Book Title: Jain Dharm Darshan Part 05
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 130
________________ गुणमंजरी भी वहाँ बैठी थी। उसने अपना पूर्व जन्म सुना तो उसे जाति-स्मरण ज्ञान हो गया। वह अपने पापों पर बहत पछताने लगी। सेठ सिंहदास ने पुछा - "गरुदेव! अब क्या किया जाये जिससे इसका प्रगाढ ज्ञानावरणीय कर्म हल्का पड़े? इसका गूंगापन मिटे और शरीर निरोगी हो जाय।" आचार्यश्री ने कहा - “कार्तिक सुदी पंचमी को ज्ञानपंचमी के दिन से ज्ञान की आराधना प्रारंभ करो। महीने की प्रत्येक सुदी पंचमी को चौविहार उपवास करके 'ऊँ ह्रीं नमो नाणस्स' इस ज्ञान पद का जाप करो, सुपात्र दान दो, प्रभु-भक्ति करो। पाँच वर्ष पाँच मास अर्थात् 65 उपवास व जाप करने से इसका यह कष्ट दूर होगा।" - आचार्यश्री की सभा में उस नगर का राजा अजितसेन भी उपस्थित था। उसके वरदत्त नाम का पुत्र था। राजा ने आचार्यश्री से निवेदन किया - "भगवन्! मेरा यह वरदत्त नाम का पुत्र मंद बुद्धि वाला है। पढ़ता भी नहीं और कुछ भी समझता नहीं। शरीर भी इसका कुष्ट पीड़ित है, इसने पूर्व जन्म में क्या पाप किया, जिस कारण इसे यहाँ इतने उपचार करने पर भी कोई लाभ नहीं मिला।" आचार्यश्री ने वरदत्त के पूर्व जन्म की घटना सुनाते हुए कहा - "प्राचीनकाल में वसु नाम के श्रेष्ठी के दो पुत्र थे- वसुसार और वसुदेव। दोनों पुत्रों ने दीक्षा ली। छोटा भाई वसुदेव बहुत तीक्ष्ण बुद्धि था। उसने अनेक शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया। प्रतिदिन वह 100 साधुओं को पढ़ाता था। इतना श्रम करने से वह थक जाता था। एक दिन रात को थककर गहरी नींद में सोया था कि एक साधु ने उसे जगाकर कहा - "मुझे अमुक पाठ का अर्थ समझाइये।" मुनि वसुदेव बहुत नाराज हुए। वे बोले- “चले जाओ यहाँ से, मैं तुम्हें नहीं पढ़ाऊँगा, मुझे नींद लेने दो।" फिर मन ही मन सोचने लगे - 'मैंने क्या पाप किया था कि यह पढ़ाई कराने का झंझट लगाया। न तो आराम कर सकता हूँ, न ही पूरी नींद ले सकता हूँ। इससे तो मेरा बड़ा भाई वसुसार मूर्ख है तो अच्छा है, आराम से रहता है, निश्चिन्त होकर सोता है, कोई तकलीफ नहीं उसे। अब मैं किसी को नहीं पढ़ाऊँगा।' इस प्रकार मुनि वसुदेव ने ज्ञान की आशातना निंदा की, दूसरों को ज्ञानदान देना बंद किया। वही मुनि वसुदेव मरकर यहाँ वरदत्त बना है और ज्ञान की आशातना के दुष्फल रूप में यह मंद बुद्धि हुआ है। वरदत्तकुमार को भी अपना पूर्व-जन्म सुनकर जाति-स्मरण ज्ञान हो गया। उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। आचार्यश्री के बताये अनुसार उसने भी ज्ञानपंचमी की आराधना की। इस प्रकार ज्ञानपंचमी की शुद्ध आराधना करने के कारण गुणमंजरी तथा वरदत्तकुमार का उद्धार हो गया। ज्ञानपंचमी के संबंध में प्राचीन ग्रंथों में यह कथा आती है। इसका सार यही है कि ज्ञान के साधन, पुस्तकशास्त्र की आशातना करना, गुरु के साथ दुर्व्यवहार करना और ज्ञान की निन्दा करना तथा ज्ञान होते हुए भी दूसरों को ज्ञान नहीं देना। यह सब बातें ज्ञानावरणीय कर्म का प्रगाढ़ बंधन बाँधने वाली हैं। अध्यापक शिक्षा देने वाला यहाँ गृहस्थ है। पाटी पुस्तक और धार्मिक शास्त्र नहीं हैं,किन्तु फिर भी वे ज्ञान के उपकरण हैं, ज्ञान के साधन हैं तो उनका तिरस्कार व अपमान करना भी ज्ञान की आशातना है। इसलिए गुरुजनों का, अध्यापकों का कभी अपमान नहीं करना चाहिए। ज्ञान के साधन पुस्तक, कागज, कलम आदि का भी तिरस्कार नहीं करना चाहिए। यह कहानी हमें इन बातों के प्रति सावधान करती है। 118

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