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तृतीय कल्लोलः
पूर्णेन्दुः शुभांशे शुभस्य यद्भ राशिस्तत्रस्थः शुभांशस्थो वा सन् रिष्टहा। वाथवा सम् शुभ. शुभराशिस्थः शुभांशस्थो वा रिष्टहा । वा इन्दुः शुभान्तरे शुभद्वयमध्यस्थो रिष्टहा । षट् त्रये वा इन्दोश्चन्द्रात्सौम्याः शुभाः। अथवा भेशाद् राशिनां पाद् लग्नेशाद् वा पूर्णचन्द्रः भूपचयस्थोऽपि चतुर्थविषट्दशैकादशानामेकतम स्थोऽपि रिष्टहा । षट्सप्ताष्टमानामेकतमस्था यदि भवन्ति तथा रिष्टं न स्यात् । यतोऽसावधियोगोनाम राजयोगः सप्तप्रकारः स्यात् । तद्यथा-यदा चन्द्रात् षष्ठे सर्वे शुभास्तदैकः प्रकारः । सप्तमे द्वितीयः । अष्टमे तृतीयः । एतेऽपि यदि षष्ठसप्तमस्थास्तदा चतुर्थः। षष्ठाष्टमस्था यदि तदा पंचमः । सप्ताष्टमस्थास्तदा षष्ठः। षष्ठसप्ताष्टमस्था प्रत्येकं यथासम्भवं तदा सप्तमो भेदः । एवं लग्नादेषु योगेषु पापादृष्टेषु सप्तसु जातो दण्डनायको मंत्री राजा । अन्यकुलजाता अतिसौख्यैश्वर्यसम्पन्ना हतशत्रवो दीर्घायुषो निरोगा निर्भया भवन्ति । अथवा लग्नाच्चन्द्राद्वा सौम्यस्त्रिभिरुपचयस्थैर्धनाढयः। अथवा द्वाभ्यामुपचयस्थाभ्यां शुभाभ्यां मध्यधनः । एकस्मिनुपचयस्थेऽल्पधनः । लग्नाच्चन्द्राद्वा यस्य जन्मनि उपचये शुभः कोऽपि न स्यात् तदा स दरिद्रः। अथ चन्द्र स्वांशे स्वमित्रांशे वा यत्र तत्र राशौ स्थिते सत्यथवा दृश्यार्द्ध स्थे चन्द्र गुरुदृष्टे सति दिवाजातो धनी ईश्वरः सुखी । अदृश्यार्द्धस्थे चन्द्र रात्रिजातो निर्द्ध नो दुःखी। अथैवंविधे अदृश्याद्धस्थे चन्द्र शुक्रदृष्टे रात्रिजातो महाधनी, दिवाजातो दरिद्रः । अथ सूर्याच्चन्द्र केन्द्रस्थे विनयनयधीधनशीलादिभिः रहितः। पणफरस्थचन्द्र गुणैरेतैर्मध्यमः । आपोक्लिमस्थे चन्द्रऽमीभिर्गुणैः सम्पन्नो विनयी धनी धीमानित्यर्थः । चन्द्रान्निधियोगफलमन्यशास्त्रात् प्रसङ्गागतमानीय व्याख्यातम् ।।६।।
पूर्ण चन्द्रमा शुभ ग्रह की राशि में या उनके नवमांश में हो तो अरिष्ट का भंग हो जाता है । एवं शुभ ग्रह शुभ ग्रह की राशि में या उनके नवमांश में हो तो अरिष्ट का नाश कहना । अथवा चन्द्रमा शुभ ग्रह के मध्य में हो तो अरिष्ट का नाश कहना। अथवा चन्द्रमा से तीसरे या छठे स्थान में शुभ ग्रह हो तो अरिष्ट योग का नाश । जिस राशि पर चन्द्रमा हो उस राशि के स्वामी से या लग्न राशि के स्वामी से चौथे, तीसरे, छठे, दसवें या ग्यारहवें स्थान पर चन्द्रमा हो तो अरिष्ट का नाश कहना। अथवा चन्द्रमा से छठे, सातवें या पाठवें स्थान पर शुभ ग्रह हो तो अरिष्ट योग नहीं होता । इसी से सात प्रकार के राजयोग होते हैं, ये इस प्रकार हैं-(१) चन्द्रमा से शुभ ग्रह छठे, (२) सातवें, (३) पाठवें, (४) छठे और सातवें स्थानों में, (५) छठे और पाठवें स्थानों में (६) सातवें और पाठवें स्थानों में, (७) छठे, सातवें और आठवें स्थानों में हो तो अरिष्ट योग नहीं होता राज योग होता है । इस प्रकार लग्न से भी सात प्रकार के उपरोक्त योग होते हैं, उन पर यदि पाप ग्रह की दृष्टि न हो तो जातक दंडनायक, मंत्री या राजा होवे । नीच कुल में जन्म लेने पर भी बहुत
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