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जैनविद्या
- अपने इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने स्थान-स्थान पर शास्त्रभण्डारों की स्थापना की। जैसलमेर, नागौर, दिल्ली, मालपुरा, मौजमाबाद आदि स्थानों के शास्त्रभण्डार उनकी इस ही प्रवृत्ति का परिणाम है । जयपुर के जैन मन्दिरों में भी इस प्रकार के शास्त्रभण्डार हैं जिनमें हजारों जैन तथा जैनेतर ग्रंथ प्राप्य हैं ।
यद्यपि जैनों का मुख्य लक्ष्य निर्वेद अथवा निर्वाण प्राप्ति रहा है। किन्तु साहित्यनिर्माण के क्षेत्र में भी उन्होंने अपने अनाग्रही स्वभाव का परिचय दिया है। शृंगार, कला, ज्योतिष, चिकित्सा, निमित्त ज्ञान, गद्य, पद्य आदि विभिन्न साहित्य-विधाओं में उन्होंने साहित्य निर्माण किया एवं अपने भण्डारों में उनको बिना किसी धर्म अथवा संस्कृति के प्राग्रह के सुरक्षित रखा । दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी स्थित जैनविद्या संस्थान के पाण्डुलिपि विभाग में भी इसी प्रकार कई भाषाओं एवं कई विधानों के ग्रंथ संगृहीत एवं सुरक्षित हैं।
धर्म प्रचार, प्राचीन साहित्य संरक्षण एवं नवीन साहित्य निर्माण के जो कार्य उपरि उल्लिखित संस्थाएं करती थीं लगभग वही कार्य विभिन्न स्थानों पर संस्थापित शोध संस्थान कर रहे हैं । जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी भी ऐसी एक संस्था है और जैन विद्या पत्रिका का प्रकाशन उसकी कई महत्त्वपूर्ण गतिविधियों में से एक है। हमें प्रसन्नता है कि हमारे इन प्रयासों का प्रबुद्ध एवं जागरूक जनता द्वारा आशातीत स्वागत हुआ है एवं इस पुनीत प्रयास में विद्वानों का भी हमें पर्याप्त सहयोग मिला है जिसके बिना इस कार्य में प्रगति असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य थी।
जिन लेखकों के लेख हमें प्राप्त हुए हैं वे धन्यवादाह हैं, आशा है भविष्य में भी हमें उनका इसी प्रकार सहयोग मिलता रहेगा। पत्रिका के सम्पादक एवं सह-सम्पादक गण भी सम्पादन में किये गये सहयोग के लिए धन्यवाद के पात्र हैं। जर्नल प्रेस के प्रोप्राइटर ने अपने अन्य सहयोगियों के साथ पत्रिका के मुद्रण को जो शुद्ध और कलापूर्ण स्वरूप प्रदान किया है उसके लिए हम उनके आभारी हैं ।
नरेशकुमार सेठी प्रबन्ध-सम्पादक