Book Title: Janmasamudra Jataka
Author(s): Bhagwandas Jain
Publisher: Vishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch

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Page 88
________________ ७६ अथ दम्पतीकारणत्व एकपुत्रत्वज्ञानमाह काणः पत्न्या सहार्केन्द्रोर्व्ययारौ वैकनन्दनः । एकाङ्गा स्त्री सुते वास्ते धर्मे वा सूर्यशुक्रयोः ||३|| अर्केन्द्रोव्ययारौ व्ययषष्ठस्थयोः क्रमेण पत्न्या स्त्रिया सह कारण एकाक्षः । अथार्केन्द्वोः सूर्यचन्द्रयोर्व्ययस्थयोरथ षष्ठस्थयोर्वाथवा द्वर्योर्व्ययषष्ठस्थयोर्वा एकनन्दनः एकापत्यः । वाथवा सूर्यशुक्रयोः सुते पञ्चमस्थयोर्वाथवाऽस्ते सप्तमस्थयोर्वाथवा धर्मे नवमस्थयोः स्त्री भार्या एकाङ्गा एकाङ्गहोना तस्य भवति ॥३॥ सूर्य और चन्द्रमा इन दोनों में से एक छठे स्थान में और दूसरा बारहवें स्थान में हो या दोनों एक साथ छठे या बारहवें स्थान में हों तो स्त्री के साथ पुरुष कारणा होवे अथवा एक संतान होवे । एवं सूर्य और शुक्र ये दोनों पांचवें स्थान में या सातवें स्थान में या नवें स्थान में हों तो एक अंग से हीन स्त्री होवे ||३|| अथ स्त्रं शुभ अशुभाचेति ज्ञानमाह - जन्मसमुद्रः मूर्वेन्दोः स्मरे चैक - द्वित्रिपुष्टशुभेषु सा । वेष्टवर्गेऽथ वेशेक्ष्ये स्त्री भव्येत्थं खलेषु न ॥४॥ मूर्त्तेर्जन्मलग्नाद् वाथवेन्दोश्चन्द्रात् स्मरे सप्तमे एकद्वित्रिपुष्टशुभेषु एको द्वौ वा त्रयो वा चत्वारो वा पुष्टा ये शुभास्तेषु स्मरस्थेषु सा भार्या तस्य भव्या प्रधाना । वाथवात्र सप्तमस्थे इष्टवर्गे शुभषड्वर्गे सति, वाथवा ईशेक्ष्ये स्वामिदृष्टे सप्तमे धार्मिका गुणयुक्ता स्त्री । अर्थान्तरात् सप्तमस्थ व गंपतिस्वभावाः सप्तमाधिपांशतुल्या भार्या भवन्ति ग्रहवीक्षरणाद् वेति गुरूपदेशोऽयम् । सर्वत्रेत्थं पूर्ववत् । खलेषु पापेषु स्मरे सप्तमस्थेषु वाथवा वर्गे सप्तमस्थे यस्य पापस्य सक्ते तेनेक्ष्ये दृष्टे सति नाभीष्टा न भव्या । अर्थवशाद् मिश्रः सप्तमस्थैः पापिनी कलहिनी धार्मिका सुशीला च ||४|| लग्न से अथवा चन्द्रमा से सातवें स्थान में बलवान शुभ ग्रह हो तो पुरुष को उत्तम स्त्री मिले । श्रथवा सातवें स्थान को शुभ ग्रह या सातवें स्थान का स्वामी देखते हों, या सातवां स्थान शुभ ग्रह के षड्वर्ग में हो तो उत्तम स्त्री मिले । एवं सातवें स्थान में पाप ग्रह हो या पाप ग्रह देखते हों या पाप ग्रह के षड्वर्ग में हो तो अच्छी स्त्री न मिले । यदि मिश्र ग्रह सातवें स्थान में हो तो मिश्र स्वभाववाली मिले ॥४॥ श्रथ योगान्तरमाह एकार्कारांशगौ ज्ञेज्यौ वात्रार्कोन्दू परप्रिया । शुक्रेज्यौ तु स्ववर्णान्द्वाराकैरन्यवणंजा ॥५॥ "Aho Shrutgyanam"

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