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श्री दीपावली महापर्व जैन इतिहास के अनुसार चौवीसवें तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण कार्तिक वदी अमावस्या की मध्य रात्रि में हुआ। तब से दीपावली पर्व का प्रचलन जैनों में हुआ।
जिस रात्रि में भगवान का निर्वाण हुआ, उस रात्रि में बहुत से देव-देवियाँ स्वर्ग से आए। अतः उनके प्रकाश से सर्वत्र प्रकाश फैल गया। उस समय नौ मल्लकी और नौ लिच्छवी काशी-कौशल के 18 राजा उपस्थित थे। उन्होंने सोचा जगत् को ज्ञान प्रकाश से प्रकाशित करने वाली भाव ज्योति बुझ गई... उस की स्मृति में द्रव्य-दीपक जलाने चाहिए। उन्होंने घर-घर दीपक जलाए। तब से दीपोत्सव पर्व चला आ रहा है।
उस समय आंसू भरी आंखों वाले देव-देवेन्द्रों ने भगवंत के शरीर को प्रणाम किया और जैसे अनाथ हो गए हों - वैसे खड़े रहें। __शक्रेन्द ने, नंदनवन आदि स्थानों से गोशीर्ष चंदन मंगवा कर चिता बनायी। क्षीरसागर के जल से प्रभु के शरीर को स्नान कराया। अपने हाथों से शरीर पर विलेपन किया। दिव्य वस्त्र ओढाया और देव-देवेन्द्रों ने मिलकर देह को दिव्य शिबिका में पधराया।
इन्द्रों ने शिबिका उठायी। देवों ने जय जय शब्दों का उच्चारण करते हुए पुष्पवृष्टि प्रारंभ की। देव-गंधर्व गाने लगे। सैंकड़ों देव मृदंग वगैरह वाद्य बजाने लगे।
प्रभु की शिबिका के आगे शोकविह्वल देवांगनाएँ अभिनव नर्तकियों के समान नृत्य करती चलने लगी। भवनपति-व्यंतरज्योतिष्क और वैमानिक देव, दिव्य वस्त्र से, आभूषणों से और पुष्पमालाओं से शिबिका का पूजन करने लगे। श्रावक-श्राविकायें शोक व्याकुल होकर रूदन करने लगे।
शोकसंतप्त इन्द्र ने प्रभु के शरीर को चिता के ऊपर रखा। अग्निकुमार देवों ने उस में अग्नि प्रज्वलित की। अग्नि को प्रदीप्त करने के लिये वायुकुमार देवों ने वायु चलाया। देवों ने सुगंधित पदार्थों के और घी के सैंकड़ों घड़े आग में डाले। प्रभु का शरीर संपूर्ण जल जाने पर मेघकुमार देवों ने क्षीरसागर के जल से चिता बुझा दी।
शक्रेन्द्र ने तथा ईशानेन्द्र ने प्रभु के शरीर की ऊपर की दाहिनी और बायीं दाढ़ाओं को ले लिया। चमरेन्द्र और बलीन्द्र ने नीचे की दाढ़ाएं ले ली। अन्य देव भी दांत और अस्थि ले गये। मनुष्यगण चिता की भस्म (राख) ले गये। बाद में देवों ने उस स्थान पर रत्नमय स्तूप की रचना की। देव-देवेन्द्र वहां से अपने अपने स्थान चले गये।
इस प्रकार इन्द्रों ने निर्वाण का उत्सव मनाया और नंदीश्वर द्वीप के शाश्वत चैत्यों में अष्टाहिन्का महोत्सव किया।
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