Book Title: Janmasamudra Jataka
Author(s): Bhagwandas Jain
Publisher: Vishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch

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Page 46
________________ ३४ जन्मसमुद्रः दीर्घमङ्गगाः । ये त्वन्ये राशयो मध्यं प्राहुर्वर्णस्व वर्णतः ॥” इति ह्रस्वदीर्घमध्यराशिस्वरूपमुक्तम् ।।२५-२६।। अब लग्न के द्रेष्कारणों से बालक के शरीर के अंगविभाग बतलाते हैं-लग्न यदि प्रथम द्रेष्कारण में हो तो लग्न की राशि मस्तक, दूसरा और बारहवां स्थान नेत्र, तीसरा और ग्यारहवां कान, चौथा दशवां नाशिका, पांचवां नववां गाल छट्टा आठवां ठोडी और सातवां स्थान की राशि मुख जानना । लग्न यदि दूसरे द्र ेष्काण में हो तो लग्न की राशि कंठ, दूसरा बारहवां स्कंध, तीसरा ग्यारहवां भुजा, चौथा दशवां बगलभाग, पांचवां नववां हृदय, छठा आठवां पेट, और सातवां स्थान की राशि नाभि समझना । लग्न यदि तीसरे कारण में हो तो लग्न की राशि बस्ति (लिंग और नाभी का मध्य भाग), दूसरा बारहवां लिंग और गुदा, तीसरा ग्यारहवां अंडकोश, चौथा दशवां ऊरू, पाँचवां नववां जानु, छट्टा आठवां जंघा और सातवां स्थान की राशि पैर समझना । इसी प्रकार द्रेष्कारण पर से बालक का अंग विभाग समझना । इनमें लग्न से सातवां स्थान तक दाहिनी ओर के अंग, तथा आठवें से बारहवां स्थान तक बाँयें अंग जानना । इन स्थानों में जो राशि ह्रस्व हो तो वह अंग ह्रस्व, दीर्घं हो तो वह अंग दीर्घ श्रौर मध्यम हो तो वह अंग मध्यम कहना । कुंभ मीन मेष और वृष ये ह्रस्व राशि है । सिंह, कन्या, तुला और वृश्चिक ये दीर्घं राशि है । मिथुन कर्क धन और मकर ये मध्यम राशि है ।। २५-२६॥ अथाङ्गगतलाञ्छनक्षतज्ञानमाह - तत्र भागे सपापेऽस्य व्रणो राशिसमाङ्गगः । स्वक्षशस्थिर भांशस्थे शुभे तु सहजो मषः ||२७|| तत्र भागे लग्नप्रथमादिद्र ेष्कारणोक्ताङ्गराश्युपलक्षिते दक्षिणे वामे सपापे `पापैर्यु ते व्रणो वाच्यः । किं विशिष्टः राशिसमांगगः । तद्यथा - कालपुरुषस्य योऽङ्ग राशिस्तस्य राशेः सम सदृशं यदंगं तत्रांगे तत्रावयवे गतः सञ्जातो वाच्यः । परं तत्र विभागे शुभैर्यु ते दृष्टे वा मशकादिचिह्न तु पुनस्तत्र विभागेऽवयवस्थशुभे, तु शब्दादशुभे ग्रहे वा स्वर्क्षशस्थितभांशस्थे स्वराशिस्वांश स्थिरांशानामन्यतमस्थे मशकादिचिह्न सहजं चिन्त्यम् । अर्थान्तरादेवं मित्रराशिमित्रांश शत्रु राशिशत्रुनवांशचर राशिचरनवांशानामेकतमस्थे भविष्यं लशुनम् ||२७|| जिस लग्नराशि के द्र ेष्कारण में पापग्रह हो, उसी राशि के अनुसार दाहिने या बांयें अंग में व्ररण (घाव) आदि कहना । परन्तु शुभ ग्रह हो या शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो मस आदि चिह्न कहना । अथवा कोई ग्रह अपनी राशि का या अपने नवमांश का, स्थिर राशि का या स्थिर के नवांश का हो तो भी मस तिल आदि चिह्न समझना । इसी प्रकार मित्र राशि का या मित्र के नवांश का, शत्रु राशि के या शत्रु के नवाँश का चर राशि का या चर के नवांश का जो ग्रह हो उसकी राशि के अनुसार अंग में लाखा, मस, तिल आदि चिह्न कहना ||२७| " Aho Shrutgyanam"

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