Book Title: Jain Dharm Darshan Part 05
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 116
________________ सावध (प 9. नवमाँ सामायिक व्रत - सावज्जं जोगं पच्चक्खामि, जाव नियम, पज्जुवासामि, दुविहं, तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा, ऐसी मेरी सद्दहणा प्ररूपणा तो है सामायिक का अवसर आये, सामायिक करूँ तब फरसना करके शुद्ध होऊँ एवं नवमें सामायिक व्रत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तं जहा ते आलोउं-मणदुप्पणिहाणे, वयदुप्पणिहाणे, कायुदप्पणिहाणे, सामाइयस्स सइ अकरणया, सामाइयस्स अणवठ्ठियस्स करणया, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।। सावजं जोगं सावद्य (पापकारी) योगों का पच्चक्खामि प्रत्याख्यान करता हूँ। जाव नियमं पज्जुवासामि जब तक सामायिक के नियम का पालन करूँ तब तक। मणदुप्पणिहाणे मन से अशुभ विचार किये हों। वयदुप्पणिहाणे अशुभ वचन बोले हों। कायदुप्पणिहाणे शरीर से अशुभ कार्य किये हों। सामाइयस्स सइ-अकरणया सामायिक की स्मृति नहीं रखी हो। सामाइयस्स सामायिक को। अणवट्ठियस्स करणया अव्यवस्थित रूप से किया हो। 10. दसवाँ देसावगासिक व्रत - दिन प्रति प्रभात से प्रारंभ करके पूर्वादिक छहों दिशाओं में जितनी भूमिका की मर्यादा रखी है, उसके उपरान्त पाँच आश्रव सेवन निमित्त स्वेच्छा काया से आगे जाने तथा दूसरों को भेजन का पच्चक्खाण जाव अहोरत्तं दुविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा तथा जितनी भूमिका की हद रखी है उसमें जो द्रव्यादि की मर्यादा की है, उसके उपरान्त उपभोग परिभोग वस्तु को भोग निमित्त से भोगने का पच्चक्खाण जाव अहोरत्तं एगविहं तिविहेणं न करेमि, मणसा, वयसा, कायसा एवं दसवें देसावगासिक व्रत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तं जहा ते आलोउं-आणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे, सद्दाणुवाए, रूवाणुवाए, बहियापुग्गलपक्खेवे, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।। देसावगासिक जाव अहोरत्तं आणवणप्पओगे पेसवणप्पओगे मर्यादाओं का संक्षेप (कम) करना। एक दिन-रात पर्यन्त। मर्यादा किये हुए क्षेत्र से आगे की वस्तु को आज्ञा देकर माँगना। परिमाण किये हुए क्षेत्र से आगे की वस्तु को मँगवाने के लिए या लेन-देन करने के लिए अपने नौकर आदि को भेजना या सेवक के साथ वस्तु को बाहर भेजना। सीमा के बाहर के मनुष्य को खाँस कर या और किसी शब्द के द्वारा अपना ज्ञान कराना। सद्दाणुवाए PRANAMAN-104"

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