Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 11
________________ गगन मण्डल में उड़ जाऊं तीन लोक के तीर्थ क्षेत्र सब बदन कर आऊँ ।गगन ॥१॥ प्रथम श्री सम्मेद शिखर पर्वत पर मैं जाऊँ। बीस टोंक पर बीस जिनेश्वर घरण पूज ध्याऊँ गगन ।।२।। अजित आदि श्री पार्श्वनाथ प्रभु की महिमा गाऊँ। शाश्वत तीर्थराज के दर्शन करके हऊँ गगन ।।३।। फिर पदारगिरि पावापुर वासुपूज्य ध्याऊँ। हुए पंच कल्याणक प्रभु के पूजन कर आऊँ गगन ।।४।। उर्जयत गिरनार शिखर पर्वत पर फिर जाऊँ। नेपिनाथ निर्वाण क्षेत्र को बन्दूँ सुख पाऊँ गगन ।।५।। फिर पावापुर महावीर निर्वाण पुरी जाऊँ। जल मंदिर में चरण पूजकर नाचूं हर्षाऊ गगन ।।६।। फिर कैलाश शिखर अष्टापद आदिनाथ ध्याऊँ।। ऋषभदेव निर्वाण धरा पर शुद्ध भाव लाऊँ गगन ।।७।। पच महातीर्थों की यात्रा करके हाऊ। सिद्ध क्षेत्र अतिशय क्षेत्रों पर भी मैं हो आऊँ गगन ।।८।। तीन लोक की तीर्थ वदना कर निज घर आऊँ । शुद्धातष से कर प्रतीति मैं समकित उपजाऊँ । गगन ।।९।। फिर रत्नत्रय धारण करके जिन मुनि बन जाऊँ। निज स्वभाव साधन से स्वामी शिव पद प्रगटाऊँ गगन ।।१०।। सिद्धों के दरबार में हमको भी बुलवालो, स्वामी, सिदो के दरबार में ।। जीवादिक सातों तत्वों की, सच्ची श्रद्धा हो जाए। भेद ज्ञान से हमको भी प्रभु, सम्यक्दर्शन हो जाए । मिथ्यातप के कारण स्वापी, हप डूबे ससार में ।। हमको भी बुलावालो स्वामी ॥१॥ आत्म द्रव्य का ज्ञान करें हम, निज स्वभाव में आ जाएँ । रत्नत्रय की नाव बैठकर, मोक्ष भवन को पा जाएं । पर्यायों की चकाचौंध से, बहते हैं मझधार में ।। हमको भी बुलवालों स्वामी ॥२॥

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