Book Title: Jain Vidya 05 06
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 10
________________ प्रकाशकीय यह 'जनविद्या' पत्रिका का पंचम विशेषांक है। इससे पूर्व चार विशेषांक पाठकों तक पहुंच चुके हैं-1. महाकवि स्वयंभू विशेषांक, 2. महाकवि पुष्पदन्त विशेषांक, खण्ड एक 3. महाकवि पुष्पदन्त विशेषांक, खण्ड दो तथा 4. महाकवि धनपाल विशेषांक । साहित्य जगत् में इन विशेषांकों का जो स्वागत-सत्कार हुमा उससे प्रेरित और उत्साहित होकर यह पंचम अंक भी महाकवि वीर पर विशेषांक के रूप में ही प्रकाशित करने का निश्चय किया गया । फलस्वरूप अपभ्रंश भाषा के महाकवियों पर संस्थान द्वारा प्रकाशित विशेषांकों की शृंखला में यह एक और कड़ी जुड़ रही है । जैन चाहे वे साधु हों, सन्त हों, भट्टारक हों, गृहत्यागी अथवा गृहस्थ हों केवल चिन्तन-मनन के क्षेत्र में ही समन्वयवादी या वर्ण, जाति, वर्ग आदि के भेदभाव से दूर नहीं रहे हैं अपितु कर्मक्षेत्र में भी उन्होंने अपनी इस विशेषता को बनाये रखा है। साहित्यिक क्षेत्र में भी अपने इस सांस्कृतिक वैशिष्ट्य को उन्हों कम नहीं होने दिया । किसी भाषा विशेष या साहित्यिक विधा से उन्होंने अपने आपको बांधे नहीं रखा। आर्य भाषा संस्कृत एवं अनार्य भाषा तमिल, तेलुगू, आदि शिष्ट भाषा एवं लोकभाषा गुजराती, राजस्थानी, बंगाली आदि में उनकी लेखनी समान रूप से चली । अपने प्राराध्य तीर्थंकरों द्वारा प्रचलित लोकभाषा में उपदेश देने एवं साहित्य निर्माण करने की परिपाटी को उन्होंने आगे बढ़ाया। जब भी और जहां भी जिस भाषा का वर्चस्व उन्होंने पाया उसी भाषा को उन्होंने अपने साहित्य निर्माण का माध्यम बनाया। इसीलिए आदिकाल से लेकर आज तक प्रचलित लोकभाषाओं के परिवर्तन-परिवर्द्धन की जो शृंखलाबद्ध जानकारी जैनशास्त्र भण्डारों में उपलब्ध है वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस उपलब्धि का सबसे बड़ा कारण है अपनी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा के प्रति जैनों की जागरूकता । प्राचीन जैन अथवा जैनेतर साहित्य की जब भी कोई जीर्ण-शीर्ण प्रति उनके हाथ लगती, वे उसका जीर्णोद्धार करवाते, उनकी नई प्रतिलिपियां स्वयं करते अथवा अन्यों से करवाते और उन्हें शास्त्रभण्डारों में विराजमान करवा देते । भट्टारक काल में तो यह प्रवृत्ति इतनी अधिक थी कि एक-एक भट्टारक के नीचे कई-कई प्रतिलिपि लेखक, जो पाण्डे अथवा पण्डित कहलाते थे और जो धार्मिक अनुष्ठान प्रतिष्ठा, विधिविधान प्रादि के सम्पन्न कराने का कार्य भी करते थे, ग्रंथ प्रतिलिपिलेखन के कार्य पर नियुक्त थे। अकेले जयपुर में ही ऐसे पण्डितों की संख्या एक समय इक्यावन तक पहुंच गई थी।

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