Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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कि संदैव के लिये " अहिसा ही धर्म की जननी है" यह सर्वोत्तम और स्था - सिद्धान्त स्वीकार कर लिया गया । जैन धर्म की इस अमल्य और सर्वोत्कृष्ट देन के कारण हो ईसाई, मुस्लिम, आदि इतर धर्मों मे भी अहिंसा की प्रकाश युक्त किरणें प्रविष्ट हो सकी है
जैन - संस्कृति सदैव अहिंसावादिनी, सूक्ष्म प्राणी की भा रक्षा करने वाली और मानव-जीवन के विविध क्षेत्रो मे भी अहिंसा का सर्वाधिक प्रयोग करने वाली रही है । इम दृष्टिकोण से जैन धर्म ने जीव विज्ञा का अति सूक्ष्म और गंभीर अध्ययन योग्य विवेचन किया है । जो कि विश्व साहित्य का एक सुन्दर, रोचक तथा ज्ञान-वर्धक अध्याय है ।
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इस प्रकार निष्कर्ष यह है कि जैन धर्म की अहिंसा सवधी देन की तुलन विश्व साहित्य में बार विश्व संस्कृति में इतर सभी धर्मो की देनो के साथ नही की जा सकती है । क्योकि अहिंसा सवधी यह देन वेजोड है, असाधारण और मौलिक है । यह उच्च मानवता एव सरस सात्विकता को लाने वाली है । यह देन मानव को पशुता से उठा कर देवत्व की ओर प्रगति कराती है अतः मानव इतिहास में यह अनुपम और सर्वोत्कृष्ट देन है ।
आजके युग के महापुरुष, विश्व-विभूति, राष्ट्रपिता पूज्य गाधी जी के व्यक्तित्व के पीछे भी इसी जैन सस्कृति से उद्भूत अहिंसा की शक्ति है छिपी हुई थी, इसे कौन नही जानता है ?
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जैन धर्म का मानव-व्यवहार
अहिंसा के महान् व्रत और असाधारण सिद्धान्त का मानव जीव के लिये व्यवहारिक तथा क्रियात्मक रूप देने के लिये दैनिक क्रियाओ सबको और जीवन सवधी अनेकानेक नियमो तथा विधि विधानो का भी जैनधर्म ने सस्थापन और समर्थन किया है । जिन्हे बारह व्रत एवं पंच महाव्रत
मनुष्य जाति में
भी कहते है । जिनका तात्पर्य यही है अच्छी वृत्तियो का, अच्छे गुणो का और उच्च इस प्रकार मानव - शांति बनी रहे और सभी को
कि सम्पूर्ण गृहस्थ धर्म का विकास हो !
अपना अपना विकास करते
का सुन्दर एवं समुचित सयोग प्राप्त हो ।