Book Title: Jain Dharm Darshan Part 05
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 115
________________ मोहरिए, संजुत्ताहिगरणे, उवभोगपरिभोगाइरिते, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।। आठवाँ अणट्ठादण्ड बिना प्रयोजन ऐसे काम करना जिसमें जीवों की हिंसा होती है। विरमण व्रत निवृत्ति रूप व्रत लेता हूँ। चउव्विहे अणट्ठा दंडे पण्णत्ते वे अनर्थ कार्य चार प्रकार के हैं। तं जहा जो इस प्रकार हैंअवज्झाणायरिये अपध्यान(आर्तध्यान, रौद्रध्यान) का आचरण करने रूप। पमायायरिये प्रमाद का आचरण करने रूप। हिंसप्पयाणे हिंसा का साधन। पावकम्मोवएसे पापकारी कार्य का उपदेश देने रूप। एवं आठवाँ अणट्ठादण्ड इस प्रकार के आठवें व्रत में अनर्थ दंड का। सेवन का पचक्खाण सेवन करने का त्याग करता हूँ। (सिवाय आठ आगार रखकर के जैसे) आए वा आत्मरक्षा के लिए। राए वा राजा की आज्ञा से। नाए वा जाति जन के दबाव से। परिवारे वा परिवार वालों के दबाव से, परिवार वालों के लिए। देवे वा देव के उपसर्ग से। नागेवा नाग के उपद्रव से। जक्खे वा यक्ष के उपद्रव से। भूए वा भूत के उपद्रव से। एत्तिएहिं इस प्रकार के अनर्थ दण्ड का सेवन करना पड़े तो। आगारेहिं आगार रखता हूँ। अण्णत्थ उपरोक्त आगारों के सिवाय। कंदप्पे कामविकार पैदा करने वाली कथा की हो कुक्कुइए भंड-कुचेष्ठा की हो मोहरिए मुखरी वचन बोला हो यानी वाचालता असभ्य वचन बोलना। संजुत्ताहिगरणे अधिकरण जोड़ रखा हो। उवभोगाइरित्ते उपभोग-परिभोग अधिक बढ़ाया हो। Tense T HAPA 1031

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