________________
जन्मसमुद्रः
केन्द्र में रहे हुए ग्रहों में से जो ग्रह बलवान् हो, वह दिशा का अधिपति जानना । यह जिस दिशा का पति हो उस दिशा में सुतिका के घर का द्वार कहना। सूर्य शुक्र मंगल राहु शनि चंद्रमा बुध और गुरु ये क्रम से पूर्वादिदिशा के अधिपति हैं। अथवा पूर्वदिशा का बुध और गुरु, दक्षिण का मंगल और रवि, पश्चिम का मकर शनि और उत्तर का शुक्र और चंद्रमा स्वामी हैं। केन्द्र में यदि कोई ग्रह न हो तो लग्न की राशि की दिशा से सुतिका के घर के द्वार का निर्णय करना। जैसे लग्न यदि मेष सिंह या धन राशि का हो तो पूर्वाभिमुख, वृष कन्या या मकर का हो तो दक्षिणाभिमुख, मिथुन तुला या कुभ का हो तो पश्चिमाभिमुख और कर्क वृश्चिक या मीन राशि का हो तो उत्तराभिमुख द्वार कहना। अथवा लग्न के द्वादशांश की राशि की दिशा में द्वार कहना। अन्य शास्त्रों में कहा है कि-मेष तुला वृश्चिक या कुम्भ का द्वादशांश हो तो पूर्वाभिमुख धन मीन मिथुन या कन्या का द्वादशांश हो तो उत्तरमुख, वृष लग्न हो या वृष का द्वादशांश हो तो पश्चिममुख और सिंह या मकर का द्वादशांश हो तो दक्षिण द्वार कहना । सूर्य जिस राशि पर हो उसी राशि की दिशा में दीपक कहना। अन्य शास्त्र में कहा है कि-मेष या वृष का सूर्य हो तो पूर्व दिशा में, मिथुन का सूर्य हो तो अग्नि कोण में, कर्क या सिंह का सूर्य हो तो दक्षिण में, कन्या का सूर्य हो तो नैऋत्य में, तुला या वृश्चिक का सूर्य हो तो पश्चिम में, धन का सूर्य हो तो वायव्य कोण में, मकर या कुम्भ का सूर्य हो तो उत्तर में और मीन का सूर्य हो तो ईशान कोण में दीपक कहना । सूर्य यदि चर राशि का हो तो किसी के हाथ में दीपक कहना । स्थिर राशि का हो तो किसी स्थान पर स्थिर रखा हया कहना और द्विस्वभाव राशि का हों तो चलायमान धारण किया हुआ दीपक कहना ॥१६॥ अथ दीपवत्तितैलास्तित्वयोनिमाह
लग्नादि मध्यान्ते दग्धाङ्गवर्णां वत्तिकाऽध्वना ।
सम्पूर्णादौ तु राश्यादौ चन्द्र तैलभृतादिकः ॥१७॥ दीपस्य वत्तिका वत्तिरध्वना मार्गेण लग्नादिमध्यान्त्ये सति दग्धा कथ्या । तद्यथा-जन्मकाले लग्नादौ लग्नस्यादौ धुरि मुखे दग्धाऽल्पदग्धेत्यर्थः । लग्नस्य मध्येऽर्द्ध दग्धा, लग्नस्यान्तेऽवसाने सर्वदग्धावत्तिः । सा कीदृशीवत्तिः ? अङ्गवर्णा अङ्ग लग्नं तस्य वर्णो यस्याः सांगवर्णा । तद्यथा-रक्तश्वेत हरित्ताम्र धूम्रपाण्डुर विचित्रभाः, कृष्णसूवर्णपोतधूम्रपिंगा वर्णा अजादितः । इत्थं राशिवर्ण उक्तः । स दीपस्तैलभृतादिकोऽध्वना मार्गेण कथ्यः। चन्द्र पूर्णादौ पूर्णतैलभृतो दीपः । आदितः आदि शब्दान्मध्यपूर्णेऽर्द्ध भृतः । क्षीणे चन्द्रऽल्पतैलः । यद्यैवं व्याख्यातं, ततो यद्यमावास्यायां जन्मान्धकारे स्यात् तन्न घटते । यतोऽयुक्तमिदमत्रार्थे समाधानमवधार्यताम् । तु पुनश्चन्द्र राश्यादौ सति तैलभृतादिकः कल्प्पः । तद्यथा-यत्र तत्र राशौ चन्द्र राश्यादिस्थे तैलपूर्णो दीपः, राशिमध्येऽर्द्ध पूर्णः, राशिप्रान्त्ये क्षीणतैलो दीपो वाच्यः ।।१७।।
"Aho Shrutgyanam"