Book Title: Jain Dharm Darshan Part 05
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 106
________________ जगासस संस सिसपना मरणार 2. धर्म के प्रभाव से परलोक में मैं देव अथवा इंद्र बनूँ इत्यादि सुख की वांछा करना यह दूसरा अतिचार है। 3. अनशन करने के बाद भक्तजनों द्वारा किया हुआ अपना महोत्सव देखकर, सत्कार, सम्मान, बहुमान, वन्दनादि देखकर, धार्मिक लोगों द्वारा की हुई अपने गुणों की प्रशंसा सुनकर अधिकार जीवित रहने की आसंसपल इच्छा करना यह तीसरा अतिचार ससप्प ___4. कठिन स्थान पर अनशन करने से, ऊपर कहे हुए OE बहुमान सत्कार आदि न होने से दुःख से घबरा कर, अथवा क्षुधादिक की पीड़ा आदि से जल्दी मरने की। इच्छा करना, यह चौथा अतिचार है। 5. मैं यहाँ से मरकर इस तप के प्रभाव से रूपवान, सौभाग्यवान, ऋद्धिमान आदि बनूं ऐसी कामभोग की इच्छा करना यह पांचवा अतिचार है। ये पांचों प्रकार के अतिचार मेरे मरणांत तक अर्थात् अंतिम श्वासोच्छवास तक न हों ऐसी भावना इस गाथा में की गई है। उपलक्षण से सब प्रकार के धर्मानुष्ठानों में इस लोक और परलोक संबंधी सब प्रकार की वांछा का त्याग करना चाहिये। क्योंकि आशंसा (वांछा) करने से उत्कृष्ट फल को बदले हीन फल की प्राप्ति होती है ||33|| (सब अतिचार मन, वचन, काया द्वारा होते हैं इसलिये इन लगे हुए अतिचारों का इन्हीं तीनों से प्रतिक्रमण करने को कहते हैं - ) काएण काइअस्स, पडिक्कमे वाइस्स वायाए । मणसा माणसिअस्स, सव्वस्स वयाइआरस्स ||34|| शब्दार्थ काएण - शुभ काय योग से। मणसा - शुभ मन योग से। काइअस्स - काया द्वारा लगे हुए। माणसिअस्स - मन द्वारा लगे हुए। पडिक्कमे - प्रतिक्रमण करता हूँ निवृत्त होता हूँ। सव्वस्स - सब। वाइस्स - वचन द्वारा लगे हुए योग से। वय - व्रत। वायाए - शुभ वचन योग से। अइआरस्स - अतिचार का क्रमशः। भावार्थ : बंध-बन्धादि अशुभ काम योग से लगे हुए व्रतातिचारों का तप तथा कायोत्सर्ग आदि रूप शुभ काययोग द्वारा प्रतिक्रमण करता हूँ। सहसा अभ्याख्यान आदि देने रूप अशुभ वचन योग में लगे हुए अतिचारों को मिथ्या दुष्कृतादि देने रूप शुभ वचन योग द्वारा प्रतिक्रमण करता हूँ। तथा शंका आदि से लगे Personal 94

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