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अंग प्रविष्ट कहलाते है। इन्हें द्वादशांगी भी कहते हैं। त्रिपदी के बिना जो मुक्त व्याकरण से रचनाएं होती है वे चाहे गणधर कृत हो या स्थविर कृत, अंग बाह्य कहलाती हैं। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के अंगप्रविष्ट के तीन हेतु बतलाये है। 1. जो गणधर के द्वारा सूत्र रूप से बनाया हुआ होता है। 2. जो गणधर के द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थंकर के द्वारा प्रतिपदित होता है। 3. जो शाश्वत सत्यों से संबंधित होने के कारण ध्रुव एवं सुदीर्घकालीन होता है। अथवा जो श्रुत सदा एक रूप रहता है। बारह अंगों के नाम और उनका संक्षिप्त विवेचन :1. आचारांग
7. उपासकदशा 2. सूत्र कृतांग
8. अन्तकृत्दशा 3. स्थानांग
9. अनुत्तरोपपतिकदशा 4. समवायांग
10. प्रश्न व्याकरण 5. व्याख्या प्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र) -
11. विपाकश्रुत 6. ज्ञाता धर्म कथा
12. दृष्टिवाद वर्तमान समय में बारहवां अंग दृष्टिवाद विच्छेद हो गया है। इस समय ग्यारह अंग ही प्राप्त हैं। 1. आचारांग :महापुरुषों द्वारा सेवन की गई ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना को आचार कहते हैं और उस आचार का प्रतिपादन करने वाला आगम आचारांग है। इसे सब अंगों का सार माना गया है। यह दो श्रुतस्कन्धो में विभक्त है। इसमें श्रमण आचार का विस्तार से व मार्मिक वर्णन किया गया है। इसमें बड़े ही गहन साधनासूत्र समाए हुए है। प्रथम श्रुतस्कंध के नवें अध्ययन में भगवान महावीर स्वामी की साधना का बडा मार्मिक वर्णन पाया जाता है। 2. सूत्रकृतांग :प्रस्तुत आगम द्वादशांगी का दूसरा अंग हैं। इस आगम के तीन नाम उपलब्ध होते है। 1. सूत गड - सूत कृत 2. सूत कड - सूत्र कृत 3. सूय गड - सूचाकृत
प्रस्तुत आगम श्रमण भगवान महावीर से सूत रूप उत्पन्न है और अर्थ रूपमें गणधर द्वारा कृत है। इसलिए इसका नाम सूतकृत है।
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