध्यादेकस्मिन् लग्नगे त्रिभिः कृत्वा द्वादशयोगा भवन्ति । वा शब्दात् तेषां चतुर्णा मध्याद् द्वाभ्यां द्वाभ्यां कृत्वा तयोर्मध्यादेकस्मिन् "Aho Shrutgyanam"

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